इन गुलाब की पंखुड़ियों पर
जमी
ओस की बुँदकी चमकी
नए साल की आहट पाकर
उम्मीदों की बगिया महकी
रही ठिठुरती
सांकल गुपचुप
सर्द हवाओं के मौसम में
द्वार बँधी
बछिया निरीह सी
रही काँपती घनी धुँध में
छुअन किरण की मिली सबेरे
तब मुँडेर पर चिड़िया चहकी
दर-दर भटक रही
पगडंडी
रेत-कणों में
राह ढूँढती
बरगद की
हर झुकी डाल भी
जाने किसकी
बाँट…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on December 27, 2013 at 9:30am — 24 Comments
चोटिल अनुभूतियाँ
कुंठित संवेदनाएँ
अवगुंठित भाव
बिन्दु-बिन्दु विलयित
संलीन
अवचेतन की रहस्यमयी पर्तों में
पर
इस सांद्रता प्रजनित गहनतम तिमिर में भी
है प्रकाश बिंदु-
अंतस के दूरस्थ छोर पर
शून्य से पूर्व
प्रज्ज्वलित है अग्नि
संतप्त स्थानक
चैतन्यता प्रयासरत कि
अद्रवित रहें अभिव्यक्तियाँ
फिर भी
अक्षरियों की हलचल से प्रस्फुटित
क्लिष्ट, जटिल शब्दाकृतियों…
ContinueAdded by बृजेश नीरज on December 2, 2013 at 9:00am — 37 Comments
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