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(१). श्री रवि प्रभाकर जी 

‘प्यादे’

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‘ठाकुर साहिब ! प्रणाम ! आप और हमारी बस्ती में ?’ ठाकुर को गाड़ी से उतरते देख किसना समेत सभी बस्ती वाले हैरान थे।
‘क्यों भाई ! हमारा यहाँ आना मना है क्या?’ चेहरे पर कुटिल मुस्कान लिए ठाकुर बस्ती वालों को सुनाते हुए थोड़ा ऊंचे स्वर में बोला
‘अरे कैसी बात करते हैं सरकार ! आप तो माई बाप है हमारे। पधारिए !’
‘अरे भाई किशन लाल हम तो सेवक हैं तुम लोगों के।’ कुर्सी पर बैठते हुए ठाकुर बोला
‘कुछ चाय नाश्ते का इंतजाम करो।’ किसना अपने छोटे भाई को इशारा करते हुए बोला
‘उसकी कोई जरूरत नहीं । वैसे भी आज मेरा व्रत है सो सांझ को आरती के बाद ही अन्न ग्रहण करूंगा।’
‘तो दूध ले आता हूं सरकार!’
‘तुम तकल्लुफ मत करो भाई किशन लाल ! मुझे अगर कुछ चाहिए होगा तो मैं खुद ही माँग लूँगा। दरअसल मैं तुमसे एक जरूरी बात करने आया हूँ ।’
‘आप हुक्म कीजिए सरकार।’ किसना हाथ जोड़कर बोला
‘देखो भाई किशन लाल ! कुछ महीने बाद पंचायत के चुनाव होने वाले हैं। मैं चाहता हूं कि इस बार तुम लोगों को भी पंचायत में शामिल किया जाए। तुम्हारे परिवार ने बरसों हमारी सेवा की है तो तुम हमारे भरोसेमंद आदमी भी हो और इस बस्ती के मुखिया भी हो, मैं चाहता हूं कि तुम पंच का चुनाव लड़ो।’
‘मैं माई बाप?’ किसना आश्चर्यचकित था
‘हाँ तुम, हम सभी तुम्हारे साथ है। खर्चे की फिक्र न करना। बस अपनी बस्ती वालों को अपने हाथ में रखना। और अपने भाई की बहू को भी तैयार कर लो। ऐसी पढ़ी-लिखी औरतों की पंचायत को और इस गाँव को बहुत जरूरत है।’
‘जो हुकम सरकार।’
तभी ठाकुर के फ़ोन की घंटी बजी और वो फ़ोन पकड़ कर बाहर की तरफ लपका। 
‘हैलो ! प्रणाम नेता जी। काम हो गया, आरक्षित वर्ग के दो घोड़े तो काबू कर लिए हैं। बस अब महिला सरपंच वाला मोहरा फिट करनी बाकी रह गया है। अगर आप आज्ञा दें तो सरपंची के लिए अपनी बड़ी बहू को तैयार करें?’ उत्तर सुनकर ठाकुर के चेहरे पर एकदम लाली दौड़ गई। किसना के झोपड़े से आती उत्साहपूर्ण आवाज़ों को सुन ठाकुर बड़ी हिकारत से जमीन पर थूकते हुए बोला, ‘हुंह !! साले !! प्यादे कहीं के।
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(२). सुश्री कांता रॉय जी

भरोसा तो है पर...


होटल के कमरे में बुलाया जाना ....! कुछ तो खटका सा लगा था , लेकिन पूर्वाग्रहों के कारण हाथ आये चाँस को मिस करना नहीं चाहती थी ।

" क्या मै सचमुच सौभाग्यशाली हूँ " पता नहीं क्यूं , उनकी बातों पर विश्वास करने का मन हो आया । होटल की सीढ़ियां चढ़ते हुए मन में द्वंद जारी था ।

शहर में अगले हफ्ते से इनकी शुटिंग शुरू हो रही है , भैया भी कह रहे थे।
काॅलेज कैम्पस में उन्होंने कुछ अजब ही स्वर में पूछा था कि, --" आपको हमारी टीम पर भरोसा तो है ना ? "

" जी सर ,पूरा भरोसा है ,लेकिन इतने लोगों में सिर्फ मुझे ही ......"

" आप का चेहरा सुन्दर और फोटोजेनिक है । हम एक नेचुरल चार्म ढूंढते है चेहरे के अंदर और वो आपमें गजब का है । " उनकी आँख चमक गयी थी ।

" जी "

" याद रखियेगा , शाम को कमरा नम्बर २०६ "

तन्द्रा सीधे कमरा नम्बर २०६ के पास जाकर ही टूटी । बडी़ हिम्मत करके उसने दरवाजे पर नाॅक किया ।

दरवाजा उन्होंने ही खोला था । अंदर ठहाकों की आवाज गुँज रही थी व एक अजीब सी गंध आ रही थी ।

" अरे ,नताशा जी , बडी देर कर दी आपने । कई लोग बेताबी से इंतज़ार कर रहे है आपका । "

" सर ,मेरे भाईसाहब भी आप जैसे कलाकारों से मिलने के लिए बडे़ उत्सुक हो मेरे साथ ही आये है , आईये ना भैया ! "

" अरे , बृजमोहन....साहब... आप ...! " आवाज हलक में ही अटक गई ।
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(३). सुश्री रीता गुप्ता जी 

क्वीन

गहराती रात अपने विषैले नुकीले पंजे सुधा के मानस पर हताशा और हार के रूप में जड़े जमाने लगी थी . स्वप्निल भविष्य की उमीदों से झिलमिलाती आँखे और पोर पोर में दौड़ती फुर्ती की घर में बिछ गए बिसात पर आये दिन बुनते षड्यंत्रों से प्रतिस्पर्द्धा चल रही थी . बिन माँ की युवा होती नन्ही सुधा की हैसियत घर में शतरंज के पैदल सिपाही सी थी जिसे सुरक्षा के नाम पर जब चाहे कुर्बान किया जा सकता है .उसकी पढाई और शादी के खर्च को उठाने में भाइयों ने अपनी असमर्थता जाहिर कर ही दिया था .सुधा नामक "बोझ" को उठाने हेतु बिसात की सारे मोहरें बेधड़क अपनी चालें चल रहें थें. बड़ी भाभी पढाई छुडवा घर के काम सीखने( कराने) तो मंझली अपने चालीस पार तलाकशुदा भाई के घर बसाने को तत्पर थी तो वहीँ छोटी भाभी निर्लिप्त भाव अख्तियार कियें थीं. और पापा ,वो तो शतरंज की राजा की ही तरह महवपूर्ण होते हुए भी बेहद बेबस और कमजोर थें .भाइयों की उच्च शिक्षा और शादी में लगभग रिक्त हो चुका पिता ,बेटी को लिए ,चौतरफे हमलें से बचने हेतु कभी सफ़ेद तो कभी काले घर पर बचते- बचाते पसीने पसीने हो रहा था . आज तो छोटी भाभी ने भी मुहं खोल ही दिया,कि वे लोग दो व्यक्तियों का बोझ नहीं उठा सकतें .

अंतहीन रात की सुबह को तरसती सुधा अचानक चौंक गयी जब पापा ने एक दस्तावेज उसके हाथ में देते हुए कहा ,

"सुधा मैंने अपना ये घर तुम्हारे नाम कर दिया है ,अब तुम मालिक हो इस घर की और अपने जीवन की "

अचानक प्यादा ताकतवर हो क्वीन में बदल गया ,इतना कि उसे मंत्री या वजीर न कह "रानी "कहना ज्यादा उचित होगा .
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(४). सुश्री सीमा जी 
शतरंज

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तीन महीने में एक बार खून की जाँच के लिए सरकारी अस्पताल में जाती हूँ।खाना साथ ले जाते है हम।जाँच की रिपोर्ट और दवा ले कर हम पति पत्नी दोपहर तक घर आ जाते है।
8 रू में जाँच और मुफ़्त की दवा थोड़ी परेशानी हो भी जाये तो क्या फर्क पड़ता है?
आज नर्स के सवाल ने मुझे जगा दिया।अम्मा कोई नही है क्या देखने वाला?तुम और बाबा कितने सालों से ऐसे ही परेशान हो रहे हो।
क्या जवाब देती उसे!अपना मकान,चार बेटे,किरायेदार और पति की पैंशन।खुद पैसे बचा लो तो क्या फर्क पड़ता है?
हमसे पैसा लेने का कोई रास्ता नही छोड़ती है मेरी बहूऐं ।कभी किसी को साइकिल तो कभी सोने की बाली।ऊपर से महंगाई का रोना।चलो जब तक कर सकते है, कर देते है ।अपने बच्चों के लिए नही करेंगे तो किसके लिए करेगें?
आज इस नर्स के सवाल से मै सोच रही हूँ।वो सब तो अपनी चालें चल रही है।मै प्रेम के नाम पर मात ही खाती रहूँगी या कभी हम दोनों के लिए भी सोचूंगी।शह और मात के इस खेल में सबको खुद को ही बचना पड़ता है।वो हमारे बारे में सोचते तो आज......
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(५). श्री मदन लाल श्रीमाली जी 

"रिश्वत"

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"आपके मॉल का प्लान दो बार रिजेक्ट कर चुका हूँ फिर भी आप तीसरी बार वही प्लान लेकर आए है और वह भी ऑफिस हवर्स के बाद।"
"सर ..आपके अधीनस्थ सभी अधिकारियो ने प्लान पर सहमति जताई है सिर्फ आप अड़े हुए है।"
"आपके प्रस्तावित मॉल में आग लगने पर सैकड़ो निर्दोष इन्सानो की जाने जा सकती है।आप जा सकते है।"
" शहर के नामी बिल्डर से इस तरह का व्यवहार भारी पड़ेगा आपको।"
"आपका भारी होना भी देख लूंगा, अभी निकलिये वरना मुझे सेक्युरिटी को बुलाना पड़ेगा।"
दस्तखत के लिए लाए हुए प्रस्तावित मॉल के प्लान को गुस्से से उठा कर वो चलता बना।उसके बाहर जाते ही नज़र एक अटैची पर पड़ी।
"अरे ,ये क्यों छोड़ गया यहां ,क्या है इसमें ? "
अटेची खोली तो उसमे ऊपर से नीचे तक पांच -पांच सौ के नोटों की गड्डियां भरी हुई थी।
" ये क्यों रख कर …गया ? " वो काँप उठे।
तभी दरवाजे पर चहलकदमी की आवाज आई और पल भर में ही भ्रष्टाचार निरोधक दस्ता के अधिकारी अपना पहचान-पत्र बताते हुए कह रहे थे..

"रिश्वत लेने के जुर्म में आप गिरफ़्तार किए जाते हैं"
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(६). श्री विजय जोशी जी 

साजिश 

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वंदना , देवर से पुनर्विवाह के मंडप में बैठी थी। मंत्रोत्चार के साथ वंदना के जेहन में पति के साथ अंतरंगता के यादों का सैलाब सा उठने लगा। पहली मुलाकात से उस अनहोनी काली रात तक की सारी तस्वीरें खिचती चली गईं। पहली मुँह दिखाई ,सगाई व विवाह की धूमधाम से घर में मंगल प्रवेश, और प्रवेश उनके जीवन में भी! उनका आलिंगन , बड़ा शुकून देय पल ! बेटी के जन्म की दोनों को खुशियां , साथ गम भी !सब कुछ तो उभर कर आ रहा था।


पहली बार सड़क हादसे में पति का बाल-बाल बचना । उसे अपने भाग्य पर बड़ा गुमान हो चला था। लेकिन उस दिन दोनों भाइयों का एक साथ जाना और लौटना केवल एक का । ट्रक दुर्घटना , इस बड़ी अनहोनी में देवर का बचना परिजन के लिए सौभाग्य ही था , जो भाग्य को कोसते हुए वंदना को भी स्वीकार्य करना । आज उत्तर विवाहोत्तर देवर का पति रूप में स्पर्श!!


" ..वन..... ! वंद ....!वंदन !...! वंदना तु...तुम बहुत सुन्दर हो। मैं तुम्हारी सुन्दरता का तब से कायल हूँ,जब भैय्या तुम्हें देखने गए थे और मैं उनके साथ था। " देवर के शब्द से वंदना स्तब्ध
" क्या s s s s s s ? लागातार दुर्घटनाओं का वह सिलसिला , साजिश को अंजाम देना था ।" शब्द घुट कर दम तोड़ रहे थे ।मन का रिश्ता भी।
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(७). सुश्री अर्चना त्रिपाठी जी 

भागीदारी

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नेता जी को जबरदस्त दिल का दौरा पड़ा।स्वास्थ सुधार के पश्चात-
" धन्यवाद डॉ .,जैसा यह उच्च कोटि मल्टी स्पेशलिटी अस्पताल हैं वैसा ही अपने राज्य में भी बनवाऊंगा। जिसके लिए आपको मैं आमन्त्रित करता हूँ।"

" सर , अब यह असम्भव हैं मेरा अस्पताल यहाँ पूर्णरूपेण प्रस्थापित हो चूका हैं और मैं दो नावों की सवारी कर पैसा नहीं कमाना चाहता बल्कि मानव की सेवा करना चाहता हूँ ।"

" वो तो ठीक हैं ,हम भी तो सेवा के लिए ही कह रहें हैं ।आपको भूमि और समस्त सुविधाएँ आसानी से प्रदान की जाएँगी "

" क्षमा कीजिये नेताजी , याद कीजिये वो दिन जब आपसे अस्पताल के भूमि के लिए सहयोग माँगा था तबआपने मेरे विजातीय होने पर आपत्ति दर्शाते हुए मदद करने के लिए शर्त रखी थी, कि अस्पताल में मेरी भागीदारी इक्यावन प्रतिशत
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(८). सुश्री नीता सैनी जी 

शतरंज--- बदनामी का कलंक

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"दीदी , माँ ने पूछा है जो बात सुनी जा रही है उसमे कितनी सच्चाई है ? "
" मुझे नहीं मालूम की घर के सभी लोग मुझसे नाराज क्यों है ?"
"आपको सच में नही पता क्या ? सुनने में आ रहा है कि आप विनय जी के बच्चे की माँ बनने वाली है । "
"ओह्ह ! इसका मतलब करण जी के बिछाए जाल में चिड़िया नही फंसी तो उन्होंने ऐसा जाल बिछा दिया जिसमे से निकलना मुश्किल है !"
"क्या ! करण जी ने ?"
"तुम तो जानती हो की मैं और विनय जी एक दूसरे से प्यार करते है ! करण जी ने एक दिन मुझसे कहा था कि मैं तेरे और विनय दोनों के घर में अच्छी तरह माना जाता हूँ इधर मैं तेरे जीजा का ममेरा भाई हूँ और उधर विनय मेरी बुआ का बेटा । मैं चाहूँ तो ये रिश्ता करवा सकता हूँ। "
"फिर ......?"
"उन्होंने कहा अगर मैं तेरी और विनय की शादी करा दूँ तो मुझे क्या देगी ? , मैंने सोचा कुछ खाने की चीज को कहते होंगे इसलिए मैंने भी हँसते हुए कह दिया कि जो आप मांगो । "
"फिर क्या माँगा उन्होंने ?"
"विनय से शादी से पहले मेरी एक रात......।"
"क्या कह रही हो आप ?"
"हां मुझे भी इसी तरह झटका लगा था । मैंने चीखते हुए उनसे कहा कि आप होश में हो भी कि नही ? आपकी गोद में खेलकर बड़ी हुई हूँ । उन्होंने कहा कि तो क्या हुआ , जीजा - साली के बीच में ये सब चलता है ।"
"ओह्ह , जिन्हें हमारे घरवाले देवता सामान मानते है उनकी सलाह के बिना एक भी कदम नही उठाते वो ऐसे कैसे बोल सकते है ? यकीन नही कर पा रही थी छवि ।"
" फिर .....?"
"बिन हड्डी की जुबान है किधर भी चल जाती है , खैर मैंने भी उनकी जुबान उस समय तो ये कहकर बंद कर दी कि आप विनय के बड़े भाई हो और विनय से रिश्ता जुड़ते ही आप मेरे ज्येष्ठ हो ।"
"दीदी , नीचे करण जी व उनका साला आया है आपको बुलाया गया है ।"
"ओह्ह , तो वो शतरंज की एक और चाल चल चुके है । उन्होंने मुझे चैलेंज किया था कि या तो उनकी बात मान जाऊं वर्ना वो मेरी शादी अपने लँगड़े साले से करवा देगें सिर्फ नाम के लिए , काम वो अपना सिद्ध करेगे ।"
"यकीन नही कर पा रही हूँ दीदी करण जी इतना नीचे गिर सकते है । "
"तभी तो कह रही हूँ कि उनकी करतूत का अंदाज किसी को नही । अब बस तू मेरा एक काम कर दे , विनय जी के पास किसी भी तरह ये खबर भेज दे या तो आज या फिर कभी नही । "
"तो जीजी, क्या अब आप अपनी बाज़ी ....?"
"अरे छोटी ! घिर तो चारों तरफ से गई हूँ लेकिन फिर भी अपने और अपने परिवार पर यूँ 'बदनामी का कलंक' थोड़े ही लगाने दूंगी किसी को भी ।"
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(९). सुश्री रश्मि तरीका जी 
भलाई

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"रीमा ..तुम इस बार जब मायके गई तब मेरी माँ से मिली और उनसे तुमने मेरी ही शिकायत कर दी कि मैं अपने बच्चों का ख्याल नहीं रखती ।उन्हें कुछ भी मन का खाने से रोकती टोकती हूँ ?"
"हाँ जेठानी जी ..मुझसे तो देखा नहीं जाता कि बाकी सब बच्चे चाट पकौड़ी, चाइनीज़ खाएँ और आपके बच्चे मन मसोसते रह जाएँ।कम से कम उनके खाने पीने का ख्याल तो आपको रखना ही चाहिए।"
" रीमा ,जानती हो न बच्चों को टॉन्सिल की समस्या है ? नहीं दे सकती यह चाइनीज़ खाना उन्हें।"
"भाभी लगता है आप बुरा मान गई।भलाई ही चाही मैंने तो । क्यूँ, आपकी अम्मा जी ने आपसे कुछ कहा क्या ?"अपनी शिकायत की कारगुज़ारी का नतीजा जानने को उत्सुक हो उठी रीमा ।
"न, न रीमा ! अपनों का क्या बुरा मानना । पर मेरी माँ ने बताया कि तुम्हारी अम्मा तुम्हारे लिए बहुत दुखी हैं ।क्या देवर जी ने तुम्हें जिम्मेवारियों से भागने और बच्चों की उचित देखभाल न कर पाने के लिए तलाक की धमकी दी है ?"
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(१०). श्री मिथिलेश वामनकर जी 

बिसात

"अरे पांडेजी कैसे गलत नहीं किया है अनिल ने? हेड क्वार्टर में किसी को ऐसी फ़ाईलों की समझ नहीं है। आप साहब को छोड़िये। बस उसके नाम का शो कॉज नोटिस जारी कराइये।" इतना कहकर मिस्टर अधिकारी ने रिसीवर रख दिया और फिर से फ़ाईल पलटने लगे।

"मैं अंदर आ सकता हूँ सर?"

"अरे आओ अनिल। बैठो बैठो.... अभी मैं हेड क्वार्टर में तुम्हारी ही बात कर रहा था। वैसे तो मैं किसी की सिफारिश नहीं करता लेकिन मैंने पांडेजी से कहा कि अनिल अपना ही आदमी है, साहब से बात करें।"

"आपका बहुत बहुत आभार सर। आप भी जानते है कि मेरी कोई गलती नहीं है।"

"बात तो सही है अनिल, लेकिन क्या करें ये सब नौकरी का हिस्सा है"

"साहब बहुत नाराज है क्या सर?"

"बहुत ज्यादा। पांडेजी तो बता रहे थे तत्काल नोटिस जारी करने का आदेश दिया है।"

"लेकिन सर....."

"तुम कोई चिंता मत करो अगर नोटिस आता है तो जवाब मैं बनवा दूंगा और अपनी सकारात्मक टीप भी दे दूंगा. बस तुम इंतज़ाम कर लो"

"जी कितना सर?"

"कम से कम पचास हजार तो करना पड़ेगा।"

"जी सर"

“अच्छा अनिल अब तुम इस फाईल को अच्छे से देख लो तब तक मैं घर से लंच लेकर आता हूँ।”

“जी सर”

मिस्टर अधिकारी की गाड़ी निकल जाने की आवाज से आश्वस्त होकर अनिल ने एक फोन लगाया- “नमस्कार पांडेजी, हाँ बात हो गई है। आप नोटिस ई मेल कीजिये। जवाब और टीप कल तक भिजवा दूंगा फिर मामला आपको ही दबाना है। बिलकुल बिलकुल.... पचास का कहा है। आप उसमें से आधे तो मांग ही लेना.... हाँ भई हाँ याद है, मैंने दो का वादा किया है। पच्चीस आप उनसे मांग लेना बाकी का एक पिचहत्तर आपको भिजवा दूंगा। साहब को मेरा प्रणाम कहियेगा। नमस्कार।”

शतरंज की बिसात पर राजा, वजीर और मंत्री देख ही नहीं पाए कि उन्हें पार कर घोड़ा ढाई घर चल चुका था ।

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(११). सुश्री उपमा शर्मा जी 
शतरंज

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उस दिन गांव की चौपाल में वुजुर्ग दीनानाथ को छोड़कर शेष सभी लोग बेहद खुश थे।मतदान खतम होने के बाद हार-जीत का कयास लगा रहे थे।
"काका,तुम क्यों चुप हो ?कौन दल जीतकर राज्य में सरकार बनायेगा।हार का कड़वा स्वाद किसे चखना पड़ेगा ?"एक युवक ने पूछा।
"बेटा,राजनीतिक शतरंज के इस खेल में कच्ची गोटी कोई भी दल नहीं चला है।पानी की तरह जनता का पैसा बहाया गया।जाति-धर्म के नाम पर विष वमन किया गया।एक कंबल,साड़ी,चंद सिक्कों और शराब में लोग बिक गये।मेरा अनुभव तो यही कहता है बेटा जीते चाहे जो भी दल लेकिन शह और मात के इस खेल में हारेगी जनता ही।"यह कहकर दीनानाथ खामोश हो गये।
उस खामोशी को बरगद पर बैठे उल्लू ने तोड़ा।वह जनता की बेवकूफी का जमकर मजाक उड़ा रहा था।
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(१२). सुश्री नीता कसार जी 

"बाज़ी बिसात की"

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"नहीं मुकुंदी बाबू ३२ गुण ही मिल रहे है,लाल पूजा आ रही है,'जो सही नहीहै,"
"आप पंडित जी ज़रा फिर से जाँचिये कुंडली।"
धीरे से मुकुंदी बाबू ने करारे,करारे लाल नोट की गड्डी आगे खिसका दी, गड्डी देखकर पंडित जी निहाल हुये जा रहे थे ।
"छोटी सी पूजा संपन्न करवा लें यजमान तो सब अच्छा हो सकता है,"
"यही तो हम कह रहे है पंडित जी जो हम कह रहें है वही सही है।
पूजा छोटी हो या बड़ी हम रूपये ख़र्च करने तैयार है,बड़ी मुश्किल से अच्छा लड़का,रिश्ता हाथ आया है हाथ से नहीं जाने दे सकते।" मुकुन्दी बाबू ने कहा।
तभी तिवारी जी सपत्निक प्रकट हो गये ।बैठते साथ ही बोल पड़े

"ये पंडित जी आपके ही नहीं हमारे भी पंडित जी है। हम रिश्ता करने तैयार नहीं है। बच्चों की ज़िंदगी अनमोल है, शतरजीं चाल नही, क्षमा कीजियेगा,सौभाग्य से समझौता हमें मंज़ूर नही ।
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(१३). श्री ओमप्रकाश क्षत्रिय जी 

लघुकथा – बिसात

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“ आप कंटिया बालाजी के आजीवन सदस्य है ,” एक ने कहा.

“ आप , मोडिया महादेव में सक्रियता से भाग लेते हैं ”, दूसरे ने तारीफ कीं.

“ जी. ”

“ कोई भी धार्मिक कार्यक्रम हो, आप बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते हैं ” ,” तीसरे ने कहा तो चौथा बोला:

“आप की बहुत तारीफ सुनी है.”

पाचवां कब पीछे रहता,

“ हर धार्मिक कार्य को तनमनधन से पूरा करते हो. इसीलिए मैं ने महेश से शर्त लगा दी थी कि आप हमारे रामारसोड़े (धार्मिक स्थल पर पैदल जाने वाले यात्रियों को मुफ्त खाना खिलाने वाले पंडाल ) में भी 1000 रूपए दान में दोंगो. आखिर आप जैसा धार्मिक व्यक्ति हमारे यहाँ कोई दूसरा नहीं है.”

“ जी नहीं. आप शर्त हार गए. क्यों कि आप ने गलत इरादे से शतरंज की गलत चाल चल दी. समझो, आप को शाह और मात एकसाथ मिल गई,”कहते हुए वे चुपचाप चल दिए और उन तथाकथित धार्मिक व्यक्तियों की समस्त चालें नाकामयाब हो गई.
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(१४). श्री पंकज जोशी जी 

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" ताऊ ! इस शतरंज के खेल में इक बात मुझे आज तक समझ में ना आई ?
"क्या हुआ भतीजे तुझे मेरी चालों से डर लगने लगा क्या ? " ताऊ ने खटिया पर बैठे बैठे अपनी घनी मूछों को ताव दिया ।
" नही ऐसी कोई बात नहीं है बस यूँही एक विचार आया कि घोडा ढाई घर चले हैं,ऊंट तिरछा , हाथी सीधा , वजीर चारों ओर तो यह बादशाह अपनी जगह एक खाने से दूसरे खाने क्यों नाचे है?"
" अरे पगला गया है क्या खेल के भी कुछ नियम होते हैं । फिर राजा तो राजा होवे है उसका काम तो सबकी पीठ पीछे युद्ध का संचालन करना है । नेतृत्व बोलें हैं बड़े बुजुर्ग इसको"
" पर ताऊ हमने तो सुना है कि बादशाह लोग तो अपने को युध्द में आगे कर युद्ध में बढ़चढ़ कर हिस्सा लेते थे?"
"वह बीते दिनों की बातें थी बेटा आजकल तो सिर्फ दूर से ही फैसले उल्टा पुल्टा करता है।"
"तो क्या ताऊ तू भी कहीं अपने को बादशाह तो ना समझ बैठा है।"
" कैसी बात कर रहा है तू छोरा ? "
"सच्ची बात कर रहा हूँ क्या तू अपना पाप मेरे गले में ना बाँधना चाहे है। शहर में रहता हूँ तो क्या ? गाँव की हवा मेरे को भी छूती है। ले बचा अपना राजा यह शह और यह मात।"
पसीने से तरबतर ताऊ अंगोछे से अपना मुँह छुपाये बैठा था ।
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(१५). श्री चंद्रेश कुमार छतलानी जी 

"मौकापरस्त मोहरे"

वह तो रोज़ की तरह ही नींद से जागा था, लेकिन देखा कि उसके द्वारा रात में बिछाये गए शतरंज के सारे मोहरे सवेरे उजाला होते ही अपने आप चल रहे हैं, उन सभी की चाल भी बदल गयी थी, घोड़ा तिरछा चल रहा था, हाथी और ऊंट आपस में स्थान बदल रहे थे, वज़ीर रेंग रहा था, बादशाह ने प्यादे का मुखौटा लगा लिया था और प्यादे अलग अलग वर्गों में बिखर रहे थे|

वह चिल्लाया, "तुम सब मेरे मोहरे हो, ये बिसात मैनें बिछाई है, तुम मेरे अनुसार ही चलोगे|" लेकिन सारे के सारे मोहरों ने उसकी आवाज़ को अनसुना कर दिया, उसने शतरंज को समेटने के लिये हाथ बढाया तो छू भी नहीं पाया|

वो हैरान था, इतने में शतरंज हवा में उड़ने लगा और उसके सिर के ऊपर चला गया, उसने ऊपर देखा तो शतरंज के पीछे की तरफ लिखा था - 'चुनाव के परिणाम'|

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(१६). श्री सतविंदर कुमार जी 
'मोहरे'

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"आप ने रमेश सिंह को आंदोलन की शुरुआत में ही अपने साथ मिलाया था।और फिर पार्टी के कामों में भी बड़ी जिम्मेवारियां दी उन्हें।"
"देखो!किसी भी उद्देश्य को पाने के लिए योजनाबद्ध तरीके से काम करना पड़ता है।"
"मैं ...कुछ ..समझा नहीं?"
"आंदोलन के लिए पैसा,भीड़..और जाने कितने काम?"
"हूँ.....हाँ हाँ ये बात तो सही है नेता जी।"
"पर अब..सत्ता प्राप्ति के बाद रमेश सिंह के साथ-साथ कई दूसरे साथियों की भी पार्टी से छुट्टी...."
"जनहित आंदोलन का सहारा लेकर राजनिति में आगे बढ़ना।अब इस बिसात पर बहुत से अच्छे लोग,धनाढ्य लोग,समाजसेवी ,मीडिया आदि आदि तो मोहरे बनते ही हैं।चालें भी ऐसी चलनी पड़ती हैं कि तुम खुद ही प्रचार पाने में सबसे आगे रहो।"
"लेकिन ऐसे लोगों का अटूट समर्पण एवम् सहयोग...उसका ...क्या?और उन्हें फिर दूध से मक्खी की तरह निकाल फेंकना?"
"हा हा हाहा अरे!ये सब मोहरे थे शतरंज के इस खेल के।उनका काम हो चुका।"
"चलो ये ही सही नेता जी।परररर....क्या आगे आपको मोहरों ...की ..ज़रूरत नहीं... पड़ेगी?"
"हाहाहा अरे!इस खेल में मोहरे बदलते रहते हैं।"
पहला व्यक्ति नेता जी के इस उत्तर पर मौन था मन में किसी संदेहपूर्ण प्रश्न के साथ शायद ये-"मैं क्या....?"
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(१७). सुश्री रजनी गोसाईं जी 

शतरंज 

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कोठी के मेन गेट पर कदम पड़ते ही मेरी आँखे फटी की फटी रह गयी! पूरी कोठी बिजली के रंगीन टट्टओं(बल्बो), महंगी सजावट से जगमगा रही थी! रिश्वत की काली कमाई रात के अँधेरे में सफ़ेद रंग में चमक रही थी! में अपने कपडे ठीक करता हुआ इंजीनियर साहब की तरफ जन्मदिन की मुबारकबाद देने के लिए बढ़ गया!

"आओ आओ रवि बाबू" मुझे देखते ही इंजीनियर साहब बोले! औपचारिकता निभाने के बाद में बोल ही पड़ा "सर बड़ी चकाचौंध हैं, तनख्वाह में तो इतनी भव्यता नहीं हो सकती लगता हैं ऊपर की बहुत ........"

"सही कहा तुमने रवि बाबू अब आती लक्ष्मी को तो ठुकरा नहीं सकते, मिलती हैं तो ले लेते हैं! ये सारी चकाचौंध रिश्वत की कमाई की ही हैं! " मेरी बात बीच में ही काटते हुए बेशर्मी से वह बोले!

"पर सर, आपको डर नहीं लगता पकडे गए तो?"

“ओह रवि बाबू लगता हैं आपने शतरंज का खेल नहीं खेला! छोटे प्यादे ही पहले फंसते, मरते हैं! राजा तक पहुंचना मुश्किल होता हैं बस यही तिकड़म यहाँ अपनाई जाती हैं! हम नजर में आ ही नहीं पाते! अभी विभाग में नए आये हो, सब समझ जाओगे!" कुटिलता से मुस्कुराते हुए इंजीनियर साहब बोले!

मैंने उनकी हाँ में हाँ मिलाई! अपनी कमीज का बटन ठीक करता हुआ में मन ही मन बुदबुदा उठा "इंजीनियर साहब इस बटन में लगे खुफिआ कैमरे में आप की सारी बात रिकॉर्ड हो गयी हैं! असल में शतरंज का खेल आपने ठीक से नहीं खेला! कभी कभी एक मामूली प्यादा भी राजा को मात दे देता हैं, कल आपको पता चल जाएगा!

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(१८). सुश्री जानकी वाही जी 

मात

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" दद्दन जी ! देख रहें हैं ना सामने कई एकड़ में फैला फलों का बगीचा ।
" हाँ"
" तो बिछाइये अपनी बिसात, वही हैं आपके निशाने ।"
दूरबीन से उस बूढ़े दम्पत्ति का निरीक्षण करते हुये दद्दन बोला -"ऐसी क्या खास बात हैं इनमें ?"
" बूढ़ा' कुंडली मार के बैठा है इस सोने सी ज़मीन पर " सरपंच की आवाज़ में साँप सी फ़ुफ़कार थी।
"देख सरपंच ! सटीक कारण बताओ। ये काम कोई बच्चों का खेल नहीं है।"
तभी चुम्मन बोल पड़ा -"ये दोनों सरपंच जी के दूर के रिश्तेदार हैं।बाल-बच्चे हैं नहीं।इस बार सरपंच जी 10 लाख में फलों का ठेका दिए हैं,पर वो सनकी तैयार ही नहीं है।कहता है स्कूल बनाने के लिए ज़मीन दान कर जायेगा और फल बच्चे खायेंगें।"
" चुम्मन ! अपना मुँह बन्द कर।जितना कहूँ उतना ही बोला कर।"सरपंच ने आँख दिखाते हुए कहा।
"दद्दन जी ! ऐसा काम करो कि सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे।"
" छुरी ! ज़रा देख के बता बूढ़ा राजा-रानी क्या कर रहें हैं।"
"दद्दन जी मिट्टी सने हाथों से एक दूसरे को रोटी खिला रहें हैं।"
"अच्छा ...और हमारे हाथों में क्या लगा है?"
"खून "..छुरी कुछ समझते हुए बोला।
"आज़ अपनी जिंदगी तुच्छ लग रही है रे ..छुरी !" हमारी जिंदगी तो पाप करते हुए ही बीती है अभी तक।" दद्दन की आवाज़ में श्मशान वैराग्य था।
"दद्दन जी हमें लगता है चार लाख कम लग रहें हैं आपको , आठ लाख कर देतें हैं।"
"देख सरपंच! अब हमको गुस्सा मत दिला , नहीं तो अभी ठोंक देंगें ।"
" अब मुँह फाड़े क्या देख रहा है। ये जीवन भी शह और मात का खेल है।आज़ से हम बूढ़े राजा का वज़ीर और तुम प्यादा हो।सोच कर ज़वाब दो प्यादे का क्या काम होता है।"
" राजा के लिए अपनी ज़ान देना" मरी आवाज़ में सरपंच बोला।
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(१९). सुश्री प्रतिभा पाण्डेय जी 

' समीकरण '

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बड़े से पांडाल की गहमागहमी में वो असहज महसूस कर रही थी Iनेतानुमा लोग बड़ी तादाद में थे I

"अनीता मैडम ?"

"जी ,जी हाँ "I

"मैं शर्मा ,इस समारोह का आयोजक Iबैठिये आप "I

"ये मेरा पहला ही संकलन है और आपने मुझे सम्मान के लिए भी बुला लिया Iधन्यवाद आपकी संस्था का I"झिझक ,उत्साह ,ख़ुशी तीनों का मिश्रण था उसकी आवाज़ में I

"आप बेशक नई हैं इस लिखने के फील्ड में ,पर हमारी संस्था तो पिछले सात सालों से आयोजन करवा रही है पुरस्कारों और सम्मानों काI"

"पर मुझे थोडा आश्चर्य भी हुआ जब आपका निमंत्रण मिला "I

""आश्चर्य की क्या बात है ?आप महिला हैं ,आरक्षित वर्ग से आती हैं I वो सामने एक प्रोढ़ महिला दिख रही हैं आपको ?"

"जी "

"वो सकीना जी हैं Iउन्हें भी सम्मान दिला रहे हैं I इसी सत्र से उनकी कुछ कहानी वगेहरा भी डलवाने की कोशिश कर रहे हैं स्कूली किताबों में Iसर जी सब बैलेंस बना के चलते हैं I"

"सर जी कौन ?"

"हमारी पार्टी के जिलाध्यक्ष और इस साहित्यिक संस्था के संरक्षक "I

"अब आपकी बात समझ आ रही है "लेखनी के सम्मान की ख़ुशी कहीं अन्दर धीरे धीरे पिघल रही थी I

"आपको सम्मान मिलेगा तो आपके लोगों में भी हमारे लिए विशवास पैदा होगा ,है कि नहीं ?अब शर्मा जी खुलकर बोल रहे थे I

"जी बिल्कुल सही समीकरण है Iशर्मा जी , मेरे इस संकलन में एक कहानी है ' मोहरे 'आप पढना ज़रूर" I

"अरे कहानी वहानी पढने की फुर्सत कहाँ , पर आप खड़ी क्यों हो गईं ?तीसरे नंबर पर है आपका सम्मान "I

"मैंने अपनी इस कहानी के सारे पात्रों को यहाँ अपने आस पास जीता जागता चलता फिरता देख लिया है I इससे बडा और क्या सम्मान होगा मेरे लिए ?आप जारी रखें अपना खेल ,मैं चलती हूं"I
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(२०). श्री राजेन्द्र गौड़ जी 

शतरंज

" अबे ढक्कन , कहा रहता है , चार दिन से शक्ल नही दिखी । "

" चाचा, वो मै शाम को सत्संग में जाता हूँ । "

" अरे , मेरे पास कौन तुझे गलत बात सीखने को मिलती है ? "

" चाचा , आपको तो बस दो बाजी शतरंज खेलने का ही भुत सवार रहता है, यहाँ क्या सीखने को मिलेगा ? "

" तुझे सब ढक्कन सही कहते है , सत्संग में जीवन के मर्म ही तो बताते है । वो ही शतरंज भी सिखाती है ।"

" चाचा ,आप भी ना ! "

" अरे , तु रोज़ नही देखता कैसे खेल के बाद सारे राजा -रानी व सभी मोहरे एक ही डिब्बे में साथ - साथ रहते है , जैसे जीवन में मौत के लिये सब एक समान ! "

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(२१). सुश्री बबिता चौबे शक्ति जी 

शतरंज

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" अरे ,अरे , ये क्या किया , तुमने जी ? "
"क्या -क्या किया , यही तो वो समय है , जिसके लिए इस मोहरे को मैदान में उतरने के लिए मैने इसे तैयार किया है । मेरे प्रमोशन का सवाल है यार ! "
" ओह , तो तुम अपने प्रमोशन के लिए उस 40 वर्षीय बिधुर के साथ 18 वर्ष की अपनी बहन से शादी कराओगे ? "
" हाँ , अब उसकी शर्त भी तो यही है । "
" उफ़ ! पर इतना अंतर कल को कुछ .....! "
" हाँ , हाँ , सब जानता हूँ पर मोहब्बत और जंग में सब जायज है । "
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(२२). श्री सुनील वर्मा जी 

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नेतृत्व

बिछी हुई बिसात पे एक दूसरे पर जीत हासिल करने के लिए बाजी शुरू हुई...

सफेद सेनानायक अपनी सेना पर गुर्राया "तुम सफेद मोहरें हो,सफेद यानि कि सर्वश्रेष्ठ..याद रखो तुम्हारा लक्ष्य अपने राजा की हिफाजत करना है उसके लिए चाहे तुम्हे अपनी जान ही क्यूं ना देनी पडे."

उधर काले सेनानायक ने भी हुँकार भरी "साथियों हमें ये लडाई मिलकर लडनी है,हमारा लक्ष्य दुश्मन पर विजय हासिल करना है,और हम साथ मिलकर ये जीत हासिल कर के रहेंगें"

दोनों तरफ से सिपाही धीरे धीरे आगे बढने लगे..काली सेना के जहाँ हर एक सदस्य ने मोर्चा सभाँल रखा था वहीं सफेद सेना के बडे मोहरे अपने आरामगाह से हिल भी नही रहे थे.

"चैक मेट" की गूँज के साथ आगे बडते हुए काले मोहरों ने शीघ्र ही विरोधी सेना को पूरी तरह अपने वश में कर लिया..अति आत्मविश्वासी सफेद मोहरे एक एक करके पास रखे खाली डिब्बे में समाने लगे.

अपने आपसी तालमेल और मजबूत नेतृत्व से जल्द ही काले खिलाडी खेल जीत चुके थे.
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(२३). सुश्री कल्पना भट्ट जी 

मोहरा |

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बाईस नंबर का वार्ड महिलाओं के लिए आरक्षित था , पार्टी अध्यक्ष ने श्रीमती लक्ष्मी देवी का चयन किया |
पार्टी ने इस का समर्थन किया और उनको नगर पालिका के चुनाव के लिए उम्मीदवार घोषित किया |
नतीजा आया , सभी ने श्रीमती लक्ष्मी देवी की जीत का जश्न मनाया |
श्रीमती लक्ष्मी देवी, पद सँभालने पर एक कर्मठ पार्षद की तरह अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के लिए वचनबद्ध हुई |
अभी उनके कार्य काल को तीन माह हुए थे, कि उन्होंने त्याग पत्र दे दिया!
पार्टी और परिवार के सदस्य उनके इस कदम से हैरत में थे!
सभी उनसे इसकी वज़ह जानने को उत्सुक थे!
शाम होते होते लक्ष्मी देवी जी ने प्रेस को बुला कर अपना बयान दे दिया!
" मुझे स्वतंत्रता पूर्वक कार्य नहीं करने दिया जा रहा,मैं घुटन और दबाव में कार्य कर रही हूं,मैं रबर स्टांप बना दी गयी हूं,
मुझे शतरंज की मोहरे बनकर जीना स्वीकार नहीं |"
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(२४). सुश्री राहिला जी 

गोटी

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"इस बार भी लक्ष्य से ज्यादा बीमा पॉलिसी बेचकर सुरेश ने तो कमाल कर दिया "
"पता नहीं कौन सी गोटियां फिट करता है । कहाँ -कहाँ से ग्राहक पकड़ता है । और हर बार बाज़ी मार ले जाता हैं।"
"और तो और दनादन क्लेम भी हो रहे है ।हैरत है !!यहाँ तो थूक सूख जाता है ,जूते घिस जाते है, तब कहीं बामुश्किल एक-दो ग्राहकों को मना पाते है । "
सुरेश पिछले कई महीनों से अपने बेहतरीन प्रदर्शन के बूते पर अपने सहकर्मियों के बीच चर्चा विषय बन चुका था।
"ये सुरेश शर्मा यहीं काम करते है?"
"जी.."
"अभी कहाँ मिलेगें?"
"जी.. वो सामने वाला कक्ष उन्हीं का है । "
"धन्यवाद "
"सुरेश शर्मा!क्रांइम ब्रांच मुंम्बई..! आपको अपने ग्राहकों की सुपारी देने और उनका नॉमिनी बन बीमा का पैसा हड़पने के जुर्म में गिरफ्तार किया जाता है ।"
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(२५). सुश्री नयना(आरती)कानिटकर जी 

"प्यादी चाल"

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चलो सरिता जल्दी तैयार हो जाओ और हा सुनो!!! वो हरे-गुलाबी काम्बिनेशन की साड़ी है ना वो पहनना.आज बास का जन्मदिन है.

" अरे सुधीर !! वो साडी तो तुम्हें पसंद नही है ना ?? याद है जब पिछली बार मैने पहनी तब तुम नाराज़ हुए फिर आज--।"

" हा!हा! तो क्या हुआ पर अखिलेश जी को तो तुम इस साड़ी में---और हा सुनो चलते-चलते एक सुन्दर सा तोहफ़ा भी ले चलेंगे। ऑफ़िस मे जल्द ही पदोन्नती की सूची जारी होना है।

जन्मदिन की पार्टी पूरे शवाब पर थी जाम-से जाम टकराए जा रहे --
अरे!! आइए-आइए सुधीर और हमारी खु्बसुरत सखी सी सरिता कहाँ रह गई।"
"अरे !! तुम पिछे क्यो खड़ी हो !!!आओ मुबारकबाद दो हमे---अपने दोनो हाथ आगे बढा आलिंगन--
"बहुत शुभकामनाएँ सर!! वही से हाथ जोड़ते हुए सरिता ने कहाँ"---अखिलेश कसमसा कर रह गए.
"सुधीर ने सरिता के कान मे फुसफुसा कर कहा ! क्या होता जो अखिलेश जी का मान रख लेती समझ रही हो ना ,मैने बताया तो था कि---"

"अखिलेश जी एक तोहफ़ा हमारी तरफ से--" अनमनी सी सरिता आगे बढते हुए बोली

"अरे!! इसकी क्या जरुरत थी" --सरिता से हाथ मिलाते हुए उन्होने हाथ कस कर दबा लिया."

सरिता हाथ छुडाते हुए चिख पडी!!! अखिलेश जी!!! , सुधीर!!!

’सुधिर !!!!क्या तुम अपनी तरक्की के लिये प्यादे की तरह मेरा इस्तेमाल करना चाहते हो जो चुपचाप एक-एक घर आगे बढ़ता है."
शायद तुम नही जानते अगर मैं प्यादी चाल चल दू तो राजा को भी मार सकती हूँ.
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(२६). श्री तेजवीर सिंह जी 

देहाती शतरंज़ 

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हरिजन हरी राम के खेत में गॉव के दबंग सरपंच और धर्म कर्म के प्रकांड पंडित ज़टा शंकर गौतम जी की चार गायें घुस गयीं!उसका मन तो किया कि लेके लाठी, दे दना दन, भगा दे गायों को!मगर उसने सोचा कि अगर किसी ने देख लिया और सर पंच को बता दिया तो उसे कितने लाठी पडेंगी, भगवान ही जाने!यही सोच कर वह डर गया!

मगर गायें उसकी फ़सल खाये जा रहीं थी !उसकी आत्मा दुख पा रही थी!करे तो क्या करे!दिमाग काम नहीं कर रहा था!

फ़िर अचानक वह सरपंच की हवेली की ओर दौड पडा!"माई बाप, गज़ब हो गया"!

सरपंच गुर्राया,"क्या हो गया रे हरिया"!

"मालिक ,आपकी गायें मेरे खेत में घुस गयीं"!

"अबे तो क्या आफ़त आगयी, दो चार पौधे ही तो खा जायेंगी, तुझे पुण्य मिलेगा "!

"माई बाप ,बात, दो चार पौधों की नहीं है, मेरा तो पूरा खेत ही आपका है"!

"तो फ़िर और क्या मुसीबत है"!

"मालिक बात थोडी गंभीर और धर्म कर्म से जुडी है "!

"साफ़ साफ़ बोलना, क्या कहना चाहता है "!

"हज़ूर, आपकी गायें एक अछूत हरिजन के खेत का चारा खायेंगी!फ़िर वे जो दूध देंगी, वह आपका परिवार पीयेगा! आप तो महर्षि गौतम के वंशज हो, साथ ही गॉव के सरपंच भी हो!मेरे विचार से आपका धर्म खराब हो सकता है! और अपने गॉव में ऐसी बातें बडी तेज़ी से फ़ैलती हैं !बाकी तो आप खुद भी समझदार हो"!

सरपंच ने हरिराम को लाठी देते हुए कहा,"अबे जल्दी जा और कोई देखे उससे पहले गायों को हांक कर ले आ "!
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(२७). श्री सुशील सरना जी 

(लघु कथा )

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बेटे की शादी अच्छी तरह सम्पन्न हो जाने के कारण देवनारायण आज बहुत खुश था। बाहर से आये मेहमान लगभग विदा हो चुके थे। वो आज हलवाई,टेंट,लाईट आदि सब का हिसाब कर रहा था। इतने में जानकी की आवाज़ आई ''अजी सुनते हों। ''
''हाँ हाँ सुन रहा हूँ। बोलो क्या कहना है ?''देवनारायण पत्नी के पास आकर बोला।
''मेहमान तो सभी चले गए हैं न जी।''
''हाँ ,भैय्या भाभी को तो कल रवाना कर दिया था। बस बाऊ जी और अम्मा हैं। क्या कहती हो ,उनको दो चार दिन और रख लेते हैं। ''
'' देखो जी ! मैं तो अब बहुत थक गयी हूँ। घर को भी सम्भालना है। कुछ बहाना करके उनको घर छोड़ आओ। ''जानकी ने फुसफुसाते हुए कहा।
''ठीक है। कल सुबह देखता हूँ। '' देवनारायण ने कहा।
भोर होते ही देवनारायण जैसे ही आँगन में आया वहां पहले से ही बाऊ जी और अम्मा अपनी अटैची के साथ कुर्सी पर चाय पी रहे थे।
''आओ देव ,तुम भी चाय पी लो। फिर हमें ऑटो मंगा दो। अब हम घर जाएंगे। '' बाबू जी अपनी ऐनक को ठीक करते हुए कांपती सी आवाज़ में कहा।
'' बाऊ जी, कुछ दिन और रुक जाते। ''देवनारायण ने अनमने मन से कहा।
''नहीं रे देव , देख जानकी बहु थक गयी है ,अच्छा होगा अब हम भी बाकी मेहमानों की तरह अपने घर जाएँ। तुम्हारे बुलाने से हम यहां आ गए , तुम्हारी शादी के शोभा बढ़ गयी , शादी संपन्न हो गयी , रिश्तों की बिसात पर मोहरों का काम खत्म हो गया। अब तुम अपनी बिसात सम्भालो , मोहरों को जाने दो। ''
जानकी और देव की कल रात हुई वार्ता को नम आँखों में समेटे बाऊजी अम्मा के साथ अपनी अटैची उठाकर बाहर के दरवाजे के तरफ चल दिये।
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(२८). 

शतरंज की बाज़ी

पार्क का माहौल कुछ दिनों से कुछ बदला बदला सा लग रहा था, पहले लोग एक साथ बैठ कई तरह की घर, बाहर व् राजनीती की बातें करते, इसी के बीच कभी कभी कहकहा भी लग जाते| मगर जिस दिन से सुरिंदर इंग्लैंड से यहाँ आया था, हर तरफ एक अजीब सी तब्दीली नज़र आने लगी थी, इस का एक बड़ा कारण अब लोगों का सुरिंदर की तरफ़ बदला हुआ नज़रिए था |
पहले जब वह यहाँ आता था तो लोग उस की बातें बड़े ध्यान से सुनते और लोगों का का ताँता उस के घर में लगा रहता था |
मगर इस बार उसको खुद भी लग रहा था, जैसे लोगों में उस कि लिए वो स्नेह प्यार नहीं रहा जो कभी पहले हुआ करता था |
उसे लोगों को नए चुने प्रधान की तरफ झुकाव ज्यादा नज़र आया | ज्यादातर लोगों का विचार था के एक तो नए प्रधान का बात चीत का सलीका बहुत अच्छा है और दूसरा वह सांझें कामों में दिलचस्पी भी खूब लेता है | इस के साथ साथ एक और बात जो अब के दौर में अति जरूरी है, वो था उसका लोकल लीडर के साथ उठना बैठना, जिस कारण बहुत सारे सांझे काम निकलने आसान हो जाते हैं |
जब उसे ये यकीन हो गया कि लोग उस की अब ज्यादा परवाह नहीं करते तो उसने अपने पुराने हथकंडे अपनाने शुरू कर दिए | उसने ऐसी बातें करनी शुरू कर दी जो सुन लोग आगे से उसको मिलने से कतराने लगे ,क्यूंकि वह जब भी किसी से मिलता एवनीयुं में हुए कामों में गलतियाँ निकाल कर उस पे नुक्ताचीनी शुरू कर देता |
यहाँ से जाने से पहले वह भी कुछ वर्षों तक इस एवनियुं का प्रधान रहा, मगर उसका मुख्य काम लोगों के लिए समस्या पैदा करना व् बाद उन समस्याओं को सुलझाने के लिए विचोल्गी करना रहा था, जिस के लिए उस ने कुछ प्यादे रखे हुए थे, जो उस के बारे में लोगों में साथ ही प्रचार भी करते रहते थे, जिस से लोगों को अपनी तरफ किया जा सके |
यहीं काम उस ने उस दिन भी करने की कोशिश की जब दो हमसाये लोगों में किसी कारण अनबन हो गई | पार्क में आपसी समझोते के लिए बातचीत चल रही थी|
तब सुरिंदर ने अपने एक साथी से कहा "समजौते ऐसे कहाँ होते हैं, प्रधान को तो एक तरफ़ा फैसला कर देना चाहिए, प्रधान का काम ये तो नहीं कि वो लोगों की बात के आगे झुक जाए, उसे तो फैसला सुना देना चाहिए एक धिर ने तो नाराज़ होना होता है |" ये सुन कर वहां बैठे लोगों में से एक ने कहा "ऐसा थोड़ा होता है, दूसरे लोगों की बात भी सुननी चाहिए और उसे भी किये गए फैसले से संतुष्ट होना चाहिए | ये बात सुन कुछ और लोग भी उस से किनारा करने लगे,प्रधान ने भी इस समय दौरान चुप धार ली, उस की चुप ने धीरे धीरे सुरिंदर के सभी प्यादे हरा दिए | और आखर मैं वो खुद भी चारे खाने चित्त हुआ महसूस करने लगा | अगले दिन वह पार्क के एक कोने में अकेला बैठा खुद को इंग्लैंड में किसी पार्क में बैठा, जैसा महसूस कर रहा था, और उसे लगा कि जैसे वह अपनों के साथ खेली शतरंज की बाज़ी हार चूका हो |

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(२९). डॉ विजय शकर जी 
पैदल की ताकत 

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दरवाजा खुला था मैं सीधे अंदर घुस गया , मेरे मित्र के पिता जी शतरंज में इतने खोये हुए थे कि उन्होंने मेरे आने पर ध्यान भी नहीं दिया।

मैंने धीरे से नमस्ते किया तो उन्होंने हलके से सिर उठाया , मुस्कुराये और बोले , " बैठो " और फिर मशगूल हो गए अपनी बाजी में।
मुझसे रहा नहीं गया और मैंने कह ही दिया , " चाचा जी , ऐसा क्या है इस खेल में , आप बिलकुल खो जाते हैं " .
कुछ देर लगा जैसे उन्होंने सुना ही नहीं , फिर उसी अंदाज में हलके से सिर उठा कर बोले , " बादशाहों का खेल है , ज़रा से चूके और मात , यानि कि खेल खत्म " .
" और वह भी केवल एक पैदल से , " मेरे मुंह से अनायास निकल गया और मैं हस पडा।
इस बार वो पहले से भी ज्यादा गम्भीर दिखे , " सही पोजीशन पे हो तो , और कवर में हो , तो एक पैदल भी काफी है , जनाब खेल खतम करने को ."
" वाह " , मेरे मुंह से अनायास निकला। इस बार मुझे बिलकुल हँसी नही आयी , कुछ याद जरूर आया।
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(३०). सुश्री मीना पाण्डेय जी 

शतरंज

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उसने जैसे ही ऑफिस जाने के लिए स्कूटी घर से बाहर निकाली ,वह अचानक मुस्कराता हुआ उसके सामने आ खड़ा हुआ I पहले तो वह अचकचाई ,फिर क्रोध और घृणा की एक मिली जुली सी लहर उसके तन में दौड़ गयी I
' तुम ! तुम यहाँ क्या कर रहे हो ? ' क्रोध से फुफकार ही तो उठी थी वह I किन्तु वह बिना भाव परिवर्तन के उसी प्रकार मुस्कराता रहा
' हां मैं ! कैसा लगा मेरा सरप्राइज !! वह उसके चेहरे के भावों को भी पढ़ने की कोशिश करता सा लगा I
' मतलब !! '
' हां रिमी तुम नही जानती मेरे साथ क्या हुआ था ! मेरा एक्सीडेंट हो गया था जिससे महीनों अस्पताल में कोमा में रहना पड़ा I ठीक होते ही मैं तुमसे माफ़ी मांगने आया हूँ और तुमसे विवाह - बंधन में बंधना चाहता हूँ I रिमी मैं सब कुछ पहले जैसा करना चाहता हूँ I प्लीज मुझे माफ कर दो I ' लेकिन ...वह अब भी उसे शंकित निगाहों से देखते हुए सोच रही थी I कैसे मान ले वो !! अचानक बिना बताये उसका उसे बीच मझधार में उसे छोड़ जाना ,आफिस वालों का कहना की जॉब ही छोड़ गया वो ! फिर यूँ इस तरह अचानक आना ! और उसने तो उसके खिलाफ शादी का झांसा दे यौन शोषण का केस भी कर दिया था I अब क्या करे समझ नही पा रही थी कुछ वह I
वह उसका हाथ अपने हाथ में ले रोड पर ही घुटनो के बल बैठ गया I 'अरे रे ये क्या कर रहे हो ?वह हड़बड़ा कर बोली लोग देख रहे हैं '
' देखने दो ,मुझे फर्क नही पड़ता I बस तुम मुझे माफ़ कर दो I ' अब वह अधिक देर अपने को रोक नही पायी I वह उसके सीने से लग गयी उसकी नाराजगी ,आशंकाए सब आँखों के रस्ते बाहर आने लगी थी इमां ही मन केस वापसी का मन भी बना लिया था उसने I पुराना प्रेम एक बार फिर से हिलोरे लेने लगा था
वह भी उसे बाहों में लिए यूँ ही खड़ा रहा लेकिन मन में सुकून और चेहरे पर कुटिल मुस्कान लिए मन ही मन सोच रहा था -- ' शुक्र है ! सब कुछ आसानी से सलट गया I वो तो अच्छा हुआ दरोगा उसका मित्र था और वक़्त पर मुझे केस के बारे में इतिला कर दिया वर्ना तो कोर्ट कचहरी का महीनो का चक्कर ... उफ़ .....उसे सोच कर ही झुरझुरी सी आ गयी I
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(३१). श्री सौरभ पाण्डेय जी 

शतरंज़ की चाल
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"निलाद्रि बाबू, साहित्य-सर्जन घोर साधना का प्रतिफल है, इसमें समझना क्या है ? इस साधना में दीर्घकालिक लगन न हो तो सब गुड़, समझिये, गोबर !.. फिर हम तो वैसे भी किसी राजनीति वग़ैरह से दूर ही रहते हैं, आप तो जानते ही हैं !"
"क्या बोलते हैं अच्युत बाबू ? आपकी नज़र में संस्था का.. इसके योगदान का.. कोई महत्त्व है या नहीं ? .. विचारधारा का कोई वज़ूद है, या नहीं ?" - निलाद्री बाबू अच्युत बाबू के ऊपर लगभग चीखने लगे थे - "..आपको ये नाम, ये यश मंच माहौल.. इज़्ज़त शोहरत.. सारा कुछ.. क्या आपकी कलमघिसाई पर मिला है ? .. प्रतिबद्धता.. विचारधार के प्रति समर्पण.. इनसबका कोई मतलब है या नहीं ? आप तो पूरा कृतघ्न निकले भाई !"
अच्युत बाबू की आँखें विस्फारित हो गयीं - "क्या ? .. तो मेरा लेखन.. सर्जन.. शब्द-साधना.. इन सबकी कोई भूमिका नहीं है ?"
"इनकी भूमिका ? वेरी गुड ! अच्युत बाबू, कौड़ी के तीन नहीं तैंतालिस मिलते हैं, तैंतालिस.. कलम घिस-घिस के मर जाने वाले .. होश में आइये ! दो घण्टे से आपको यही समझा रहा हूँ मैं !.. "


अच्युतबाबू होश में क्या आते, निलाद्रि बाबू ने तो मानों उनको उनकी औकात ही बता दी थी. अच्युत बाबू का माथा जैसे सुन्न पड़ता जा रहा था. तभी वे एकदम से उजबुजाते हुए बोले - "अब क्या करना है, सो बोलिये.. नहीं-नहीं, कैसे करना है, ये बताइये.."
"सोही तो.." - निलाद्रि बाबू बिना लाग-लपेट के बोलने लगे - "कल रवीन्द्र कला निकेतन में हम समिति के सभी चार लोग अपनी-अपनी पुरस्कृत किताब की होली जला कर अपना सम्मान लौटायेंगे. अपना प्रतिकार ऐसे ही होगा. देश का माहौल, समझिये, पूरा दारुन है आज.. दुर्दिन आ गया है, दुर्दिन ! .. समझे ?"

अच्युत बाबू मानों पत्थर हो गये थे. निलाद्रि बाबू के इस ’समझे’ का उन्होंने कोई ज़वाब नहीं दिया. निलाद्रि बाबू तेज़ कदमों से बाहर निकल गये. तभी उनके सेल-फोन की घण्टी बजी - "हाँ हाँ हाँ, मान गये हैं !.. मगर क्या आदमी है ये साहब ! .. पूरा ऊँट है ऊँट ! .. सीधा तो सोचता ही नहीं.. सीधा चलने की तो बात ही छोड़िये.."

विचारधारा-विरोध को लेकर निलाद्रि बाबू का दिमाग़ आगे की चालों को साधने की जुगत लगाने में भिड़ गया. एक्सलेटर पर कसाव क्या बना, उनकी बाइक और तेज़ हो गयी.
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(३२). श्री मनन कुमार सिंह जी 
शतरंज

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शाम के सात बजे थे।मुम्बई लोकल चर्चगेट से चली।प्रथम दर्जे में नारी-स्वर गूँजा-
-बोरीवली में दो स्टेशन हैं क्या'
सामने की सीट के मुसाफिर ने नजर उठायी,देखा एक हृष्ट-पुष्ट अधेड़ महिला एक जीन्स और टी-शर्ट वाली लड़की के साथ बैठी है।महिला प्रश्नभरी निगाहों से सामनेवाले यात्री को घूर रही थी।
-नहीं,बोरीवली में स्टेशन एक ही है।हाँ बड़ा है,प्लेटफॉर्म ज्यादा हैं।
फिर बात पूरी हो गयी हो जैसे।पर उस यात्री को कुछ कुछ याद आने लगा।अरे यही तो वह औरत है।उस दिन भी प्रथम दर्जे में बैठ गयी थी।सभी पुरुष थे वहाँ,क्योंकि औरतों के लिए मुम्बई लोकलमें अलग डिब्बे होते हैं।थोडा अचरज हुआ था उसे वहां देखकर।उसके साथ उस दिन संभवतः दूसरी औरतनुमा लड़की थी।.उस दिन भी उस औरत ने यही सवाल किया था,'बोरीवली में दो स्टेशन हैं क्या?'
सामनेवाला मुसाफिर न चाहकर भी उसके बारे में सोचने लगा कि आखिर क्यों यह औरत हमेशा पुरुषों वाले डिब्बे में अलग-अलग लड़कियों के साथ बैठ जाती है और एक ही सवाल किया करती है।फिर उसे लगा कि कहीं साथवालियों के सामने मुम्बई के बारे में अनजान दिखना चाहती हो शायद।खैर इस सबसे उसे क्या?पर वह औरत बीच बीच में उसे देख रही थी।जब उसे अहसास हो गया कि वह सम्मुख के यात्री। की नजर में है तब उसने लड़की से मुखातिब होते हुए कहा
-बात कर लोगी क्या?
लड़की अनमने-से सर 'न' में हिलाती रही।
लगा जैसे वह समय को तोल रही हो।कुछ देर बाद फिर उस औरत ने लड़की को कुरेदा-
एक बार बात कर लेती तो ...
-क्या बात कर लेती...?'लड़की चिढ़कर बोली और झटके से खिड़की की तरफ मुड़ गयी।उसका पूरा वदन हिल गया,नजाकत लटों के साथ छितराने लगी।उसकी उम्र भी ज्यादा नहीं लग रही थी।होगी वही कोई बीस के आसपास की।
कुछ देर बाद लगा औरत फोन पर कहीं बात कर रही थी-
-हाँ,आ रही हूँ।वह भी साथ ही है।...उसे काम चाहिए।क्या....खाली ....न ....।अच्छा रखिये ना।'
फिर वह मोबाइल रखकर लड़की को देखने लगी।अब लड़की थोड़ा सहम-सी गयी थी,बेबस जैसी।फिर औरत का मोबाइल बजा।वह बात करने लगी-
-जी सर,कहिये न।फिर शायद उधर से कुछ कहा गया हो।वह उत्तर देने लगी
-जी समझा दूँगी उसे।शिकायत का कोई मौका नहीं देगी वह ।.......हाँ भई,भली पढ़ी-लिखी उपटुडेट है जी।बस थोड़ा रहम कीजियेगा।अभी नादान है,घर छोड़ आयी है।अब भला इतनी जल्दी कहाँ लौटेगी वह।'
फिर औरत ने भेदभरी नज़रों से अनमनी बैठी लड़की की ओर देखा।लड़ की के चेहरे का रंग उड़ा हुआ था।शायद उसे अब लगने लगा था कि शतरंज के इस खेल में वह खिलाड़ी नहीं,महज एक मोहरा है।बाजी तो किसी और के हाथ में है।अंतिम चाल चली जा चुकी है।
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(३३). श्री वीरेन्द्र वीर मेहता जी 
"सियासत" 

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"माना कि बीती रात सरहद पार से हुयी सैनिक कार्रवाई से काफी तनाव पैदा हो गया पर एक बार फिर सोच लीजिये जनाब कि क्या इस शान्ति वार्ता को रद्द करना मुनासिब रहेगा?" हाजी साहब ने वज़ीर-ए-आजम के सचिव असलम खान पर नज़रे टिकाते हुए कहा।
"हाजी साहब! ये मसला आप हम पर छोड़िये, ये सियासत की बिसात है आप नहीं समझेंगे इसे।" असलम साहब एक जहरीली नज़र उन पर डालते हुए फ़ोन पर कोई नम्बर मिलाते लगे। हाजी साहब वक़्त की नज़ाकत को देखते हुए चुप ही रहे लेकिन उन्होंने अपना पूरा ध्यान उनपर पर लगा दिया।.......
फ़ोन मिल चुका था। "जनरल साहब आप का सेना के साथ मुल्क के हुक्मरान बनने का ख़्वाब अब पूरा होने वाला है। बस यूँ समझिये रात शहीद हुए 'प्यादो' की शाहदत और 'बातचीत' के फेल होने का सारा नज़ला वजीरे-ए-आजम पर ही गिरेगा।"
"हा.. हा..हा.. अरे भई हमारे पडोसी कमांडर साहब का भी तो शुक्रिया अदा कर देना जिन्होंने हमारी बात मान बीती रात जबरदस्त हमला किया और वज़ीरे-ए-आजम की सल्तनत के कई सिपाही मार गिराये।" जनरल साहब की ख़ुशी फ़ोन पर बखूबी नज़र आ रही थी।
"अरे उनका 'शुक्रिया' तो हम उनके खाते में जमा कर ही देंगे। बस अब तो आप यहां आ जाइये, प्रेस कॉन्फ्रेंस का वक़्त हो गया है।" कहते हुए असलम साहब ने बात ख़त्म की। हाजी साहब को अपनी और देखते पाकर वो मुस्कराये। "अरे भई हाजी साहब, प्रेस वालो का क्या वक़्त दिया है आपने, आये नहीं अभी!"
"गुस्ताखी माफ़ असलम साहब।" इस बार हाजी साहब के चेहरे पर अर्थपूर्ण मुस्कान थी। "प्रेस कांफ्रेंस तो हो चुकी है और अभी अभी उसे मुल्क समेत पूरी दुनिया ने 'लाइव' देख-सुन भी लिया है।"
असलम साहब हैरान परेशान से दिखाई देने लगे। हाजी साहब अपनी नज़रे उनपर गड़ाते हुए बोले। "असलम साहब! आप की शतरंजी बिसात तो मैं रात ही समझ गया था इसलिए वज़ीरे-ए-आजम की इज़ाज़त से मैंने ये स्टिंग का खेल खेला है, जनाब! मैंने शतरंज तो नहीं खेली पर इतना जानता हूँ कि एक 'पियादे' से भी शह को मात में बदला जा सकता है।
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(३४). सुश्री सविता मिश्रा जी 

ढ़ाई घर

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"काकी,ओ काकी कहाँ हो ?"
"अरे बिटिया आओ-आओ बईठो | बड़े सालों बाद दिखी | ये तेरी बिटिया है न कित्ती बड़ी हो गयी हैं | सुना ही होंगा तेरे काका और भाई ..| सुंदर मेहरिया जमाने में कैसे जियेगी बदसूरत को तो अकेले देख भेड़िये झपट ही पड़ते | मैं कब तक रहूंगी | आज गयी की कल |" कह सुबकने लगी काकी |
"काकी क्या कहूँ इस दुःख की घड़ी में | सुनी तो दौड़ी आई |"
"पहाड़ सी जिनगी कैसे काटेगी अकेली वह भी इस दुधमुहें के साथ |"
"मैं कुछ कहूँ काकी ?"
'हा बोल बिटिया !!"
"इसकी शादी मेरे बेटे से करवा दो | मेरा बेटा कुंवारा हैं और ये एक बच्चे की माँ ,पर किस्मत को शायद यही मंजूर हैं |"
" पर....!!"
"पर-वर छोड़ काकी कोई कुछ न कहता | कित्ता दूर का रिश्ता है अपना | कोई नजदीकी रिश्ता तो हैं न की समाज बोलेगा | और समाज का क्या हैं ,कुछ न कुछ बोलता ही हैं | और दूजी बात हम यहाँ कौन सा रहते ,रहते तो शहर में न | कुछ कहेंगा भी तो कौन सुनने आ रहा |"
"बहू से पूछ लूँ |"
घोड़ा अपनी ढ़ाई घर की चाल चल चूका था | रानी भी घिर चुकी थी |
थोड़ी देर में ही काकी लौट मोहर लगा दीं | माँ-बेटी चल दी वहां से |
"मम्मी, ये क्या कर रही हैं आप |एक तो ये वैसे ही दुखी है उप्पर से आप काँटों का ताज पहना रही हैं |"
"चुप कर मुई |कोई सुन लेगा | समाज में इज्जत बनी रहें इसके लिय बहुत कुछ करना होता | और फिर मैं तो उसे एक छाँव दे रही हूँ | मर्द के नाम की छाँव | इसकी भी इज्जत ढकी रहेगी और मेरी भी |"
"मम्मी ,मर्द न, पर भैया तो ..|"
पति को फोन पर बताते ही उधर से 'मानना पड़ेगा तुमको शतरंज की माहिर खिलाड़ी हो' आवाज सुन खिलखिला बोली, "सो तो हूँ | बेजान से ज्यादा जानदार मोहरे चलाने में दिमाग लगाना पड़ता मालूम|"
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(३५). श्री विनय कुमार सिंह जी 

जिन्दगी की शतरंज

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सुबह तड़के उठकर वो घर से निकल गया , पत्नी और बच्ची सोये हुए थे । शहर में फैले तनाव की वज़ह से कल उसे कोई काम नहीं मिल पाया था और कल रात में जो बचा खुचा खाने का सामान था वो ख़त्म हो गया था । जल्दी जल्दी कदम बढ़ाते हुए वो आज सबसे पहले पहुँच जाना चाहता था ताकि आज तो काम मिल जाए और रात को परिवार को खाना खिला पाये । चुनावी पोस्टरों से अटी पड़ी सड़कें और गलियाँ उन जैसों के विकास की ही बात कर रही थी ।
अब उजाला फ़ैल गया था और वो मज़दूर मंडी में सबसे पहले पहुँच गया था । अब इंतज़ार था तो ठेकेदारों का जो आकर ले जाएँ काम पर । ठेकेदार तो आये लेकिन वो कर्म के नहीं , धर्म के थे और कुछ ही देर में पुलिस की गाड़ियाँ सायरन बजाते घूमने लगीं । दंगे फ़ैल गए और कर्फ्यू का आदेश जारी हो गया था । घबराहट में वो भागा और गोलियों से बचते बचाते अपने घर सामने पहुँचा ।
सामने जलते हुए अपने घर को देखकर वो गश खाकर गिर पड़ा । जिन्दगी की शतरंज ने शह और मात दोनों दे दी थी ।
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(३६). सुश्री नेहा अग्रवाल जी 

" हमदर्दी "

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"समझाया था ना तुम्हें पर तुमने ना कसम खा रखी है कि मेरी बात नहीं मानोगी। अरे राजधानी का सफर था यह, सारा खाना मिलता है यहाँ,
पर ना जी ना घर से पूरा खाना बांध कर ही निकली तुम। और जब घर का ही खाना खाया तुमने, तो यह रेलवे का खाना क्यों बांध लिया। अब क्या करोगी इसका "
"आप भी ना बात बात पर गुस्सा, अरे किसी गरीब के मुँह लग जायेगा। अन्न देवता का अपमान करने से क्या फायदा, वो देखो वो रहा एक तो,
स्टेशन पर ऐसे लोगों की कमी नहीं होती। "
कहते हुए जया जी ने वो खाना एक जरूरतमंद को दे दिया।
उसके बाद चार कदम भी नहीं चल पायी थी जया जी, तभी कुछ लोगों ने उन्हें घेर लिया। और चिल्लाने लगे।
"यही है वो औरत जिसने उस गरीब को खराब खाना दिया। देखो जरा कैसे तडप रहा है। ओह यह तो मर गया अरे कोई पुलिस को तो बुलाओ। मार डाला रे हाय मार डाला। "
यह सब देख जया जी के तो हाथ पांव फूल गये। पुलिस को आता देख उन्हें लगा, कि अब शायद कोई उनकी बात सुनेगा। पर पुलिस भी उन्हें ही गुनहगार मानने लगी।
तभी एक पुलिस वाला बोला।
"बेहोश है यह डाक्टर के पास ले चलते हैं आप लोग भले लोग लगते हैं 50 हजार दे दिजिये हम सब सम्भाल लेगें अगर यह मर मरा गया तो आप तो गयी। "
बेबसी के साथ एटीएम से पैसा निकालती जया जी कि हालत पिटे हुए प्यादे जैसी ही हो रही थी। दूसरी तरफ पुलिस वाले और वो नकली जरूरतमंद अपने साथियों के साथ चल पडे थे,शतरंज पर शय और मात की एक नई बिसात बिछाने के लिए।
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(३७). सुश्री अनीता जैन जी 

आखिरी चाल

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"छोटे ! होश भी है तुझे कि क्या कह रहा है तू ?
"हाँ !भाई साहब होश में ही ये सब कर पाया हूँ | आप शतरंज के वो मज़बूत मोहरे थे जिसने हमारी ज़िंदगी के खेल को बिखरने न दिया और पिताजी की मौत के बाद उनको दिया वचन निभाने की खातिर भाई नही पिता बनकर हमारी ज़रूरतो को पूरा किया |सारी ज़िम्मेदारी निभाई |"
"ये सब जानते हुए भी!!
नारायण जी ने अपने आप को बडी मुश्किल से सम्भाला |जो सुना वो पिघले शीशे सा कानों में उतर कर असहनीय पीडा दे रहा था |
"एक बार फ़िर सोच ले इन रिश्तों का खून करने से पहले |कहीं ऐसा न हो कि कोई पासा पलट दे कुदरत |"
"नही!अब कुछ नही हो सकता |आपका ये प्यादा बीवी से मात खा गया और एक ही सूरत में वो मुझे दोबारा अपनायेगी जब ये घर उसके नाम होगा और मैं आपके बिना तो रह लूँगा पर उसके बिना नही |आप को ये घर छोडकर जाना होगा |"
"लेकिन इसमें तो तूने कुछ नही लगाया सिर्फ लोन अपने नाम से लिया था | इसीलिये तो...कानूनन इस पर मेरा हक़ है |बेशर्मी से छोटे ने कहा" | शतरंज
की आखिरी चाल नारायण जी झेल न पाये और इतना ही निकला मुँह से "तू तो जी लेगा पर मैं .."और धम्म से फर्श पर गिर पडे |ये चाल उनकी जान पर भारी पड गई |
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(३८). योगराज प्रभाकर 

खेल 

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राज्य में हर तरफ अफरा तफरी का माहौल था I प्रजा का गुस्सा पूरे उफान पर था, जगह जगह धरने और प्रदर्शन हो रहे थे I राज्य में अव्यवस्था अपनी चरम सीमा पर थी I इसी स्थिति पर विचार विमर्श करने हेतु राजा ने अपने मंत्रियों और सलाहकारों की एक आपातकालीन बैठक बुलाई थी I
"महाराज ! हर तरफ हाहाकर मचा हुआ है, प्रजा विद्रोह करने पर उतारू हो रही है।" महामंत्री ने हाथ जोड़ते हुए उत्तर दिया

"मगर क्यों महामंत्री जी ? क्या कष्ट है उन्हें ?" राजा के माथे पर चिंता की रेखाएं फैल गईं

"उनका सबसे बड़ा कष्ट है भूख।"

"भूख ? मगर हम तो हरेक नागरिक को दोनों वक़्त रोज़ एक रोटी दे रहे हैं।"

"मगर प्रजा की शिकायत है कि एक रोटी से उनकी भूख शांत नहीं होती।"

"तो प्रजा क्या चाहती है ?"

"उनकी मांग है कि उन्हें दिन में कम से कम दो रोटी मिलनी चाहिए।"

"उनकी ये मजाल ? इन सब हरामखोरों को बंदी बना लिया जाना चाहिए।" एक युवा मंत्री ने उत्तेजित होते हुए सलाह दी I

"किन्तु इस तरह से तो जन आक्रोश और बढ़ेगा।" एक अन्य अनुभवी मंत्री ने युवा मंत्री को समझाते हुए है I

"आप इस राज्य के सब से पुराने मंत्री हैं, आप ही बताएं कि इस संकट से कैसे निपटा जाये?" स्थिति की गंभीरता को परखते हुए राजा ने एक वरिष्ठ मंत्री घाघ जी से प्रश्न किया

"एक उपाय है महाराज !"

"क्या महामंत्री जी?

घाघ जी ने कुटिलता से मुस्कुराते हुए उत्तर दिया:

"हम राज्य में घोषणा करवा देते हैं कि आज से रोटियों की संख्या दोगुनी कर दी जाती है ।"

इस अप्रत्याशित समाधान को सुनकर राजा ने कहा:

"क्या बच्चों जैसी बात कर रहे हैं घाघ जी ? ऐसा करने से तो शाही गोदाम खाली हो जाएंगे।"

"ऐसा कुछ नहीं होगा राजन, आश्वस्त रहें I"

"कैसे नहीं होगा? गेहूँ क्या आसमान से आएगा?"

"यही तो खेल है महाराज, हम केवल रोटियों की संख्या बढ़ाएंगे, गेहूँ का कोटा नहीं।"
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(३९). सुश्री राजेश कुमारी जी
'पुस्तकालय की शतरंज'
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“आज अभी तक कोई भी नहीं आया है ताज़ी हवा भी नहीं मिली न जाने कैसा होगा आज का दिन” शारदा बोली | इति ,अक्षरा,गीता,गणिता,ज्यामिति, नीती एक स्वर में बोली “हाँ पता नहीं आज की बिसात में कौन जीतता है आज कौन किसको मात देगा” कामिनी की तरफ कुटिल मुस्कराहट बिखेरते हुए बोली|
“ठीक है आ जाओ मैदान में मुझे तुम क्या मात दोगी तुम्हें पूछता ही कौन है तुम सब तो जलना ही जानती हो जब भी कोई युवा या वृद्ध पाठक मुझे पढता है खुश होता है मैं देखती हूँ कितना धुआँ उठता है तुम सबके भीतर से” श्रृंगार से चिढती हो पर इस के बिना तुम्हारा अस्तित्व है ही क्या”? कामिनी ने उचकते हुए कहा |
“धुआँ नहीं उठता तरस आता है तुम्हारी सोच पर हमारे ज्ञान से ही रोजी रोटी मिलती है इंसान को तुमसे नहीं हमारे ज्ञान के बिना इंसान क्या है? वैसे सोचो तुम्हारे थोबड़े पर इत्ते बड़े आदमी का नाम न जडा होता तो तुम आज कहाँ होती तुम्हे कौन पूछता” शारदा ने अपना कंधा उससे अलग करते हुए ताव में आकर कहा|
“चलो अब छोड़ो कोई ताला खोल रहा है लड़ना बंद करो’ नीति ने समझाते हुए कहा|
लाइब्रेरियन के दरवाजा खोलते ही एक वृद्ध जल्दी से शेल्फ की तरफ भागा कामिनी शारदा की तरफ आँख मारते हुए उसके हाथों में कूद पड़ी शारदा का एक मोहरा लुढ़क गया और गणिता ने हिसाब में शून्य लिख दिया|
“ये तो हद हो गई शारदा, ये अध्यापक है न? ये भी... ऐसे कैसे जीत होगी हमारी?” गीता बोली |
“तू चिंता मत कर पूरा दिन पड़ा है जीत हमारी होगी दुनिया हम से ही चल रही है” शारदा ने कहा |
गीता भगवान् से प्रार्थना में लग गई ज्यामिति मुँह लटकाकर जमीन पर आडी तिरछी लकीरें खींचने लगी| वापस शेल्फ में जाकर कामिनी फूली नहीं समा रही थी उसे देख कर शारदा के तन बदन में आग लग रही थी वो बुरी तरह गुस्से में फड़फड़ा रही थी पंखा तेज चल रहा था|
तभी कुछ बच्चों ने एक साथ प्रवेश किया किसी सामाजिक सरोकार पर निबंध प्रतियोगिता की बात कर रहे थे उन्हें देखकर उन सब की आँखों में चमक उभर आई “अब देखते हैं कौन इस कमीनी की तरफ देखता है” अक्षरा ने कामिनी की तरफ मुँह बनाते हुए कहा| उन सबके ठहाके से शेल्फ भी हिल गई| एक चूहा भी खीं खीं करते हुए बाहर की तरफ भागा|
इसी बीच कामिनी का एक दीवाना व्यक्ति अपने बच्चे को लेकर दाखिल हुआ| बच्चे ने चारों तरफ नजर घुमाते हुए शेल्फ के उस कौने में जाकर देखा कामिनी आँखों में अनोखी चमक लिए हुए उसके हाथों में कूदने को आतुर बैठी थी जैसे ही बच्चे ने उसे छुआ कि वृद्ध ने बच्चे के गाल पर चपत जमाते हुए उसके हाथों से कामिनी को छीन कर लाइब्रेरियन की तरफ गुस्से से फेंकते हुए कहा “ ऐसी पुस्तक यहाँ किसने रखी है फेंको इसे बाहर बच्चों पे क्या असर पड़ेगा”?
शारदा कामिनी के राजा को शहमात में ढेर कर गर्वित मुस्कान के साथ बच्चे के हाथ में चली गई| इतने में एक साहित्यकार ने प्रवेश किया गिरी हुई कामिनी को उठाकर पोंछ कर, “हर पुस्तक बहुमूल्य होती है संभाल कर रखा करो” लाइब्रेरियन को हिदायत देते हुए शेल्फ में पुनः रख दिया|
कामिनी का राजा अगली बिसात के लिए पुनर्जीवित हो उठा|
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(४०). शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी

"मोर्चों पर बिटिया

"मोर्चों पर बिटिया " - [लघुकथा]

"सब मुझसे कहते हैं कि जैसी माँ, वैसी बिटिया !" - ससुराल से लौटी विभा ने रोते हुए अपनी माँ को बताया।

"ईश्वर ने तेरा रंग रूप मेरे जैसा कुरूप बनाया है, तो इसमें हमारा क्या कसूर।" - विनीता ने बिटिया को सीने से लगाते हुए समझाया - "देखो बेटा, सीरत और कर्म अच्छे होने चाहिए। लड़की जात को कई मोर्चों पर अकेले लड़ना पड़ता है मेरी तरह !"

"वो कैसे, मम्मी ?"

"मेरे साथ जो हुआ, बताती हूँ। पहला मोर्चा मेरा मायका था। ईश्वर ने मुझे प्रतिभायें दी थीं, पर ख़ूबसूरती और अच्छे पति मेरी दोनों बहनों को। उन्हें मुझसे ज़्यादा स्नेह मिला ! हीन भावना से ख़ुद को बचा कर पढाई- लिखाई का मोर्चा संभालकर मैंने मेहनत से डिग्रियां और सरकारी नौकरी हासिल की । विवाह के मोर्चे पर जो रिश्ते मुझे पसंद आते थे, उन पर मेरी बहनों और बुआ की बेटी ने बाज़ी मारी। लेकिन मैंने हार नहीं मानी।" -इतना कहकर विनीता चुप हो गई।

"तो क्या मम्मी, आपका विवाह तुम्हारी मर्ज़ी के ख़िलाफ कराया गया था ?"

"क्या करती, पिताजी बहुत तनाव ग्रस्त थे, उनकी बिगड़ती हालत और छोटे बहन के विवाह का रास्ता साफ करने के लिए भाइयों के दवाब में मैंने समझौता किया।" - आँखों के आँसुओं को साफ करते हुए विनीता ने कहा - " देखो विभा, ससुराल के मोर्चे पर तुम मेरी तरह ग़लतियाँ मत करना। मैं कई चालें चलकर ससुर जी की संपत्ति का बँटवारा करा कर सास-ससुर को छोड़ अपना यह मकान बनाकर अलग हो गई थी। नतीज़तन मैं प्यार, स्नेह और रिश्तों की मिठास से फिर वंचित रह गई ! "

"तो मम्मी, मुझे करना क्या चाहिए ?"

विनीता ने विभा के सिर पर हाथ फेर कर कहा-
" बेटा, सास-ससुर ही अब तुम्हारे माँ-बाप हैं और पति ही परमेश्वर ! धन-दौलत, ऐश्वर्य की ख़ातिर उनसे दूरी कभी मत बढ़ाना। आपसी समझ, स्नेह और प्रेम है, तो सब कुछ है !"

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आदरणीय गुरुजी श्री योगराज प्रभाकर जी, हृदयतल से लघु-कथा गोष्ठी 7 के सफल आयोजन तथा उत्कृष्ट लघु कथाओं के प्रेरक संकलन के लिए बहुत बहुत बधाई आपको और सभी प्रतिभागी रचनाकारों को। मुझे अत्यंत खेद है कि मैं अच्छी रचना प्रस्तुत नहीं कर सका। मैं अपनी कथा का संशोधन कर यथा शीघ्र प्रेषित करने की इच्छा रखता हूँ। सादर

दिल से शुक्रिया भाई शेख़ शहज़ाद उस्मानी जी I आप अपनी संशोधित लघुकथा को संकलन में शामिल करने हेतु दोबारा निवेदन कर सकते हैं I 

पुनः अवसर देने के लिए हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद आदरणीय गुरुजी।यथा शीघ्र प्रेषित करूँगा।

लघुकथाओं का लाजवाब संकलन, वधाई आदरणीय योगराज जी!

हार्दिक आभार भाई आबिद अली मंसूरी जी I

सम्मान्य मंच, आदरणीय लघु-कथा गोष्ठी-7 संचालक महोदय, मैं एतद द्वारा अपनी संशोधित लघु कथा को दो भिन्न-भिन्न रूपों में पुनः अवलोकनार्थ प्रेषित कर रहा हूँ। इनमें से जो अधिक उपयुक्त हो , उसे कृपया उक्त संकलन में प्रतिस्थापित कर अनुग्रहीत करें।
यदि ये दोनों ही रूप अमान्य हों, तो मैं एक और प्रयास करना चाहूँगा, आशा है मुझे निराश नहीं होना पड़ेगा। संशोधन प्रेषित करने में हुए विलम्ब के लिए सखेद,

आपका अनुज,
__शेख़ शहज़ाद उस्मानी
शिवपुरी म.प्र.
***************
संलग्न- लघु कथा के दो संशोधित रूप क्रमशः
************
[1]

"मोर्चों पर बिटिया " - [लघुकथा]

"सब मुझसे कहते हैं कि जैसी माँ, वैसी बिटिया !" - ससुराल से लौटी विभा ने रोते हुए अपनी माँ को बताया।

"ईश्वर ने तेरा रंग रूप मेरे जैसा कुरूप बनाया है, तो इसमें हमारा क्या कसूर।" - विनीता ने बिटिया को सीने से लगाते हुए समझाया - "देखो बेटा, सीरत और कर्म अच्छे होने चाहिए। लड़की जात को कई मोर्चों पर अकेले लड़ना पड़ता है मेरी तरह !"

"वो कैसे, मम्मी ?"

"मेरे साथ जो हुआ, बताती हूँ। पहला मोर्चा मेरा मायका था। ईश्वर ने मुझे प्रतिभायें दी थीं, पर ख़ूबसूरती और अच्छे पति मेरी दोनों बहनों को। उन्हें मुझसे ज़्यादा स्नेह मिला ! हीन भावना से ख़ुद को बचा कर पढाई- लिखाई का मोर्चा संभालकर मैंने मेहनत से डिग्रियां और सरकारी नौकरी हासिल की । विवाह के मोर्चे पर जो रिश्ते मुझे पसंद आते थे, उन पर मेरी बहनों और बुआ की बेटी ने बाज़ी मारी। लेकिन मैंने हार नहीं मानी।" -इतना कहकर विनीता चुप हो गई।

"तो क्या मम्मी, आपका विवाह तुम्हारी मर्ज़ी के ख़िलाफ कराया गया था ?"

"क्या करती, पिताजी बहुत तनाव ग्रस्त थे, उनकी बिगड़ती हालत और छोटे बहन के विवाह का रास्ता साफ करने के लिए भाइयों के दवाब में मैंने समझौता किया।" - आँखों के आँसुओं को साफ करते हुए विनीता ने कहा - " देखो विभा, ससुराल के मोर्चे पर तुम मेरी तरह ग़लतियाँ मत करना। मैं कई चालें चलकर ससुर जी की संपत्ति का बँटवारा करा कर सास-ससुर को छोड़ अपना यह मकान बनाकर अलग हो गई थी। नतीज़तन मैं प्यार, स्नेह और रिश्तों की मिठास से फिर वंचित रह गई ! "

"तो मम्मी, मुझे करना क्या चाहिए ?"

विनीता ने विभा के सिर पर हाथ फेर कर कहा-
" बेटा, सास-ससुर ही अब तुम्हारे माँ-बाप हैं और पति ही परमेश्वर ! धन-दौलत, ऐश्वर्य की ख़ातिर उनसे दूरी कभी मत बढ़ाना। आपसी समझ, स्नेह और प्रेम है, तो सब कुछ है !"

[मौलिक व अप्रकाशित]


***********
अथवा
***********
[2]

"मोर्चों पर बिटिया" - {लघुकथा}

संयुक्त परिवार वाले मायके के मोर्चे पर और पढ़ाई-लिखाई के मोर्चे पर अपनी लड़ाई अकेले लड़ने और जीतने के बाद बदसूरत और बेढब काया वाली प्रतिभावान विनीता का बेमन का विवाह आख़िर सफलता पूर्वक करा ही दिया गया । नाइंसाफी और सुंदर बहनों के कारण भेदभाव की पीड़ा भोगने के बाद ससुराल भी उसके लिए शतरंज की एक बिसात की तरह था। ज़ल्दी ही वह समझ गयी कि उसे नहीं, बल्कि उसकी सरकारी नौकरी को और उसकी कमाई को पसंद किया गया था। खूबसूरत मोडर्न जिठानियों के बीच उसकी आये दिन फजीहत होने लगी । कभी ईर्ष्या, कभी रसोई, कभी पसंद-नापसंद, तो कभी उसकी नौकरी और रहन-सहन को लेकर यहाँ भी प्रतिस्पर्धा थी। जिठानियों ने संयुक्त परिवार से अलग होने के लिए वातावरण बनाना शुरू कर दिया। 'फूट डालो, राज करो' नीति पर चलकर अपने भाइयों की मदद से साम-दाम-दण्ड-भेद सब तरह की नीतियाँ अपनाकर न सिर्फ ससुरजी से सम्पत्ति का बँटवारा करा लिया, बल्कि दो-तीन सालों में ही सास-ससुर और उस संयुक्त परिवार से पिंड छुड़ाकर वे दोनों परिवार संग अलग-अलग रहने लगीं । आज उनके अपने-अपने शानदार मकान हैं, सब सुविधायें हैं, सन्तान हैं, और मुट्ठी में हैं उनके पति देव ।" लेकिन असली जीत तो विनीता की थी। वह इस मोर्चे पर भी अपने चरित्र और व्यक्तित्व से ससुराल वालों का सच्चा प्यार और रिश्तों की वो मिठास हासिल कर पायी थी । पिता को क्यों न अपनी इस बिटिया पर अभिमान हो !

(मौलिक व अप्रकाशित)

बहुत सुन्दर ....बधाई ४० जनों को ..इकठ्ठा एक जगह पर लिखने के लिय
हम तो खोजते रह गये थे मिला ही न ..आज अपने ब्लाग में खोजने के लिय देखे तो ये संग्रह दिखा ..सब को हार्दिक बधाई ...प्रभाकर भैया सादर नमस्ते

सम्मान्य मंच व सम्मान्य लघु-कथा गोष्ठी-7- संचालक महोदय, हृदयतल से बहुत बहुत धन्यवाद मेरी संशोधित लघु कथा - "मोर्चों पर बिटिया" को स्वीकार कर उत्कृष्ट संकलन में प्रतिस्थापित करने के लिए व मुझे प्रोत्साहित करने के लिए।
आदरणीय योगराज प्रभाकर सर मैंने अपनी रचना का अंत कुछ परिवर्तित करके दुबारा रचा था। यदि ये संभव हो तो मैं इसे दूसरे रूप को संकलन में स्थान देना चाहता हूँ
सादर आभार।
रचना इस प्रकार है।

"सियासत"
"माना कि बीती रात सरहद पार से हुयी सैनिक कार्रवाई से काफी तनाव पैदा हो गया पर एक बार फिर सोच लीजिये जनाब कि क्या इस शान्ति वार्ता को रद्द करना मुनासिब रहेगा?" हाजी साहब ने वज़ीर-ए-आजम के सचिव असलम खान पर नज़रे टिकाते हुए कहा।
"हाजी साहब! ये मसला आप हम पर छोड़िये, ये सियासत की बिसात है आप नहीं समझेंगे इसे।" असलम साहब एक जहरीली नज़र उन पर डालते हुए फ़ोन पर कोई नम्बर मिलाते लगे। हाजी साहब वक़्त की नज़ाकत को देखते हुए चुप ही रहे लेकिन उन्होंने अपना पूरा ध्यान उनपर पर लगा दिया।.....
फ़ोन मिल चुका था। "जनरल साहब आप का सेना के साथ मुल्क के हुक्मरान बनने का ख़्वाब अब पूरा होने वाला है। बस यूँ समझिये रात शहीद हुए 'पयादो' की शाहदत और 'बातचीत' के फेल होने का सारा नज़ला वजीरे-ए-आजम पर ही गिरेगा।"
"हा..हा..हा.. अरे भई हमारे पडोसी कमांडर साहब का भी तो शुक्रिया अदा कर देना जिन्होंने हमारी बात मान बीती रात जबरदस्त हमला किया और वज़ीरे-ए-आजम की सल्तनत के कई सिपाही मार गिराये।" जनरल साहब की ख़ुशी फ़ोन पर बखूबी नज़र आ रही थी।
"अरे उनका 'शुक्रिया' तो हम उनके खाते में जमा कर ही देंगे। बस अब तो आप यहां आ जाइये, प्रेस कॉन्फ्रेंस का वक़्त हो गया है।" कहते हुए असलम साहब ने बात ख़त्म की। हाजी साहब को अपनी और देखते पाकर वो मुस्कराये। "अरे भई हाजी साहब, प्रेस वालो का क्या वक़्त दिया है आपने, आये नहीं अभी!"
"गुस्ताखी माफ़ असलम साहब।" इस बार हाजी साहब के चेहरे पर अर्थपूर्ण मुस्कान थी। "प्रेस कांफ्रेंस तो हो चुकी है और अभी अभी उसे मुल्क समेत पूरी दुनिया ने 'लाइव' देख-सुन भी लिया है।"
असलम खान कुछ कहने ही वाले थे कि हाजी साहब की जैकेट में छुपा कैमरा देख वो सारा माज़रा समझ गए। हाजी साहब उन पर नज़रे गड़ाये मुस्करा रहे थे मानो कह रहे हो। "जनाब असलम साहब! मैंने शतरंज तो नहीं खेली पर इतना जरूर जानता हूँ कि एक 'पियादे' से भी शह को मात में बदला जा सकता है।
(मौलिक व् अप्रकाशित)

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अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव replied to Admin's discussion 'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 162 in the group चित्र से काव्य तक
"मनहरण घनाक्षरी छंद ++++++++++++++++++   देवों की है कर्म भूमि, भारत है धर्म भूमि, शिक्षा अपनी…"
9 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . विविध
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post रोला छंद. . . .
"आदरणीय जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय जी"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया ....
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय जी ।"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . कागज
"आदरणीय जी सृजन पर आपके मार्गदर्शन का दिल से आभार । सर आपसे अनुरोध है कि जिन भरती शब्दों का आपने…"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .यथार्थ
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी सृजन के भावों को मान देने एवं समीक्षा का दिल से आभार । मार्गदर्शन का दिल से…"
Tuesday
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . .यथार्थ
"आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय"
Tuesday
Admin posted discussions
Monday
Chetan Prakash commented on Sushil Sarna's blog post कुंडलिया ....
"बंधुवर सुशील सरना, नमस्कार! 'श्याम' के दोहराव से बचा सकता था, शेष कहूँ तो भाव-प्रकाशन की…"
Monday
Chetan Prakash commented on Sushil Sarna's blog post दोहा पंचक. . . . कागज
"बंधुवर, नमस्कार ! क्षमा करें, आप ओ बी ओ पर वरिष्ठ रचनाकार हैं, किंतु मेरी व्यक्तिगत रूप से आपसे…"
Monday
Chetan Prakash commented on सुरेश कुमार 'कल्याण''s blog post लघुकविता
"बंधु, लघु कविता सूक्ष्म काव्य विवरण नहीं, सूत्र काव्य होता है, उदाहरण दूँ तो कह सकता हूँ, रचनाकार…"
Monday
Chetan Prakash commented on Dharmendra Kumar Yadav's blog post ममता का मर्म
"बंधु, नमस्कार, रचना का स्वरूप जान कर ही काव्य का मूल्यांकन , भाव-शिल्प की दृष्टिकोण से सम्भव है,…"
Monday

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