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जमीन दूसरे की तो राजमहल भी दूसरे का

मेरा यह मानना है कि अगर जमीन अपनी हो और उस पर हम घास-फूस का भी घर बनाएगें तो वह घर मेरा ही होगा। मगर जमीन दूसरी की हो और उस पर हम राजमहल ही बना लें तो भी वह राजमहल मेरा नहीं ब्लकि जमीन वाले की कहलाएगी।

अब मैं उपर कही गयी बातों के आधार पर साहित्य के किसी आयातित विधा को देखें तो तो कैसा रहेगा.....

अगर मैं गलत हूँ तो भी अपनी राय दें या मैं सही हूँ तो भी अपनी राय दें।

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आनो भद्रा कृत्वो यन्तु विश्वतः  (ऋग्वेद)
इसे ऐसे भी कह सकते हैं, प्रत्येक के पास प्रत्येक दिशा से सद्-विचारों को आने दो. अवश्य ही इसका क्षेपक यह भी हो सकता है कि तदनुरूप सद्-विधा, सद्-व्यवहारों को आने दो और अपनाने दो. इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि कोई सद्-विचार और उस हेतु निस्सृत कोई विधा ’अपनी’ या ’उसकी’ नहीं होती. क्योंकि विचार ऊर्जा हैं. इनका प्रस्फुटन और आवश्यकतानुकूल परिवर्तन मात्र होता है. तभी भारतीय वाङ्गमय आह्वान कर उठता है - कृण्वन्तो विश्वम् आर्यम्  (हम समस्त को विश्व को ज्ञानवान करें). ओबीओ के ’सीखने-सिखाने’ की भावना इन्हीं मूल से प्राण पाती है.

लेखन वस्तुतः वैचारिक-संप्रेषण का अति उच्च माध्यम है. जिसका समग्र समुच्चय ही उस भाषा का साहित्य है. अतः इस गुरुतर कार्य हेतु चाहे जिस विधा का प्रयोग हो, स्पष्ट रूप में हो.

यह अवश्य है कि संप्रेषण हेतु प्रयुक्त विधा के नियम प्रयुक्त शब्द तथा प्रयुक्त भाषा के अनुसार परिवर्तनशील हों. यह अपरिहार्य है. विधा में यदि इतनी लोच और स्वीकार्यता नहीं है तो अवश्य ही वह उक्त शब्द-प्रयुक्ति तथा उक्त भाषा के लिए भाव-संप्रेषण हेतु तैयार नहीं है. यानि, यथोचित माध्यम नहीं है. अतः, विधा कहीं की हो, कैसी भी हो प्रयुक्त शब्दों और भाषा को संतुष्ट करे.

अतः, आवश्यकतानुसार, विद्वान और जागरुक संप्रेषणकार (रचनाकार) उस विधा को भाषा के अनुरूप मान्य बना लेने का गंभीर सद्-प्रयास करें.

शुभम्

agree with you

अगर बात भावनाओं की है तो ... भारतीय समाज ने सदैव "वसुधैव कुटुम्बकम" को अपना आदर्श माना है

साहित्य को भी मैं इस सोच के साथ स्वीकार करता हूँ... बाद बाकी कुछ लोग उर्दू को ही अपनी भाषा नहीं मानते
ऐसे लोगों पर दया भी नहीं आती
क्योकि वो इस लायक भी नहीं हैं

सादर

सही कहा है आपने, वीनसभाई.

अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसां
उदार चरितानान्तु वसुधैव कुटुम्बकं

भारत को अनादिकाल से आध्यात्म व दर्शन में विश्व-गुरु का दर्जा प्राप्त है, यदि आयातित विधाओं पर लिख कर उपनी उच्च सोच को सम्पूर्ण विश्व तक पहुंचाया जा सकता है, तो सद्भावों का सम्प्रेषण चारों दिशाओं में होना ही चाहिए. काव्य या लेखन तो भाव सम्प्रेषण का माध्यम हैं, भावों की प्रस्तुति किसी भी विधा में क्यों न की जाए, भाव-कथ्य सांद्रता यदि विधा के मानकों को संतुष्ट करे तो वो लेखन मेरा या तेरा न रह कर अपने लिखे जाने की सार्थकता को ही प्रस्फुटित करता है. सादर.

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