"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-81 में प्रस्तुत समस्त रचनाएँ
विषय - "पावस"
आयोजन की अवधि- 14 जुलाई 2017, दिन शुक्रवार से 15 जुलाई 2017, दिन शनिवार की समाप्ति तक
पूरा प्रयास किया गया है, कि रचनाकारों की स्वीकृत रचनाएँ सम्मिलित हो जायँ. इसके बावज़ूद किन्हीं की स्वीकृत रचना प्रस्तुत होने से रह गयी हो तो वे अवश्य सूचित करेंगे.
सादर
मिथिलेश वामनकर
मंच संचालक
(सदस्य कार्यकारिणी)
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सावन का गीत- मोहम्मद आरिफ़
तेरी यादों का बादल घिर आया है मेरी आँखों ने सावन बरसाया है
पहली बारिश के संग आई तेरी याद बिन तेरे ये जीवन कैसे हो आबाद सुना मन चुपके-चुपके करता फरियाद तेरी यादों का........
रह-रह के दिल जैसे खिंचता जाता है बैरी सावन दिल में आग लगाता है मन का पंछी गीत मिलन के गाता है तेरी यादों का .........
हम तुम जब कॉलेज में पढ़ने जाते थे इक दूजे से हम घंटों बतियाते थे बारिश के पानी में ख़ूब नहाते थे तेरी यादों का ........
बारिश ने दिल में फिर आग लगाई है खिल न पाई दिल की कली मुरझाई है कैसे मिलें हम , मिलने में रूस्वाई है तेरी यादों का .........
पावस विरह गीत- बासुदेव अग्रवाल 'नमन'
हे सखि पावस तन हरषावन आया। घायल कर पागल करता बादल छाया।।
क्यों मोर पपीहा मन में आग लगाये। सोयी अभिलाषा तन की क्यों ये जगाये। पी को करके याद मेरा जी घबराया। हे सखि पावस तन हरषावन आया।।
ये झूले भी मन को ना आज रिझाये। ना बाग बगीचों की हरियाली भाये। बेदर्द पिया ने कैसा प्यार जगाया। हे सखि पावस तन हरषावन आया।।
जब उमड़ घुमड़ बैरी बादल कड़के। तड़के बिजली तो आतुर जियरा धड़के। याद करूँ पिय ने ऐसे में चिपटाया। हे सखि पावस तन हरषावन आया।। |
पावस के दोहे- लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
गरमी का मौसम गया, आया पावस पास नभ के निर्मल नीर से, कणकण में उल्लास।1।
टिपटिप बूदें कर रही, पावस का अभिसार चहुँदिश फैला फिर यहाँ, हरा भरा व्यापार।2।
अबरोही बादल भरें, नित नदिया की गोद तपन धरा की मिट रही, जनजन में आमोद।3।
बूँद-बूँद पीकर बुझी, तपी धरा की प्यास बारिस ने धो धो किए, यहाँ आम भी खास।4।
पावस में बौछार से, मन-मन उठे हिलोर हुआ देह का हाल अब, ज्यों जंगल में मोर।5।
पावस लाया मेघ को, फिर धरती के पास नव जीवन के वास्ते, रुत आई है खास।6।
नाले नदियों से मिले, ले बचपन की प्रीत चुहचुइया नित तान दे, दादुर गाए गीत।7।
कोदो, मकई, बाजरा, सोया, अरहर, धान पावस में बीजा करे, सपने सजा किसान ।8।
डर कर तपते जेठ से पकड़ा पावस हाथ सौ गहरे अवसाद अब एक खुशी के साथ।9।
हलधर की है कामना, वर्षा हो भरपूर उससे उपजे अन्न फिर, निर्धनता हो दूर।10।
पावस यह अवधूत सा, जब से आया गाँव दर्शन को आने लगे, बदरा नंगे पाँव।11।
कब सबको सावन रहा, कब सबको आषाढ़ इस आगन सूखा रहा, उस आगन में बाढ़।12।
बारिश से गदगद हुए, जामुन औ‘ अमरूद इस पावस फिर कर गईं, दूबें बड़ा वजूद।13।
पावस में भीगे बहुत, भले खेत खपरैल अपने तन का पर धरा, बहा न पाई मैल।14।
खट्टी-मीठी बतकही, झूलों की सौगात अनगिन खुशियाँ बाँटती, सखियों में बरसात।15। |
विषय आधारित प्रस्तुति- डॉ. टी.आर. शुक्ल
ए पावस! तू पायेगी यश , कुछ मेरी भी सुन ले भीगी इन पलकों के, मोती तू चुन ले।
भीगे वसन को सुखा लूं , चार पल पर्ण कुटिया सुधारूं, तू भी तब तक कुछ आराम ले ले, सांस मेरी भी कुछ चैन पाये, नींद ये नैन पायें कुछ ऐसा तू गुन ले।
शीत भी न हुआ मीत मेरा, ग्रीष्म ने भी न व्रत भीष्म तोड़ा, उसने ठिठुराया तड़पाया इसने, पवन पावन ने कितना झकझोरा। तू तो शीतल है सुन ले इस करुणा को, कुछ न कुछ तो आश्वासन दे दे?
ए देख ! इतनी न बन निर्दयी, मेरे आ पास बन जाऊं साथी नई खोल दूंगी तड़पते हृदय के इन घावों को , देख लेना स्वयं तू उनकी वेदनाओं को चन्द सांसे बचीं जो तेरे साथ गुजरें चल, जीवन की पीड़ित कथा को तू सुन ले। |
ग़ज़ल- तस्दीक अहमद खान
मिलन का लुत्फ़ कभी तो चखाओ पावस है | हमारे दिल की लगी को बुझाओ पावस है |
ज़मीं की प्यास तो पहले बुझाओ पावस है | फिर उस में फस्ल किसानों उगाओ पावस है |
भला तुम्हारे बिना कैसा लुत्फ़ बारिश का चले भी आओ न हम को सताओ पावस है |
फलक पे छा गये ना गाह मैकशों बादल न आज जाम लबों से हटाओ पावस है |
पड़ेगी इसकी ज़रूरत सफ़र में जानेजहाँ बगैर छतरी के बाहर न जाओ पावस है |
गुज़र न जाए कहीं इंतज़ार की हद भी अखीर वक़्त है वादा निभाओ पावस है |
भिगो न दें कहीं बूँदें तुम्हारे कपड़ों को न छत पे जा के इन्हें तुम सुख़ाओ पावस है |
तुम्हारा जिस्म झलकता है भीगे कपड़ों में न हश्र ,हश्र से पहले उठाओ पावस है |
वफ़ा की बात ही तस्दीक़ सिर्फ़ तुम करना कोई न शिकवा गिला लब पे लाओ पावस है | |
चौपाई छंद- अशोक कुमार रक्ताले
घन की पड़ी शीश पर छाया| ऋतु बदली तनमन हर्षाया || ताप और संताप मिटाया | जब पावस ने बिगुल बजाया ||
बूँद-बूँद तक-तककर मारे | अंग-अंग दहके अंगारे || नीरद नेह धरा पर वारें | रिमझिम-रिमझिम पड़ी फुहारें ||
वन उपवन हरियाली छायी | नई चेतना जग ने पायी || कृषक पीर सब अपनी भूला| कहता है सावन का झूला ||
नभ से गिरते जल के धारे | वसुधा के आँगन में सारे || दिखलाते हैं रूप सुहाना | सरिता और सरोवर नाना ||
कहती थी बचपन में नानी | पावस है ऋतुओं की रानी || नीर सजाये इसकी डोली | हरियाली से भर कर झोली ||
ग़ज़ल- मोहम्मद आरिफ़
बारिश आई बारिश आई , दिशा-दिशा फिर ख़ुशियाँ लाई ।
राग अलापें मोर पपीहे देखो, सबके मन को भाई ।
खिल उठ्ठे सब उदास चहरे , खेतों में हरियाली छाई ।
बिखरी छटा निराली यारों , कलियों ने ली है अँगड़ाई ।
धक धक धड़के मनवा "आरिफ़" , बारिश ने है आग लगाई । |
कुण्डलिया छंद- प्रतिभा पाण्डे
1. दिन वर्षा के आ गए, भरे तलैया ताल रही रात भर जागती, झुग्गी है बेहाल झुग्गी है बेहाल , डराती टप टप बोली हर मौसम की मार, गिरे इसकी ही झोली बरखा के सब जुल्म, कलेजे पर हैं गिन गिन इसकी हस्ती याद, दिलाते वर्षा के दिन
2. घन लाये सन्देश हैं, सावन तेरे द्वार मौसम बदले रूप जब, तभी चले संसार तभी चले संसार, रात,दिन,वर्षा, सूखा हैं जीवन के रूप, न रखना मन को रूखा जीवन सुर पहचान , हरा कर ले अपना मन घिर घिर तेरे द्वार, बताने आये ये घन
ग़ज़ल- मनन कुमार सिंह
सबकी अपनी-अपनी पावस चाहत खोल खड़ी है तरकस।
बादल बरसे, उपवन सूखा मन की प्यास बँधाती ढ़ाढ़स।
बगुले सारस नाच रहे हैं नज्र गड़ाये चातक बेबस।
भूल रहा नर करतब अपना बुनता जाता है धुन सरकस।
गिरि के ऊपर नीर जमा है ढूँढ़ रहा विरही निज मन रस।
दीप जलें चाहे जितने भी खेल दिखाती खूब अमावस।
चपला चमकी,मन चिहुँका है घाव लगे,वह करता कस-मस। |
गीत- ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र
बूंदों की लहराती लड़ी है। सावन में लग रही झड़ी है।
बादलों का शामियाना तान, सजने लगा है आसमान। सूरज छुपा ओट में कहीं, इंद्रधनुष का है फैला वितान। धुल गए जड़ चेतन, पुष्प, सद्यःस्नाता सी लताएं खड़ी हैं।
धुल गई धूल भरी पगडंडी, चट्टानों पर बूंदें बिखर रहीं। कजरी के गीत गूंज उठे, पर्दे के पीछे गोरी संवर रही। झूले पड़ गए अमवां की डालों पर कोयल की कूक हूक सी जड़ी है।
यक्ष दूर पर्वत पर अभिसप्त खोज रहा बादल का टुकड़ा। भेजने को संदेश प्रेयसी को,जो खड़ी देहरी पर, म्लान है मुखड़ा। उदास, लटें बिखरीं, तन कंपित, आंगन की खाट पर बेसुध पड़ी है।
मोर का शोर भर रहा उपवन में, उमंगों का नहीं ओर छोर है। किसान चला खेतों की ओर, मन में बंध चली आशा की डोर है। आनंद का मेला लगा है, गाँव की ओर उम्मीदें मुड़ी है। |
बाल कविता- सुरेन्द्र नाथ सिंह 'कुशक्षत्रप'
धरती पर हरियाली छाई | जबसे है पावस ऋतु आयी|| लगे अलौकिक छटा सुहानी| झम झम बरस रहा है पानी||
सोंधी सोंधी माटी महके | पवन चले अन्तर्मन चहके || नाचे मोर पपीहा गाये | चातक मीठे गीत सुनाए||
घिरी घटाएं काली काली | बुनती हैं बूंदों की जाली || उपवन उपवन कांत कामिनी | गरज रही है मेघ दामिनी ||
घर मे बैठे नाना नानी| भीग रही है गुड़िया रानी || तोता बुलबुल औ गौरैया | घर आँगन औ गौरी गैया ||
काला लाल बैंगनी पीला| हरा और नारंगी नीला || इन्द्रधनुष निकला है कैसा | कभी न देखा होगा ऐसा ||
मोहन सोहन श्याम मुरारी| मीना रीना और दुलारी || सँग लिए सबको है भैया || चला रहे कागज की नैया ||
माना मौसम बहुत सुहाना | लेकिन सँभल सँभल के जाना || दौड़ो नहीं, फिसल जाओगे | मिट्टी में सन कर आओगे || |
विषय आधारित प्रस्तुति- विनय कुमार
दिलों में आग लगाने, आया है सावन किसी को पास बुलाने आया है सावन संभल के आज निकलना जरा तुम घर से बदन को देखो भिगोने आया है सावन लाख कोशिश करोगे भूल नहीं पाओगे इश्क़ का जाम पिलाने आया है सावन रूठे रिश्तों को मनाने के लिए सोचा तब नई उम्मीद जगाने आया है सावन वो उनकी याद और बरसती प्यारी बूदें मन के कोने को सताने आया है सावन रूठ के चले गए जो जरा सी बातों पर आज फिर उनको मनाने आया है सावन टूटे हुई छत की मरम्मत थी बाकी उनके अरमान बुझाने आया है सावन जिनके खेतों में झमाझम बरसा है पानी उन किसानों को रिझाने आया है सावन चलता है घर ही जिनका रोज की दिहाड़ी से उनके चूल्हों को बुझाने आया है सावन !! |
द्विपदियाँ- सतीश मापतपुरी
साजन भवन नहीं तो सावन, बूँदें क्यों बरसाते हो? पावस में पावक बन गोरे, अंग-अंग झुलसाते हो ।
निशा भींगती है बारिश में, मैं अँसुवन में डूब रही । सावन की मदमस्त हवा, बन बरछी बदन में चूभ रही।
मेघा रात में चमक-गरज क्यों, इक विरहिन को डराते हो? साजन भवन नहीं तो सावन, बूँदें क्यों बरसाते हो?
सावन माह चढ़ा है सर पे, साजन जा परदेस बसे । किस सौतन के रूप जाल में, मेरे भोलेनाथ फँसे ।
छत निहार कर रात काटती, क्यों न सजन जी आते हो? साजन भवन नहीं तो सावन, बूँदें क्यों बरसाते हो?
लेकर आती भोर उम्मीदें, साँझ निराशा भर देती । जैसे - तैसे दिन कट जाता, रात नहीं सोने देती ।
कालिदास सा तुम मेघा से, क्यों न संदेश पठाते हो? साजन भवन नहीं तो सावन, बूँदें क्यों बरसाते हो? |
विषय आधारित प्रस्तुति- नयना कानिटकर
गूँज उठी पावस की धुन सर-सर-सर, सर-सर-सर
आसंमा से आंगन में उतरी छिटक-छिटक बरखा बौछार चहूँ फैला माटी की खुशबू संग थिरक रही है डार-डार गूँज उठी पावस की धुन/ सर-सर-सर
उमगते अंकुर धरा खोलकर हवा में उठी पत्तो की करतल बादल रच रहे गीत मल्हार हर्षित मन से झुमता ताल गूँज उठी पावस की धुन/ सर-सर-सर
गरजते बादल, बरखा की भोर बूँदों की रिमझिम रिमझिम पपिहे की पीहू ,कोयल का शोर आस मिलन जुगनू सी टिमटिम गूँज उठी पावस की धुन / सर-सर-सर |
कुकुभ / ताटंक छंद- डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव
वनचर वधुओं के पर्वत पर होते भ्रमण निकुंजों में रमण किया कामायित होकर उन सबने जिन कुंजों में मेघ! ठहर जाना उस थल पर तुम विराम कुछ कर लेना जल बरसाकर हल्के होकर प्राणों में गति भर लेना
फिर विन्ध्याद्रि ढलानों के कुछ ऊंचे-नीचे ढोको में शिवज नर्मदा दीख पड़ेगी हुलस पवन के झोंको में जैसे हाथी के अंगो पर रचना विविध कटावों से वैसी होती मुखर आपगा स्वतः निसर्ग प्रभावों से
जामुन के कुंजों में बहता नर्मद-जल प्यारा-प्यारा वनराजी के तीखे मद से रस- भावित सुरभित धारा बरसाकर सरिता में अपने अंतस का सारा पानी करना फिर आचमन सुधा का हे मेरे बादल मानी
भीतर से घन होगे यदि घन तब तुम थिर रह पाओगे पूँछ सकोगे तब मारुत से कैसे मुझे उड़ाओगे ? हलके होते हैं वे सचमुच जो भीतर से रीते हैं भारी-भरकम ही दुनिया में शीश उठा के जीते हैं .
[मेघदूत के पूर्व-मेघ खंड छंद 19 व 20 का भावानुवाद] |
बाल कविता- सतविन्द्र कुमार
गर्मी से हम सब हैं हारे लगें पेड़ भी प्यासे सारे
तपती धरती तुम्हें पुकारे आ जाओ बादल हे प्यारे!
तुम आते हो छा जाते हो साथ बहुत पानी लाते हो
झम-झम इसको बरसाते हो तब हमको बहुत सुहाते हो
बरखा रानी आ जाती है हम पर मस्ती छा जाती है
कागज़ की हम नाव बनाते फिर पानी पे उसे चलाते।
स्कूल चलें हम लेकर छाता कीचड़ हमको नहीं सुहाता
जिसको नहीं सँभलना आता वहीं धड़म से वह गिर जाता।
००० समाप्त००० |
ग़ज़ल- लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
जंगल पोखर ताल नदी सब हैं प्यासे पावस में सुनकर बदरा परदेशी दौड़े आए पावस में।
अपनी लम्बी नीदों से दादुर जागे पावस में सजनी हर्षित दौड़ी सुन साजन लौटे पावस में।
कितने डूबे पग पग पर कितने उतरे पावस में बरबादी का हाल बने कितने सूबे पावस में।
पर्वत पर्वत जगह जगह शोते फूटे पावस में नदिया बनके झूम रहे चहँुदिश नाले पावस में।
गुरबत वाली बस्ती के घरघर चूँते पावस में फिर भी नूतन आस लिए हलधर नाचे पावस में।
जामुन औ' अमरूदों संग आम हैं मीठे पावस में जी भर सब मिल खाएँगे पंछी सोचे पावस में।
मन बैरागी राग सजा अल्हड़ जैसा डोल रहा बूढ़ा तन फिर अपने को कैसे रोके पावस में।
दर्पण की हर रीत गई माटी संग जो नीर मिला कैसे गोरी ताल में अपना मुखड़ा देखे पावस में।
मन रोता है बिरहन का साजन जो परदेश गए पी संग देखे झूल रहीं सखियाँ झूले पावस में।
कीट पतंगे घर करते जिनके काटे रोग लगे मत रखना माँ कहती है खिड़की खोले पावस में।
रिमझिम में यूँ भीग तनिक तनमन की तूँ प्यास बुझा क्यों चलता है अरे! बावले छाता खोले पावस में। |
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