तंत्र में कलश एक निर्धारित माप का घड़ा होता है जिससे मांगलिक विधान किये जाते है I इन विधानों में कलश में सभी तीर्थो का जल, मधु, दुग्ध, तुलसी, यव, आम्र-पल्लव, दूर्वा और न जाने कितने मंगल द्रव्य संचित किये जाते है I मंदिर के कंगूरों को भी कलश कहते हैं पर संचयन में प्रायशः गागरी कलश का रूपक ही लिया जाता है I यथा – भाव-कलश, सौन्दर्य-कलश, रूप-कलश आदि I सम्प्रति मेरे हाथो में एक काव्य-कलश है और मै आतुर हूँ यह जानने के लिए कि उसमे क्या और कितना मांगल्य है I इस कलश को प्रतिभावान कवयित्री राजेश कुमारी ने अपने हाथो से गढा है और अपनी कल्पना के मार्दव से मंगलायित किया है I
आलोच्य ‘काव्य-कलश’ में कई प्रकार के काव्य पुष्प हैं –छंद, कह-मुकरी, मुक्तक, गीत, कवितायेँ और अतुकांत कविता I राजेश कुमारी उच्च कोटि की गजलकार भी है और एक अन्य पुस्तक के रूप उन गजलों के संग्रह के शीघ्र आने की आहट मुझे मिली है I छंदों में मात्रिक के प्रति कवयित्री की गहरी रूचि है और उन्होंने ‘उल्लाला छंद’ में माँ शारदा का स्तवन करते हुए संग्रह का प्रारंभ किया है I यथा –
धवल हंस सद्वाहिनी, निर्मल सद्मतिदायिनी
जड़ मति विपदा हरिणी भव सागर तर तारिणी
सब कष्टों से तार दे, शिक्षा का भण्डार दे
हे माँ श्वेता शारदे , विद्या का उपहार दे
अन्य छंदों में दोहा, कुण्डलियाँ, रोला, त्रिभंगी, वीर(आल्हा), ककुभ, तोमर, मदन, कामरूप और सार में सारगर्भित रचनाये हुयी हैं I हिन्दी साहित्य में लगभग सभी प्रबुद्ध कवियों ने प्रभातकालीन शोभा का वर्णन अपनी कल्पना शक्ति के आवेग से किया है I प्रभात का पर्याय भोर बड़ा ही सुष्ठु और आंचलिक बोध लिए हुए है I कवियत्री ने इसका चित्र कल्पना के अत्याधुनिक कैमरे से खींचा है –
चटक चम्पई चांदनी , उजली उजली भोर
कुसुमागम की थाप पर नाचे मन का मोर
निर्झर नदिया से करे मद्धिम-मद्धिम बात
धवल हिमालय को मिले सिंदूरी सौगात
भ्रूण-हत्या सामाजिक अपराध तो है ही पर इस व्याधि के कम होने के आसार नहीं दिखते I पुत्र लोभ में चिकित्सा जगत के दानवो से सांठ-गांठ कर लोग कन्या भ्रूणों की हत्या करते जा रहे है I उन्हें यह भी फ़िक्र नहीं की प्रकृति का संतुलन इससे बिगड़ेगा और उत्तराखंड की तबाही से भी बड़ा मंजर आने वाले समय में देखने को मिलेगा I एक नारी के रूप में कवयित्री की कन्या के अस्तित्व रक्षा से सम्बंधित यह चिंता स्वाभाविक और समीचीन प्रतीत होती है I यथा –
घर की रौनक बेटियां, दो-दो घर की लाज
उनको ही आहत करे कैसा कुटिल समाज
घटती जाएँ बेटियां , बढ़ते जाएँ लाल
बिगड़ेगा जो संतुलन बदतर होगा हाल
संत कबीर ने अपनी हठ यौगिक क्रियाओं को अटपटे ढंग से समझाने के लिए गोरखपंथी साधुओ के प्रभाव से गुह्यात्मक उलटवासियों की रचना की थी जो एक समय में बूझने के लिये मानसिक व्यायाम का उपादान मानी जाती थी और अवधूत एवं तांत्रिक साधु इन वाणियों द्वारा सामान्य जनता को चमत्कृत करते थे I इन उलटवासियो में प्रयुक्त शब्दावली के अनोखे अर्थ होते थे I इन रूपको की एक लम्बी फेहरिश्त आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘कबीर’ नामक अपनी समीक्षात्मक पुस्तक में दी है जिनके बिना उलटवासियों का समझना लगभग असंभव है I कबीर या नागाओ की उलटवासियो का सृजन तत्कालीन परिस्थितियो के अनुरूप हुआ था और अपनी दुरुहता और सामाजिक अस्वीकृति के कारण कुछ ही समय में समाप्त हो गया I पर यह एक साहित्यिक विधा बन गयी I इसी कारण प्रयोग के रूप में कभी कुछ कवि इस विधा में भी जोर आजमाइश करते है I कवयित्री राजेश कुमारी ने भी प्रचलित और आसान रूपको को लेकर कुछ बहुत ही अच्छी उलटवासियाँ रची है जिनका निदर्शन निम्न प्रकार है –
सागर नदियों में मिले घन बरसाए आग
टर्र-टर्र मानव करे मेढक खेलें फाग
मधुशाला में बैठकर मद्य पी रही मीन
नागिन की फुंकार पर नाच रही है बीन
प्रति वर्ष हमारे देश में हजारो लोग छुधार्त होकर मरते हैं I सरकार विचलित तब होती है जब मीडिया आंकड़े और प्रमाण प्रस्तुत करती है I यही मीडिया हमें वह दृश्य भी दिखाती है जहाँ वेयर हाउसों में भण्डारण की उचित सुविधा न होने के कारण प्रति वर्ष लाखों टन गेंहू असुरक्षा के कारण सड जाता है I अबोध जनता हैरान रहती है कि यह चक्र प्रति वर्ष ज्यों का त्यों क्यों चलता है I इस पर अंकुश क्यों नहीं लगता I इतने अनुत्तरदायित्वपूर्ण कार्य के लिए भी किसी कर्मचारी या अधिकारी को न तो जिम्मेदार ठहराया जाता है और न किसी को सजा होती है I यदि कुछ होता भी है तो वह आम आदमी को दिखाया नहीं जाता I इसका एक ही कारण है और वह है सरकार की नीतियों में पारदर्शिता का अभाव I यही गेहूं यदि सड़ने से पूर्व गरीबो में बाँट दिया जाय तो कितना लोक-हित होगा यह महज अनुमान की चीज है I इस सम्बन्ध में कवयित्री की चिंता निम्न प्रकार है –
अन्न खुले में सड रहा कुटिल तंत्र मुसकाय
हाल देख भंडार का मुख से निकले हाय
बोरो पर बोरे लदे बाहर भीगे अन्न
ह्रदय कृषक का रो रहा देख हो रहा सन्न
तरस रहे हैं कौर को भूखे कई हजार
गोदामों में सड रहे गेहूं के अम्बार
हिन्दी में मुकरी लोक काव्य-विधा को साहित्यिक रूप प्रदान करने का श्रेय अमीर खुसरो को प्राप्त है I यह लोकप्रचलित पहेलियों का ही एक रूप है, जिसका लक्ष्य मनोरंजन के साथ-साथ बुद्धिचातुर्य की परीक्षा लेना होता है । इसमें जो बातें कही जाती हैं, वे द्वयर्थक या श्लिष्ट होती है, पर उन दोनों अर्थों में से जो प्रधान होता है, उससे मुकरकर दूसरे अर्थ को उसी छन्द में स्वीकार किया जाता है, किन्तु यह स्वीकारोक्ति वास्तविक नहीं होती क्योंकि बाद में उस कही हुई बात से मुकरकर उसकी जगह कोई दूसरी उपयुक्त बात बनाकर कह दी जाती है । जिससे सुननेवाला हतप्रभ हो जाता है I इसमें प्रस्तुत अर्थ को अस्वीकार करके अप्रस्तुत को स्थापित किया जाता है अतः यह अपने आप में छेकापह्नुति अलंकार भी है I इसी को ‘कह-मुकरी’ भी कहते हैं । हिन्दी के सौभाग्य से यह काव्य विधा अभी जीवित है i राजेश कुमारी ने भी ‘काव्य कलश’ में कुछ सुन्दर कह- मुकरिया कही है i यथा-
घर आँगन को जो महकाये
सांस सांस में घुल मिल जाये
कली-कली मन ही मन हुलसी
क्यों सखी साजन ? न सखी तुलसी
नारी जीवन के अनेक रंग है और वह धैर्यशीला भी होती है I पिता के घर में वह अनिश्चित भविष्य के प्रति चिंतित होती है तो ससुराल जाते हे उसे बाबुल का घर याद आने लगता है I नए घर में सामंजस्य बनाने में कुछ तो समय लगता ही है I यदि सामंजस्य नहीं बना और वह उत्पीडन का शिकार हुयी तो उस दुर्वह कष्ट में भी उसकी भरसक कोशिश यह होती है कि बाबुल को इस हकीकत का पता न चले I नारी की इस पीडा और संवेदना को कवयित्री ने ‘ससुराल’ शीर्षक अपनी कविता में बड़ी शिद्दत से बयां किया है I बानगी प्रस्तुत है –
गाँव पहुँचने पर मैय्या जब पूछेगी मेरा हाल सखी
कह देना पीहर से बढ़कर है मेरी ससुराल सखी
मेरी चिरैय्या कितना उडती
पूछे जब उन आँखों से
पलक न झपके उत्तर ढूढे
तब तू जाना टाल सखी
कह देना पीहर से बढ़कर है मेरी ससुराल सखी
राजेश कुमारी की कविता का एक सशक्त पक्ष काव्य शिल्प पर उनका अनन्य अधिकार है I मात्रिक छंदों के अतिरिक्त उन्होंने घनाक्षरी, सवैय्या और पंचचामर जैसे वर्णिक छंदों का भी काव्य में बड़ी कुशलता से उपयोग किया है I उनके शिल्प-सौष्ठव को समझने के लिए विजया घनाक्षरी का निम्नांकित छंद ही पर्याप्त प्रतीत होता है –
शीत मलयज लिए , बदरी मै नीर भरी
भरती मैं रूप नए धरती सी धीर धरी
यत्त पंख चाक हुए उड़ने से नहीं डरी
गरल के घूंट पिए पीकर मै नहीं मरी
अगन संताप दिए रही मै तस्वीर खरी
बहु किरदार जिए जगत की पीर हरी
परहित भाव लिए जतन से नहीं तरी
पुष्प गुम्फ झर गए अडिग मै नहीं झरी
उक्त घनाक्षरी का जो शिल्प सौष्ठव है उसका अपना महत्व है पर इसमें मीरा और सीता के सांकेतिक उल्लेख से जो संवेदना उकेरी गयी है और उसमे नारी के जिस अटूट आत्मविश्वास एवं धैर्य का समर्थन है वह प्रकारांतर से कवयित्री के निज व्यक्तित्व और उनकी अनन्य कारयित्री प्रतिभा का प्रमाणिक दस्तावेज है I
‘काव्य कलश ‘ की अनेक कविताये ऐसी है जिनके मर्म को मात्र उद्धरण मे बांधकर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता I इसके लिए प्रमाता को काव्य तक अपनी पहुँच बनानी होगी I ‘मजदूर दिवस’ कविता की वह मजदूरनी जो अपने भीगे ब्लाउज को अपनी फटी धोती के पल्लू से छिपाती है या ‘मशीनी मानव’ के वे पात्र जिनके जिस्म व् मस्तिष्क को निर्धनता के हथौड़े ने एक सांचे में ढाल दिया है या फिर
‘वो पीपल का पेड़’ जो भविष्य में लिखे जाने वाले इतिहास में एक प्रत्यक्षदर्शी की भांति गवाही देने को प्रतिबद्ध है अथवा ‘झेलम के किनारे’ का वह दृश्य जहाँ पूर्ण उफान के साथ उन्मादित, पत्थरो को छलांगती, बलखाती , गुनगुनाती नदी के तट पर प्रिय का साथ है, प्रभृति अनेक ऐसे मंजर है जो पाठक को एक ऐसी यूटोपिया में ले जाते है जहाँ मात्र सम्मोहन है , जादू है, तिलिस्म है और अनाहत आनंद है I
ई एस -1/436 , सीतापुर रोड योजना
कालोनी, अलीगंज सेक्टर-अ ,लखनऊ
(मौलिक व अप्रकाशित) मो नं – 97 95 51 85 86
Tags:
आ० डॉ.गोपाल नारायण जी,किन शब्दों से आपका आभार व्यक्त करूँ,???विस्मित होने के साथ अभिभूत भी हूँ आपके द्वारा काव्य कलश की समीक्षा पढ़कर. ये मानिए प्रकाशन के बाद कई लोगों ने पुस्तक मंगाई ,आज सुबह ही एक बड़े साहित्यकार की लिखी समीक्षा प्राप्त हुई जो उसे छपवाने की बात भी कर रहे हैं और अब आपकी इस समीक्षा पर अचानक आ पंहुची हूँ ऐसा लग रहा है कि आज मुझे कितना बड़ा पारितोषिक मिल गया है |आपने विभिन्न रचनाओं की तह तक पँहुच कर जो सारगर्भित विश्लेषण किया तो लगा मेरा श्रम व्यर्थ नहीं गया मेरी रचनाएँ अपनी बात सही ढंग से कह रही हैं | मेरी यह पुस्तक आपके हाथों तक पंहुची आप जैसे गंभीर रचनाकार का आशीष मिला एक लेखक को और क्या चाहिए आपके इस न्यायसंगत विस्तृत समीक्षा हेतु कोटि कोटि आभार सादर |
अभिभूत हूँ महनीया i आभारी भी i
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |