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OBO लाइव तरही मुशायरा-3 (Now Closed)

इस बार का तरही मिसरा 'बशीर बद्र' साहब की ग़ज़ल से लिया गया है|
"ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई"
वज्न: 212 212 212 212
काफिया: ई की मात्रा
रद्दीफ़: रह गई
इतना अवश्य ध्यान रखें कि यह मिसरा पूरी ग़ज़ल में कहीं न कही ( मिसरा ए सानी या मिसरा ए ऊला में) ज़रूर आये|
मुशायरे कि शुरुवात शनिवार से की जाएगी| admin टीम से निवेदन है कि रोचकता को बनाये रखने के लिए फ़िलहाल कमेन्ट बॉक्स बंद कर दे जिसे शनिवार को ही खोला जाय|

इसी बहर का उदहारण : मोहम्मद अज़ीज़ का गाया हुआ गाना "आजकल और कुछ याद रहता नही"
या लता जी का ये गाना "मिल गए मिल गए आज मेरे सनम"

विशेष : जो फ़नकार किसी कारण लाइव तरही मुशायरा-2 में शिरकत नही कर पाए हैं
उनसे अनुरोध है कि वह अपना बहूमुल्य समय निकाल लाइव तरही मुशायरे-3 की रौनक बढाएं|
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मुक्तिका:

संजीव 'सलिल'
*
आँख नभ पर जमी तो जमी रह गई.
सांस भू की थमी तो थमी रह गई.
*
सुब्ह सूरज उगा, दोपहर में तपा.
साँझ ढलकर, निशा में नमी रह गई..
*
खेत, खलिहान, पनघट न चौपाल है.
गाँव में शेष अब, मातमी रह गई..
*
रंग पश्चिम का पूरब पे ऐसा चढ़ा.
असलियत छिप गई है, डमी रह गई..
*
जो कमाया गुमा, जो गँवाया मिला.
ज़िन्दगी में तुम्हारी, कमी रह गई..
*
बेहतरीन !!!! एक बार फिर से कमाल

रंग पश्चिम का पूरब पे ऐसा चढ़ा.
असलियत छिप गई है, डमी रह गई..
अद्भुत!
सलिलजी नमस्ते.
>>जो कमाया गुमा, जो गँवाया मिला.
ज़िन्दगी में तुम्हारी, कमी रह गई..
आपने वो कुछ कहा है सलिलजी जिसे समझने में बरसों लगें.. इस गूढ़ विचार को इतनी आसानी से कहने के लिए धन्यवाद.
सर्वप्रथम मेरा प्रणाम,
नवीनजी आप की सारी ग़ज़लें पढ़ी मैंने दुसरे मुशायरे में | सब नहले पे दहला थी| और तीसरे मुशायरे में भी क्या गज़ब शुरुवात की है|
किसी भी शे'र में कोई कमी नहीं| मगर यह शे'र बहुत अच्छा लगा --------
वो भले घर से थी, 'चीज़' ना बन सकी|
इसलिए, नौकरी ढूँढती रह गयी|३|
नवीन भाई, मुशायरा लूटने का इरादा है क्या ? क्या ज़बरदस्त ग़ज़ल कही है ! मतले से मकते तक मोती पिरो दिए हैं आपने, हर शेअर आपने आप में मुकम्मिल और कामयाब है ! इस ग़ज़ल में मेरे सब से पसंदीदा दो शेअर :

//वो भले घर से थी, 'चीज़' ना बन सकी
इसलिए, नौकरी ढूँढती रह गयी !
बन्दरी, जो मदारी के 'हत्थे' चढी|
ता-उमर, कूदती-नाचती रह गयी !//

वाह वाह वाह !
बड़े भैया मै जितना आपको जानता हूँ यकीनी तौर पे कह सकता हूँ की ये ग़ज़ल आपकी मास्टर पीस है|
हर शेर पूरी ग़ज़ल के बराबर दाद पाने की कुव्वत रखता है ..किसको छोड़ें...और किसको उठायें|
अद्भुत कारीगरी
बधाई हो| jay hoooooo |
bahut khub navin jee..
नवीन जी! हर शे'र एक से बढ़कर एक... पूरी ग़ज़ल दिल तक पहुँचाने में समर्थ है. बधाई.
नविन भईया मेरा बस चले तो यह मुशायरा आप के एक शे'र पर लुटा दूँ ,
वो भले घर से थी, 'चीज़' ना बन सकी|
इसलिए, नौकरी ढूँढती रह गयी|३|

क्या ख्यालात है, बहुत ही उम्द्दा शे,र कहा है आपने , पूरी ग़ज़ल का निचोड़, वाह वाह के आलावा और क्या कहूँ, बधाई, लिखा लीजिये २-४ एकड़ ,
//वो भले घर से थी, 'चीज़' ना बन सकी
इसलिए, नौकरी ढूँढती रह गयी !
बन्दरी, जो मदारी के 'हत्थे' चढी|
ता-उमर, कूदती-नाचती रह गयी !// mujhe samjh me nahee aa rha ki tareef ke liye shbd kanha se laun .. mere paas lafzon kee kamee ra gai .. kamal lazwab
वो भले घर से थी, 'चीज़' ना बन सकी|
इसलिए, नौकरी ढूँढती रह गयी|३|

दोष माँ-बाप का हो, या औलाद का|
नस्ल तो, अस्ल में, मतलबी रह गयी|५|

जब 'तजुर्बे' औ 'डिग्री' का दंगल हुआ|
कामयाबी, बगल झाँकती रह गयी|६|

बहुत खूब नवीन भाई। एक और शानदार, जानदार, ईमानदार ग़ज़ल के लिए बधाई।
नविन चतुर्वेदी जी २ शेर और कहते है

दिल है कि मानता नहीं...........

काबा-काशी वही हैं, मगर दोस्तो|
बन्दों में हीं, नहीं, बन्दगी रह गयी||

बेकरारी का आलम, न हो, तो हो क्या|
अब कहाँ, लोगों में - सादगी रह गयी||

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