For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

उपन्यास के निकष पर - ‘शिव :: अलौकिक व्यक्तित्व की लौकिक-यात्रा’                                                 डॉ. गोपाल नारायन श्रीवास्तव

 हिंदी साहित्यकारों ने भारतीय मिथकों के दैवीय चरित्रों को उपन्यासों में मानवीकृत करने के बहुतेरे प्रयास किये हैं I रामायण और महाभारत के नायक, उपनायक अथवा विख्यात चरित्रों पर बड़े विशद और प्रभावी आख्यान रचे गये, जिनमे से अनेक बहुत लोक प्रिय भी हुए I इस मुहिम में रामकुमार ‘भ्रमर’ और नरेंद्र कोहली जैसे कथाकारों का अवदान कौन भूल सकता है I इन मिथकीय आख्यानों को प्रायश: कथाकारों ने अपनी मौलिक उद्भावनाओं से कहीं-कहीं अतिरंजित भी किया है I मौलिक उद्भावनायें निःसंदेह साहित्य को समृद्ध करती हैं I किन्तु किसी मिथकीय आख्यान में मौलिक उद्भावना तभी आकर्षण का केंद्र बनती है, जब उसमे मिथक के स्वरुप के साथ व्याघात न हो, जैसा कि नरेंद्र कोहली के उपन्यासों में मिलता है I उन्होंने रामायण की हर असंभावना को मानवीय धरातल पर संभव बनाकर प्रस्तुत किया, साथ ही अपनी मौलिकता भी प्रकट की और मिथकीय स्वरुप से कहीं छेड़-छाड़ भी नहीं की I इसलिए मिथकीय आख्यानों के वे बड़े कथाकार माने जाते हैं I

मिथक कथाओं को औपन्यासिक स्वरुप देने वाले कथाकारों में डॉ. अशोक शर्मा एक उभरता नाम है I इन्होंने ‘कृष्ण’, ‘सीता सोचती थीं’ और ‘सीता के जाने के बाद राम’ जैसे उपन्यास रचकर अपना एक अलग पाठक वर्ग तैयार किया I उनका नवीनतम उपन्यास ‘शिव -अलौकिक व्यक्तित्व की लौकिक यात्रा‘ अंजुमन प्रकाशन, इलाहाबाद से प्रकाशित हुआ है I इसमें 240 पृष्ठ हैं और इसका मूल्य मात्र सौ रूपए है I

इस उपन्यास का कथानक मूल रूप से शिव-पत्नी सती पर केन्द्रित है और शिव इसमें विशिष्ट भूमिका में हैं I यद्यपि पूरे उपन्यास में उनके अद्भुत एवं सम्मोहक रूप का बार-बार वर्णन हुआ है, परन्तु महज हिम-प्रदेश में घूमने और यत्किंचित मार्ग-निर्देश करने के अतिरिक्त उनका और कोई प्रयोजन उपन्यास में स्पष्ट नहीं है I उपन्यास के केंद्र में सती है और सभी जगह उनका ही संघर्ष दिखता है I 

उपन्यास में शिव न भगवान् हैं और न अजन्मा I यदि वे मानव हैं तो उनका परिचय क्या है ? हिम प्रदेश में अधिकतर समाधिस्थ रहने वाला यह मानव कौन है और कहाँ से आया ? यह सब अँधेरे में है I उपन्यास में नन्दी के अवतरण का प्रसंग कुछ  नाटकीय हो गया है I शिव सिवाय पत्नी के प्रायशः निपट अकेले हैं I मात्र नन्दी का साथ उन्हें प्राप्त है तो दक्ष के यज्ञ-प्रकरण में अचानक वीरभद्र कहाँ से से आ गये और शिव के गण कैसे प्रकट हो गये ? यह अति क्रोधी वीरभद्र कौन थे ? शिव से उनका क्या सम्बन्ध था ? शिव ने अपने गण कब संगठित किये और मजे की बात यह कि इन गणों ने दक्ष की सेना से बाकायदा युद्ध किया I एक उन्मुक्त यायावर के पास यह सेना कैसे आयी, जिसका अपना भी ढंग का एक घर नहीं था I ऐसे बहुतेरे प्रश्न हैं जो उपन्यास में अनुत्तरित रह जाते हैं I इससे यह भी भासित होता है कि उपन्यास का कथानक अधिकांशतः वायवीय धरातल पर टिका हुआ है I  

डॉ. शर्मा ने अपनी कथा में शिव के मिथकीय आख्यान में कई परिवर्तन किये हैं I दक्ष प्रयाग में हो रहे यज्ञ में गये I शिव उनके सम्मान में खड़े नहीं हुये I दक्ष प्रजापतियो के प्रजापति थे I शिव के श्वसुर थे I जाहिर है पिता तुल्य थे I यदि दक्ष ने अपने को अपमानित महसूस किया तो यह तो बड़ी स्वाभाविक सी बात है I शिव जैसे धीरोदात्त एवं सुयोग्य नायक से यह अभद्रता कैसे हुयी ? कथाकार को कोई सटीक कारण दर्शाना चाहिए था I हालाँकि उपन्यास में दर्शित प्रसंग का सदर्भ भी मिथक में उपलब्ध है पर यह  अधिक तर्कसम्मत नही लगता I रामचरितमानस में शिव कहते हैं कि यह दुर्घटना ब्रह्मा की सभा में हुयी थी –

ब्रह्म सभाँ हम सन दुःख माना I तेहि ते अजहुं करहि अपमाना II

शिव के प्रचलित आख्यान के अनुसार सती ने राम की परीक्षा लेने के लिए सीता का वेश धारण किया था और शिव ने उनका त्याग कर दिया था –

एहि तन सतिहि भेंट मोहि नाहीं I शिव संकल्प कीन्ह मन माहीं II

 उपन्यास में इस प्रसंग से परहेज किया गया है I इसी प्रकार मिथक कथा में सती पति का अपमान न सह पाने के कारण यज्ञाग्नि में भस्म हो जाती हैं और हिमवान के घर में पार्वती के रूप में उनका पुनर्जन्म होता है, फिर शंकर से उनका विवाह होता है I डॉ. शर्मा ने इस मिथकीय कथानक को थोड़ा ट्विस्ट किया है I उपन्यास में सती आत्महत्या नहीं करतीं अपितु पिता के घर से निकलकर पहाड़ों में चली जाती हैं I  उनकी सहेली इला भी पीछा करते हुए उनसे जा मिलती है I सती के मन में ग्लानि है i उसका शरीर दक्ष का प्रतिदान है और दक्ष ने शिव का अपमान किया है I अतः अब सती दक्ष संभूत देह लेकर शिव से नहीं मिलना चाहतीं I वह पर्वतों में अपनी सखी के साथ भटकती फिरती हैं I पर शिव उन्हें ढूंढ लेते है I फिर दोनों मिलकर पूरे भारत का भ्रमण करते है I  बाद में बड़े ही नाटकीय ढंग से हिमवान और उनकी पत्नी मैना उनसे मिलते हैं I हिमवान दम्पति सती को गोद लेते हैं और उसे बेटी बनाकर पार्वती का अभिधान देते हैं I हिमवान पार्वती का शिव से पुनर्विवाह करते हैं I यहाँ फिर एक प्रश्न खड़ा होता है कि क्या हिमवान द्वारा गोद लेने से यह सत्य नगण्य हो जाता है सती का शरीर दक्ष सम्भूत है जिसके आधार पर ही सती की सारी मानसिक उथल-पुथल उपन्यास में विस्तार से दिखाई गयी है I कथानक में  मिथक कथा का जो स्वरुप बदला गया है उससे परंपरावादी बहुत निराश हो सकते है I नई पीढी को यह दूर की कौड़ी लग सकती है और कुछ लोग इसे मौलिक उद्भावना भी मान सकते हैं I जो पुनर्जन्म में विशवास नही करते उन्हें यह योजना तर्कसम्मत भी लग सकती है I

 उपन्यास का सबसे आकर्षक और महत्वपूर्ण चरित्र सती का है और वह अपने कर्तृत्व और विचारों से प्रभावित करती है I सती का मानसिक संघर्ष बड़ा ही स्वाभाविक है  यह प्रमाता को अंत तक उपन्यास से जोड़े रखता है I दूसरा चरित्र इला का है I इसके बिना उपन्यास का कलेवर आकार नहीं ले सकता था I यद्यपि यह काल्पनिक पात्र है  कितु इस पात्र की अपरिहार्यता सिद्ध होती है I तीसरा नारी चरित्र जिसकी संवेदना पाठक को झकझोरती है वह सती की माता वीरणी का है I माँ का चरित्र इस पात्र में अपने सभी रंगों में विद्यमान है I नारी पात्रों की तुलना में उपन्यास के पुरुष पात्र बड़े सामान्य से लगते हैं I शिव भी अपनी सारा भव्यता के बाद भी उपन्यास के नारी चरित्रों से काफी पीछे जान पड़ते है I बेहतर होता यदि इसका नाम ‘सती– अलौकिक नारी की लौकिक यात्रा’ रखा जाता I उपन्यास  में कल्पना के रंग बड़े ही चटक और चमकीले हैं I संजोग और दैवीय सहायता के दृश्यों का प्राचुर्य है I उपन्यास में जहाँ मिथक के दैवीय स्वरुप को नकारा गया है वहीं दैवीय सहायता के प्रसंग जोड़े भी गये है I

उपन्यास का अंत थोड़ी सी जल्दबाजी में किया गया प्रतीत होता है I नंदी और नंदिनी को प्रस्तुत करने और सती की इला के साथ की गयी पर्वत यात्रा के प्रसंग में जो विस्तार है, उससे परहेज करते हुए अंत में जिन घटनाओं को जल्दी-जल्दी समेटने का प्रयास हुआ है, उसे और अधिक स्वाभाविक एवं तर्क-संगत बनाया जा सकता था I हिमवान-मैना द्वारा पार्वती को गोद लेने का प्रसंग इसी कारण नाटकीय सा हो गया है I मैनाक एवं इला का पूर्वराग अभी पका भी नही कि आनन-फानन आत्मस्वीकृतियां हुईं और सती के पुनर्विवाह के साथ ही उनका विवाह भी संपन्न हो गया I इस उपन्यास का प्लस पॉइंट जिसके कारण इसे पढने की अनुशंसा की जा सकती है, वह सती का संघर्षपूर्ण चरित्र है I  

उपन्यास की भाषा साफ़-सुथरी, प्रांजल और भावात्मक है I किन्तु प्रूफ संबंधी कुछ गलतियां है, जैसे पृष्ठ 105 पर अलकापुरी के स्थान पर दो बार अमरावती साया हुआ है I इसी क्रम में पृष्ठ 106 पर कुबेर के पुत्र नलकूबर के स्थान पर कुबेर की पुत्रबधू नलकूबर छप गया है I हालांकि इससे कोई विशेष फर्क नही पड़ता क्योंकि ये त्रुटियां आसानी से  पकड़ में आ जाती है और इनसे अर्थ का अनर्थ नही होता I कथाकार ने यद्यपि कोई काव्य अभी तक नहीं रचा पर उनका हृदय कवियों जैसा है I उपन्यास लिखने से पूर्व वे स्फुट रूप से कविताएं लिखते भी थे i शायद यही कारण है कि अपने उपन्यासों में उन्होंने गद्य-गीतों का बड़ा ही सुन्दर प्रयोग किया है I फल और फूलों का संचय इनके पात्रों का अनिवार्य शगल है I प्राकृतिक दृश्यों से उन्हें बहुत लगाव है और उपन्यास में इनके बड़े ही सुरम्य चित्र मिलते है I प्रेम-प्रसंगों में इनकी शैली संगीत का सरगम लेकर आती है I 

(मौलिक व अप्रकाशित  )

Facebook

Views: 824

Reply to This

Replies to This Discussion

पहली बात :-

उपन्यास

संस्कृत शब्द ‘‘न्यास’’ का अर्थ है, स्थापन करना। जैसे,

1. जब गृह निर्माण किया जाता है तो सर्वप्रथम कुछ पत्थरों को नीव में रखा जाता है, इसे कहते हैं शिलान्यास (शिला पत्थर, न्यास स्थापना करना) हमारे देश में नेताओं को शिलान्यास करने का बड़ा शौक है वे पत्थर पर अपना नाम लिखाकर उस स्थान पर रखकर यह किया करते हैं ।
2. जिस मनुष्य ने आदर्श के लिए सम्यक रूप से अपने को ‘न्यास’ किया है अर्थात् स्थापित कर लिया है वह सम न्यासिन् संन्यासिन् (प्रथमा के एकवचन में ‘संन्यासी’) ।
3. जिस आदर्शवान व्यक्ति ने सद्वस्तु अर्थात् परमपुरुष को पाने के लिए अपने को ‘न्यस्त’ किया हो वह सत् न्यासिन् संन्यासी है।

‘‘उप’’ का अर्थ है आसपास या निकट। अतः,

1. जब कोई भोज्य या भोग्य वस्तु किसी के पास रख दी जाती है तो उसे कहते हंै ‘उपन्यास’ उप आसपास और न्यास स्थापित करना या रखना। यह ‘उपन्यास’ श्रद्धा से भी हो सकता है और अवहेलना से भी। गाय बैलों को चारा, खली भूसा अच्छी तरह मिलाकर उनके मॅुह के पास रख देना श्रद्धा या यत्नपूर्वक न्यास अर्थात् ‘उपन्यास’ हुआ। कबूतर या मुर्गी के लिये दानें छिड़कना भी ‘उपन्यास’ हुआ, रास्ते में सोए कुत्ते को सूखी रोटी का टुकड़ा फेक दिया जाए तो वह भी ‘उपन्यास’ हुआ अवहेलना से। तात्पर्य यह कि उप से न्यस्त होना ही उपन्यास है।
2. किसी पुस्तक की भूमिका या उपक्रमणिका लिखा जाना भी ‘उपन्यास’ कहला सकता है।

अब ध्यान दीजिए अंग्रेजी में जिसे ‘नावेल’ या ‘फिक्शन’ कहा जाता है उसे हम अपनी भाषा में ‘उपन्यास’ कहते हैं तो क्या यह उचित है? स्पष्ट है कि आधुनिक हिन्दी, बंगला और अन्य पूर्व भारतीय भाषाओं में ‘उपन्यास’ शब्द का उपयोग गलत अर्थ में किया जाता है। वैसे अन्य अनेक भारतीय भाषाओं जैसे मराठी में ‘नावेल’ या ‘फिक्शन’ के अर्थ में ‘उपन्यास’ शब्द का व्यवहार होते नहीं देखा गया है।
‘नावेल’ या ‘फिक्शन’ को सही अर्थ देना हो तो उसे हिन्दी में ‘‘कथान्यास’’ कहना सार्थक और सम्पूर्ण लगता है।

दूसरी बात :-


आप जानते हैं कि पौराणिक कथाएँ काल्पनिक हैं परन्तु उनमें दी गयी शिक्षाएं अमूल्य हैं। दुःख यह है कि कथाकार कथाओं के पीछे छिपी शिक्षा को छोड़कर बाकी सब कुछ व्याख्या करते देखे जाते हैं चाहे वे उपन्यासकार हों या कथाकार। आपने जो कुछ इस उपन्यास के सन्दर्भ में शिव के सम्बन्ध में कहा है वह भी शिव की भूमिका और समाज को उनके योगदान का लेशमात्र संकेत नहीं देता सिवाय पौराणिक कथा के दृष्टांतों के। शिव को सही अर्थों में जानने के लिए पढ़िए अमूल्य पुस्तक " नमः शिवाय शान्ताय" । इसके कुछ बिंदु आपकी जानकारी के लिए नीचे दे रहा हूँ :-

1 "विवाह " की संकल्पना को व्यावहारिक रूप उन्होंने ही दिया। वे ही प्रथम विवाहित पुरुष कहलाये। उन्होंने परस्पर झगड़ने वाले आर्य, मंगोल और द्रविड़ों को एकीकृत करने की दृष्टि से तीनों सभ्यताओं की क्रमशः उमा (पार्वती), गंगा और काली नाम की कन्याओं से विवाह किया। इस प्रकार उन्होंने परिवार को आदर्श स्वरूप देने के लिये पुरुष को उसके पालन पोषण का उत्तादायित्व देकर ‘भर्ता‘ और पत्नी को इस कार्य में उसके साथ समान रूप से सहभागी बनाने के लिये ‘कलत्र‘ कहा। ये दोनों ही शब्द पुल्लिंग में हैं अतः उन्होंने कभी भी लिंग के आधार पर भेदभाव को नहीं माना और न ही महिलाओं को पुरुषों से कम। इस प्रकार समाज को व्यवस्थित कर उसे उन्नत किये जाने को नया आयाम दिया।
2 शिव ने समझाया कि प्रत्येक जड़ वस्तु चाहे वह सूर्य, और आकाशगंगायें हों या छुद्र कण , सबका अस्तित्व है परंतु वे यह जानते नहीं हैं, जबकि मनुष्य, चीटी, केंचुआ ये सब जानते हैं कि उनका अस्तित्व है। यह एग्जिस्टेंशियल फीलिंग ही वह आधार है जिस पर जीव व जगत टिका हुआ है। इसलिये ‘‘मैं हूं‘‘ इसके साक्षीबोध में उस परमपुरुष की सत्ता अदृश्य रूप में रहती है। इसे सरलता से समझने के लिये हम भौतिकी के ‘‘बलों के त्रिभुज नियम‘‘ को ले सकते हैं जिसके अनुसार दीवार पर संतुलन में टंगी तस्वीर के दो छोरों पर बंधी रस्सी से दो बलों को तो प्रदर्शित किया जा सकता है पर तीसरा बल जो तस्वीर में से लगता हुआ संतुलन बनाये रखता है दिखाई नहीं देता जबकि तस्वीर दिखती है। यही अदृश्य (‘सेंटिऐंट फोर्स’) साक्षीस्वरूप परमपुरुष वह आधार है जो पूरे ब्रह्माॅंड को संतुलित रखते हैं।
3 उस काल में लोग भोजन की तलाश में यहां वहाॅं भटकने में ही अधिकांश समय खर्च कर देते थे , अतः शिव ने ‘नन्दी’ को पशुपालन और कृषिकार्य में प्रशिक्षण देकर अन्न उत्पन्न करने का कार्य सभी को सिखाने का उत्तरदायित्व सौंपा । पहाड़ की गुफाओं के बदले, मैदानों और नदियों के किनारे भवन बनाकर रहने का प्रशिक्षण ‘विश्वकर्मा’ को देकर उन्हें भवन निर्माण शिल्प या स्थापत्य कला को सभी लोगों को सिखाकर घर बनाकर रहने की प्रेरणा देने का दायित्व दिया। शिव ने स्वस्थ रहने के लिये वैद्यकशास्त्र में ‘धनवन्तरि’ को प्रशिक्षित कर अन्य लोगों को सिखाने और सभी के स्वास्थ्य का निरीक्षण करने का काम सौंपा। इसके बाद काम करते करते लोग ऊबने न लगें इसलिए ‘भरत’ को संगीत विद्या में निपुण कर अन्य लोगों को सिखाने का और मनोरंजन करने का काम सौंप दिया।
------- आदि अनेक प्रकार की अन्य जानकारियां इस अनूठे ग्रन्थ में मिलेंगी।सादर।

आ० शुक्ल जी , आपका आभार कि आप मेरी समीक्षा पर आये  i आपने न्यास की जो व्याख्या कि वह उचित ही है   I आपने शिव को समझने के लिए 'नम: शिवाय शान्ताय" पढ़ने की अनुशसा की I इसका भी  स्वागत  है  I शिव के बारे में जो जानकारी आपने मुझे दी वह पुस्तक के लेखक को मिलनी चाहिए  I मैंने तो उपन्यास पर पाठक के रूप में अपनी प्रतिक्रिया  मात्र ही दी है तथापि  आपका फिर से आभार और अभिनन्दन i 

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173
"स्वागतम"
10 hours ago
Admin posted a discussion

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-173

आदरणीय साहित्य प्रेमियो, जैसाकि आप सभी को ज्ञात ही है, महा-उत्सव आयोजन दरअसल रचनाकारों, विशेषकर…See More
10 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . विरह शृंगार
"आदरणीय चेतन जी सृजन के भावों को मान और सुझाव देने का दिल से आभार आदरणीय जी"
19 hours ago
Sushil Sarna commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . विरह शृंगार
"आदरणीय गिरिराज जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभारी है सर"
19 hours ago
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post दोहे -रिश्ता
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। दोहों पर आपकी प्रतिक्रिया से उत्साहवर्धन हुआ। स्नेह के लिए आभार।"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post दोहे -रिश्ता
"आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। दोहों पर उपस्थिति और प्रशंसा के लिए आभार।"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post दोहे -रिश्ता
"आदरनीय लक्ष्मण भाई  , रिश्तों पर सार्थक दोहों की रचना के लिए बधाई "
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
गिरिराज भंडारी commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . विरह शृंगार
"आ. सुशील  भाई  , विरह पर रचे आपके दोहे अच्छे  लगे ,  रचना  के लिए आपको…"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post कहीं खो गयी है उड़ानों की जिद में-गजल
"आ. भाई चेतन जी सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति के लिए हार्दिक धन्यवाद।  मतले के उला के बारे में…"
yesterday
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post कहीं खो गयी है उड़ानों की जिद में-गजल
"आ. भाई गिरिराज जी, सादर अभिवादन। गजल पर उपस्थिति के लिए आभार।"
yesterday
Chetan Prakash commented on Sushil Sarna's blog post दोहा सप्तक. . . . विरह शृंगार
"आ. सुशील  सरना साहब,  दोहा छंद में अच्छा विरह वर्णन किया, आपने, किन्तु  कुछ …"
yesterday
Chetan Prakash commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post कहीं खो गयी है उड़ानों की जिद में-गजल
"आ.आ आ. भाई लक्ष्मण धामी मुसाफिर.आपकी ग़ज़ल के मतला का ऊला, बेबह्र है, देखिएगा !"
yesterday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service