For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

गज़लशाला ( आप भी जाने कि ग़ज़ल कैसे कही जाती है )

ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार के सम्मानित सदस्यों,
सादर अभिवादन,
मुझे यह बताते हुए ख़ुशी हो रही है कि आदरणीय श्री पुरुषोतम अब्बी "आज़र" जी द्वारा प्रत्येक सप्ताह के शुक्रवार को "ग़ज़ल कैसे कही जाती है" विषय मे विस्तृत चर्चा की जायेगी, आप सब से अनुरोध है कि श्री "आज़र" साहब के अनुभवों से लाभ उठाये,
धन्यवाद |

Views: 4037

Replies are closed for this discussion.

Replies to This Discussion

Aajar Sahab,
Bahut bahut swagat hai, aur dhanyabad hai apko.
आप भी जाने कि ग़ज़ल कैसे कही जाती है : अंक-3
( यह पोस्ट आदरणीय "आज़र" साहब द्वारा ही लिखी गई है जिसे मैं यहाँ पोस्ट कर रहा हूँ )
सम्मानित, ओपन बुक्स ऑनलाइन के सभी पाठको को पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र" का
सादर प्रणाम !
मैं यह सोच रहा हूं कि चर्चा कहां से शुरू की जाए तो सब से पहले जनाब
योगी राज के द्वारा लिखी गई रचना को ग़ज़ल का रुप देते हुए इक शेर से करता हूं!
आप को आज मेरी बात भी मुम्किन है कड़वी लगे ?

सच्चाई कि तासीर तो कड़वी ही रहेगी
मुक्ति भी मिले रोग की देखो कुनीन से

अब बात करता हूं जनाब प्रिय राना प्रताप की जिन्हों ने मुझको गुरू का दर्जा दिया तो मेरा भी फ़र्ज बनता है
जिनका मान रखते हुए उनके द्वारा एक दोष पूर्ण मिसरे के उपर चर्चा करता हूं ! आपको पहले शेर से पता लग जएगा
कि दोष क्या है !बात जब तक मिसरे में मुकम्मल न हो वह दोष पूर्ण रहता है !

2 1 2 2 1 1 2 2 1 1 2 2 2 2
फ़ाइलातुन , मफ़ईलुन , मफ़ईलुन , फ़ेलुन

मिसरा ऊला भी है लिक्खा तो वो क्या लिक्खा है
तूने क्या मुझको मुहब्बत में बना रक्खा है

पहले तो यह बता की क्या है, बना रक्खा है
क्य़ूं मुहब्बत का तमाशा यूं बना रक्खा है

शेर हैं जिनका बुरा तुम नहीं मानो राना
शेर मिसरे से मुक्म्मल यूं नही होता है

शेर कहतें हैं भला कैसे अभी सीखो तो
मैने गुरूओं के चरणो को चूमा तब सीखा है

जनाब प्रिय राना प्रताप द्वारा यह मिसरा जिनका भी है हर लिहाज से बेहतरीन व उमदा है
यह अपनी बात स्वंम कह रहा है !
उन्ही के कदमों में ही जा गिरा जमाना है
नई दिशा में जिसने चल के पा दिखाया है

इसी प्रकार :-
यह शेर जिनका भी है हर लिहाज से गल्त है बह्र से खारिज है !

चली गई सपनो का आंचल समेट कर
गुजरे हुए वो सारे लम्हे समेंट कर

आंचल का काफ़िया लम्हें नहीं हो सकता तथा सवाल यह पैदा होता है कि कौन चली गई शेर में
बात मुकम्मल होनी चाहिए !
अब नीचे दुरुस्त किये शेर को पढें आंचल व पल काफ़िया हो गया इसमें ढल , जल, थल ,बादल, यह काफ़िया तथा और भी काफ़िये हो सकते हैं तथा रदीफ़
समेंट कर जिसको ग़ज़ल के मक्ते तक या शेर के अंत तक निभाना पडता है
आप इस मतले को इस प्रकार कह सकते हैं !

तू चली गई सपनों से आंचल समेंट कर
संग गुजरे लम्हों का वो हर पल समेंट कर

सच्ची बात कहूं तो ग़ज़ल पहले वक्तो में नाजुकी, जाम , साकी, आशिक ,माशूका पर कही जाती रही है ,वक्त बदला तो रफ़्ता-रफ़्ता गम ,फ़िक्र .तस्वुर .दीदार
आदी पर कही जाने लगी सही मायने में यह एक कठोर तपस्या के सामान है !मेरा एक शेर देखें :-

मिलता कभी वो कैसे कि पूजा के वक्त भी
हम को तो अपनी फ़िक्र थी अपना ही ध्यान था

माफ़ किजियेगा यदि आपने मोमिन ख़ाँ 'मोमिन' का यह शेर पढा होतो इस शेर के बाद बाकी कुछ भी नही रह जाता कहने को !

तुम मेरे पास होते हो गोया,
जब कोई दूसरा नहीं होता ।
दूसरी बात ग़ालिब को अव्वल दर्जे का शायर नही कहा गया जब गालिब असद के नाम से भारी भरकम उर्दू के शब्दों का प्रयोग करते थे किसी ने नही पूछा इस शेर को देखें इस शेर को समझाने के लिये निचे अर्थ लिख गया है !यह शेर ग़ालिब के नाम से भी कोड किया है !

रौऩके - हस्ती है इश्क़े-खान: वीराँसाज़ से
अंजुमन बेशमअ है गर बर्क खिरमन में नहीं ।

अर्थात "यह एक दर्द है जो दर्द भी है, दवा भी है । इसमें एक ऐसा दर्द मिलता है
कि जिसकी दवा अब तक नहीं बन पायी, पर मज़ा यह है कि इसी दर्द को पाने के
लिए आदमी तड़पता है क्योंकि उस तड़प में, उस जलन में भी एक स्वाद है ।
बाद में उन्होने ग़ालिब के नाम से समझ में आने वाले शब्दो का प्रयोग किया !

ग़ालिब का शेर
कहते हो 'न देंगे हम दिल अगर पड़ा पाया'
दिल कहाँ कि गुम कीजे, हमने मुद्दआ पाया ।

यदि कोई अव्वल दर्जे के शायर हुए हैं तो वह मीर तकी मीर तथा दाग देहलवी हुए हैं !

मीर साहिब का शेर
हमको शायर न कहो मीर कि साहिब हमने
दर्दो ग़म कितने किए जमा तो दीवान किया
दाग देहलवी का शेर
कसम आपके सर की, दाग को परवाह ही नहीं,
होगी जिन्हे होगी, तमन्ना आपसे मिलने की।

आप मेरे यह शेर देखें शेर गुफ़्तगू के लहजे में होने चाहियें !

उदासी की बातें न हमसे करो तुम
बहारों में आगे ही दिल सा लगे ना

पुकारा जो दादी ने उत्तर मिला यह
अरी चुप भी हो जा क्या सुनती नही है

आज इतना ही
पुरुषोत्तम अब्बी ’आज़र’
गुरु जी बहुत बहुत शुक्रिया मेरा नाम अपनी इस पोस्ट में शरीक करने का|

मुझे बात कड़वी बिलकुल नहीं लगी और अगर लगती भी तो मुझे कड़वी बातें पसंद है|

इस बात का clarification करना मेरे लिए और मेरे भविष्य के लिए बहुत ज़रूरी है|

मैंने तरही के लिए मिसरा दिया था .."तूने क्या मुझको मुहब्बत में बना रक्खा है "
जो कि 'हाफिज़ नासिर' साहब की एक मशहूर ग़ज़ल का एक मिसरा है

और उस पर मैंने गिरह लगाई

"भूल बैठा हूँ खुदी को जो मिला हूँ तुझसे
तूने क्या मुझको मुहब्बत में बना रक्खा है"

क्या यह शेर मुकम्मल नहीं है? अगर नहीं है तो एक शिष्य का doubt शांत करे|

और हां आपने 'दाग देहलवी' का ज़िक्र किया है तो उनको ही फिर से पढ़ने बैठ गया हूँ और एक शेर ज़ेहन में बड़ा गहरा उतर गया है|

"न सीधी चाल चलते हैं न सीधी बात करते हैं
दिखाते हैं वो कमज़ोरों को तन कर बाँकपन अपना"
It is very much intresting. All the rukans used here are from Arabic, Persian and in Punjabi also these are used while writing a Ghazal. After going through the present site, I have also tried to add one of my Hindi Ghazal which I have posted in my Blog and now I am posting here for your valuable suggession to know whether I can write in Hindi also
ग़ज़ल
by Tarlok Singh Judge

गिर गया कोई तो उसको भी संभल कर देखिये
ऐसा न हो बाद में खुद हाथ मल कर देखिये

कौन कहता है कि राहें इश्क की आसन हैं
आप इन राहों पे, थोडा सा तो चल कर देखिये

पाँव में छाले हैं, आँखों में उमीन्दें बरकरार
देख कर हमको हसद से, थोडा जल कर देखिये

आप तो लिखते हो माशाल्लाह, बड़ा ही खूब जी
कलम का यह सफर मेरे साथ चल कर देखिये

क्या हुआ दुनिया ने ठुकराया है, रोना छोडिये
बन के सपना, मेरी आँखों में मचल कर देखिये

लोग कहते हैं छलावा आप को, क्या बात है
हम से भी मिलिए, जरा हमको भी छ्ल कर देखिये
आप भी जाने कि ग़ज़ल कैसे कही जाती है : अंक-4
( यह पोस्ट आदरणीय "आज़र" साहब द्वारा ही लिखी गई है जिसे मैं यहाँ हुब हु पोस्ट कर रहा हूँ )
सम्मानित, ओपन बुक्स ऑनलाइन के सभी पाठको को पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र" का
सादर प्रणाम !
सबसे पहले अपनी त्रुटि पर खेद है !भाग २ में रदीफ़ के बारे में :
रदीफ़
प्रत्येक शेर में ‘का़फ़िये’ के बाद जो शब्द आता है उसे ‘रदीफ’ कहते हैं। पूरी ग़ज़ल में रदीफ़ एक होती है जिसको ग़ज़ल के अंतिम शेर तक निभाना पडता है! बदला नही जा सकता! बिना रदीफ़ की ग़ज़ल को ‘ग़ैर-मुरद्दफ़-ग़ज़ल’ कहा जाता है।

बात कहने से पूर्व ही आप सब से मेरा आनुरोध है जो मैने कहने जा रहा हूं वह सत्य है !
यह मेरा ईश्वर जानता है कि आप फ़नकारों के साथ मै अपने आपको गुरु साबित करने हेतु नही जुडा हूं !
यदपि ग़ज़ल कैसे कही जाती है यह एडमिन जी के अनुरोध को सवीकारते हुए आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूं!
मैने कभी भी किसी व्यक्ति का उपहास नही उड़ाया है जहां तक मेरी कोशिश रही है कि सामने वाले व्यक्ति को सचेत कर दूं कि वह अपनी
त्रुटीओं में सुधार कर ले तथा यदि कोई व्यक्ति मेरी त्रुटी से अवगत कराता है तो उसको अपना हितेशी मानता हूं !दूसरी बात यदि कोई शेर
मुझसे बेहतर कहे तो मुझे खुशी का अहसास होता है ! (भाई) शब्द साहित्यक भाषा के अनुरूप नही है !

यदि प्रिय राना गुरू का दर्जा नही देते तो कोई भी आवश्यकता नही थी कि मैं इस प्रकार उनको त्रुटियों के बारे में ज्ञात कराता !

मानसिकता या अज्ञानता :-

सबसे पहले हम किसी फ़नकार या अपने से बडो को आमंत्रित करते हैं तो बात कहने से पूर्व सम्मान से आमंत्रित किया जाता है
जो कि लाईव तरही मुशायरे में नदारत है और भी त्रुटियां थीं जो सुधार ली गईं जिनका जिक्र करना मैं जरूरी नही समझता हूं !
और भी कई फ़नकार हैं जो अपने अंह से ग्रस्त हैं !
आज मैं चर्चा प्रिय राना द्वारा पहले दिए गए लाईव तरही मुशायरे में कोड किये गए इसी शेर से करता हूं

"भूल बैठा हूँ खुदी को जो मिला हूँ तुझसे
तूने क्या मुझको मुहब्बत में बना रक्खा है"

एक शख्स ये कहता है कि जब से मैं किसी अंजान व्यक्ति से मिला हूं वो चाहे स्त्री ही
क्यूं न हो ! वह व्यक्ति उसकी सुंदरता को देख कर अपने आप को भुल बैठता है
साथ में वो यह भी फ़र्मा रहा है (तूने क्या मुझको मुहब्बत में बना रक्खा है) सवाल यह
पैदा होता है कि इसमें उस नारी क्या दोष है! मुहब्बत आप को हो गई है आप उस
नारी से मिलकर आए और खुद को भूल बैठे हो वह नारी मुहब्बत का इजहार तो करके नही
गई दूसरी बात इस शेर में मिसरा-ए- ऊला का सबसे बडा दोष यह है कि (भूल बैठा हूँ खुदी को जो मिला हूँ तुझसे)
यह साहित्यक भाषा कदापि नही है और न ही इसका मिसरा-ए-सानी से कोई ताल मेल बैठता है !

शेर में बानगी की अदायगी व रिवायत अनिवार्य है

(१)भूल बैठा हूं मैं खुद को जो मिला हूं तुझसे
इक मुहब्बत में तेरी दीपक जला रक्खा है

(२)भूल बैठा हूं मैं खुद को जो मिला हूं तुझसे
याद ने तेरी यूं दीवाना बना रक्खा है

(३) भूल बैठा हूं मैं खुद को जो मिला हूं तुझसे
दिल कि धडकनों ने तन-मन से हिला रखा है

(४)भूल बैठा हूं मैं खुद को जो मिला हूं तुझसे
बस निगाहों ने तेरी पागल बना रखा है

लाइव तरही मिसरे ३ की बह्र का एक शेर:-
मेरे द्वारा लिखा शेर जब कि पूर्ण रूप से बह्र में है लेकिन उसके बावजूद इक मजाक का पात्र ही बन कर रह जाएगा
यदि अपने द्वारा कही गई ग़ज़लों में शामिल कर लूं !
2 1 2 2 1 2 2 1 2 2 1 2
चाल दुनिया के माफ़िक मैं चलता नही
साइकिल भी मेरी यूं खडी रह गई

मेरे द्वारा लिखी गई यह ग़ज़ल पूर्ण रूप से बह्र में है बिना रदीफ़ की ग़ज़ल को ‘ग़ैर-मुरद्दफ़-ग़ज़ल’ कहा जाता है
उसके बावजूद यह ग़ज़ल अर्थ देते हुए भी ग़ज़लियात वहीन ही है! यह हास्यस्पद के सिवा कुछ भी नही !
जो फ़नकार यह कहते हैं ग़ैर-मुरद्दफ़-ग़ज़ल’को अच्छा नही माना जाता मैं उनसे यह कहना चाहूंगा
इस प्रकार से ग़ज़ल कहना आसान नही होता !
ग़ज़ल

अजब शहर हमने ये देखा है पटना
कोई दिन न जाता जो घटती न घटना

मुझे ये सुहाती है बारिश तो लेकिन
बडा कहर ढाये ये बादल का फ़टना

जरा दूर हट के ही हमसे रहो तुम
हमें यह सुहाता चिपटना न सटना

नहीं खेल दुष्मन से लेना यूं लौहा
हमारी ही फ़ोजों ने सिखा है डटना

ये आया जो घिर के है अंम्बर पे ’आज़र’
बिना बरसे मुशिकल है बादल का छटना

प्रिय पाठको चूँकि यह भाग मैं लिख चुका था तो आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूं !
दूसरा दौर-
इस दौर के सब से मशहूर शायर हैं’मीर’ और ‘सौदा’। इस दौर को उर्दू शायरी का ‘सुवर्णकाल’ कहा जाता है। इस दौर के अन्य शायरों में मीर’दर्द’ और मीर ग़ुलाम हसन का नाम भी काफी़ मशहूर था। इस जमाने में उच्च कोटि की ग़ज़लें लिखीं गईं जिसमें ग़ज़ल की भाषा, ग़ज़ल का उद्देश्य और उसकी नाजुकी को एक हद तक संवारा गया। मीर की शायरी में दर्द कुछ इस तरह उभरा कि उसे दिल और दिल्ली का मर्सिया कहा जाने लगा।

देखे तो दिल कि जाँ से उठता है
ये धुँआ सा कहाँ से उठता है

दर्द के साथ साथ मीर की शायरी में नज़ाकत भी तारीफ़ के काबिल थी।

नाजु़की उसके लब की क्या कहिये
पंखुड़ी इक गुलाब की सी है

‘मीर’ इन नीमबाज़ आखों में
सारी मस्ती शराब की सी है

इस दौर की शायरी में एक और महत्वपूर्ण बात यह है कि इस ज़माने के अधिकांश शायर सूफी पंथ के थे। इसलिये इस दौर की ग़ज़लों में सूफी पंथ के पवित्र विचारों का विवरण भी मिलता है।
वक्‍़त ने करवट बदली और दिल्ली की सल्तनत का चिराग़ टिमटिमाने लगा। फैज़ाबाद और लखनऊ में ,जहां दौलत की भरमार थी, शायर दिल्ली और दूसरी जगहों को छोड़कर, इकट्ठा होने लगे। इसी समय ‘मुसहफ़ी’ और ‘इंशा’ की आपसी नोकझोंक के कारण उर्दू शायरी की गंभीरता कम हुई। ‘जुर्रअत’ ने बिल्कुल हलकी-फुलकी और कभी-कभी सस्ती और अश्लील शायरी की। इस ज़माने की शायरी का अंदाज़ा आप इन अशआर से लगा सकते हैं।

किसी के मरहमे आबे रवाँ की याद आई
हुबाब के जो बराबर कभी हुबाब आया

टुपट्टे को आगे से दुहरा न ओढ़ो
नुमुदार चीजें छुपाने से हासिल

चलते-चलते :जहां तक मैं समझता हूं आप सब फ़नकार अपने आप में शेर व ग़ज़ल कहले में सक्षम हैं!
यदि आपको मेंरे द्वारा कहे शब्दों से ठेस लगी हो उसके लिए क्षमा प्राथी हूं !
दो शेर:-
चाक पर कच्ची है मिट्टि, चाहे जैसे ढाल लो
रूप भट्टी में तपा तो ,फ़िर न बदला जाएगा

छलकता है पसीना जब ,लहू की तेज रौ से खुद
जहन की आग में तप कर, कहीं इक शेर होता है

धन्यवाद
पुरुषोत्तम अब्बी "आज़र"
आदरणीय आज़र साहब, आपका आना शुभ-शुभ हो.
आप गोया मेरे मन की मुराद ही पूरी करने आए हैं. मैंने आपकी कक्षाओं में बैठना शुरू कर दिया है. पोस्ट किए गए पहले चारों अंकों के पाठ रुचिकर ढ़ंग से प्रस्तुत हुए हैं. विश्वास है, ओबीओ के माध्यम से ही सही परस्पर सहयोग बना रहेगा.

--सौरभ
gajal samajh me hi nahi aata hain,
अज़र साहेब, प्रणाम
आपके दो पाठों में शामिल हो चुका हूँ और आप का अहसान मंद हूँ की आपने हम जैसे नौसिखियों को आसानी से ग़ज़ल सिखा रहे हैं या आपके सानिद्ध्य में हम आसानी से सीख पा रहे हैं आपका बहुत बहुत धन्यवाद
आदरणीय अडमिन जी
नम्सकार

आपसे निवेदन है इस बार का "आज़र" साहिब द्वारा लिखा पाठ आपने पोस्ट नही किया किरपा करके अवगत करवाएं!

अभिनव खत्री
आदरणीय अभिनव जी,
नमस्कार,
अभी तक आदरणीय आज़र साहिब का गज़लशाला के लिये नया अंक प्राप्त नहीं हुआ है, और गज़लशाला में अगला अंक आदरणीय आजर साहिब द्वारा सीधे पोस्ट किया जा सकता हैं | हम सब भी नए अंक का इन्तजार कर रहे हैं, शायद आजर साहिब किसी जरूरी कार्यों मे व्यस्त हो गये हों,
धन्यवाद,
azar sahab pranaam,
hame ghazal sikhne ka yah swarnim awasar prapt ho raha hai| jise aap ke dwara sikhaya ja raha hai. mai bahut khush hu.
आदरणीय श्री पुरुषोतम अब्बी "आज़र" साहब,

आपके साप्ताहिक पोस्ट में हुआ विलम्ब किसी तथ्यात्मक कारण के चलते ही हुआ होगा, ऐसा मेरा विश्वास है.
अनुरोध है कि यदि आप इसकी सूचना एडमिन को दे हमें आश्वस्त करें तो मेरे जैसों को बहुत लाभ होगा. हम धैर्य से आपके पोस्ट की प्रतीक्षा कर रहे हैं.

आपका सौरभ

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"आदाब।‌ बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब तेजवीर सिंह साहिब।"
Monday
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"हार्दिक बधाई आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी साहब जी।"
Monday
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"हार्दिक आभार आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी साहब जी। आपकी सार गर्भित टिप्पणी मेरे लेखन को उत्साहित करती…"
Monday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"नमस्कार। अधूरे ख़्वाब को एक अहम कोण से लेते हुए समय-चक्र की विडम्बना पिरोती 'टॉफी से सिगरेट तक…"
Sunday
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"काल चक्र - लघुकथा -  "आइये रमेश बाबू, आज कैसे हमारी दुकान का रास्ता भूल गये? बचपन में तो…"
Sunday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"ख़्वाबों के मुकाम (लघुकथा) : "क्यूॅं री सम्मो, तू झाड़ू लगाने में इतना टाइम क्यों लगा देती है?…"
Sep 29
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"स्वागतम"
Sep 29
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"//5वें शेर — हुक्म भी था और इल्तिजा भी थी — इसमें 2122 के बजाय आपने 21222 कर दिया है या…"
Sep 28
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"आदरणीय संजय शुक्ला जी, बहुत अच्छी ग़ज़ल है आपकी। इस हेतु बधाई स्वीकार करे। एक शंका है मेरी —…"
Sep 28
Nilesh Shevgaonkar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"धन्यवाद आ. चेतन जी"
Sep 28
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"आदरणीय ग़ज़ल पर बधाई स्वीकारें गुणीजनों की इस्लाह से और बेहतर हो जायेगी"
Sep 28
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"बधाई स्वीकार करें आदरणीय अच्छी ग़ज़ल हुई गुणीजनों की इस्लाह से और बेहतरीन हो जायेगी"
Sep 28

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service