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आकलन:अन्ना आन्दोलन भारतीय लोकतंत्र की समस्या और समाधान: --- संजीव 'सलिल'

आकलन:अन्ना आन्दोलन

 

 

भारतीय लोकतंत्र की समस्या और समाधान:

 

-- संजीव 'सलिल'

*

अब जब अन्ना का आन्दोलन थम गया है, उनके प्राणों पर से संकट टल गया है यह समय समस्या को सही-सही पहचानने और उसका निदान खोजने का है.

 

सोचिये हमारा लक्ष्य जनतंत्र, प्रजातंत्र या लोकतंत्र था किन्तु हम सत्तातंत्र, दलतंत्र और प्रशासन तंत्र में उलझकर मूल लक्ष्य से दूर नहीं हो गये हैं क्या? यदि हाँ तो समस्या का निदान आमूल-चूल परिवर्तन ही है. कैंसर का उपचार घाव पर पट्टी लपेटने से नहीं होगा.

 

मेरा नम्र निवेदन है कि अन्ना भ्रष्टाचार की पहचान और निदान दोनों गलत दिशा में कर रहे हैं. देश की दुर्दशा के जिम्मेदार और सुख-सुविधा-अधिकारों के भोक्ता आई.ए.एस., आई.पी.एस. ही अन्ना के साथ हैं. न्यायपालिका भी सुख-सुविधा और अधिकारों के व्यामोह में राह भटक रही है. वकील न्याय दिलाने का माध्यम नहीं दलाल की भूमिका में है. अधिकारों का केन्द्रीकरण इन्हीं में है. नेता तो बदलता है किन्तु प्रशासनिक अधिकारी सेवाकाल में ही नहीं, सेवा निवृत्ति पर्यंत ऐश करता है.

 

सबसे पहला कदम इन अधिकारियों और सांसदों के वेतन, भत्ते, सुविधाएँ और अधिकार कम करना हो तभी राहत होगी.

 

जन प्रतिनिधियों को स्वतंत्रता के तत्काल बाद की तरह जेब से धन खर्च कर राजनीति  करना पड़े तो सिर्फ सही लोग शेष रहेंगे.

 

चुनाव दलगत न हों तो चंदा देने की जरूरत ही न होगी. कोई उम्मीदवार ही न हो, न कोई दल हो. ऐसी स्थिति में चुनाव प्रचार या प्रलोभन की जरूरत न होगी. अधिकृत मतपत्र केवल कोरा कागज़ हो जिस पर मतदाता अपनी पसंद के व्यक्ति का नाम लिख दे और मतपेटी में डाल दे. उम्मीदवार, दल, प्रचार न होने से मतदान केन्द्रों पर लूटपाट न होगी. कोई अपराधी चुनाव न लड़ सकेगा. कौन मतदाता किस का नाम लिखेगा कोई जन नहीं सकेगा. हो सकता है हजारों व्यक्तियों के नाम आयें. इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा. सब मतपत्रों की गणना कर सर्वाधिक मत पानेवाले को विजेता घोषित किया जाए. इससे चुनाव खर्च नगण्य होगा. कोई प्रचार नहीं होगा, न धनवान मतदान को प्रभावित कर सकेंगे.

 

चुने गये जन प्रतिनिधियों के जीवन काल का विवरण सभी प्रतिनिधियों को दिया जाए, वे इसी प्रकार अपने बीच में से मंत्री चुन लें. सदन में न सत्ता पक्ष होगा न विपक्ष, इनके स्थान पर कार्य कार्यकारी पक्ष और समर्थक पक्ष होंगे जो दलीय सिद्धांतों के स्थान पर राष्ट्रीय और मानवीय हित को ध्यान में रखकर नीति बनायेंगे और क्रियान्वित कराएँगे.

 

इसके लिये संविधान में संशोधन करना होगा. यह सब समस्याओं को मिटा देगा. हमारी असली समस्या दलतंत्र  है जिसके कारण विपक्ष सत्ता पक्ष की सही नीति का भी विरोध करता है और सत्ता पक्ष विपक्ष की सही बात को भी नहीं मानता.

 

भारत के संविधान में अल्प अवधि में दुनिया के किसी भी देश और संविधान की तुलना में सर्वाधिक संशोधन हो चुके हैं, तो एक और संशिधन करने में कोई कठिनाई नहीं है. नेता इसका विरोध करेंगे क्योकि उनके विशेषाधिकार समाप्त हो जायेंगे किन्तु जनमत का दबाब उन्हें स्वीकारने पर बाध्य कर सकता है. 

 

ऐसी जन-सरकार बनने पर कानूनों को कम करने की शुरुआत हो. हमारी मूल समस्या कानून न होना नहीं कानून न मानना है. राजनीति शास्त्र में 'लेसीज़ फेयर' सिद्धांत के अनुसार सर्वोत्तम सरकार न्यूनतम शासन करती है क्योंकि लोग आत्मानुशासित होते हैं. भारत में इतने कानून हैं कि कोई नहीं जनता, हर पाल आप किसी न किसी कानून का जने-अनजाने उल्लंघन कर रहे होते हैं. इससे कानून के अवहेलना की प्रवृत्ति उत्पन्न हो गयी है. इसका निदान केवल अत्यावश्यक कानून रखना, लोगों को आत्म विवेक के अनुसार कार्य करने की स्वतंत्रता देना तथा क्षतिपूर्ति अधिनियम (law of tort) को लागू करना है.

 

क्या अन्ना और अन्य नेता / विचारक इस पर विचार करेंगे?????????????...

 

Acharya Sanjiv Salil

 

**********

 

 

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Replies to This Discussion

आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल मंगलवार के चर्चा मंच पर भी की गई है! यदि किसी रचनाधर्मी की पोस्ट या उसके लिंक की चर्चा कहीं पर की जा रही होती है, तो उस पत्रिका के व्यवस्थापक का यह कर्तव्य होता है कि वो उसको इस बारे में सूचित कर दे। आपको यह सूचना केवल इसी उद्देश्य से दी जा रही है! अधिक से अधिक लोग आपके ब्लॉग पर पहुँचेंगे तो चर्चा मंच का भी प्रयास सफल होगा।

माननीय!
आपके औदार्य का आभार शत-शत. चर्चा मंच पर इसे प्रस्तुत कर आपने उत्साह बढ़ाया और आशीर्वाद दिया, मैं अनुग्रहीत हूँ.
Acharya Sanjiv Salil

आचार्य जी आपने एक ज्वलंत मुद्दे को उठाया यह समय की  मांग है कि अब इन मुद्दों से जी न चुराकर इनपर चर्चा की जाए और समाधान निकाला जाए !

अरुण जी!
अब निष्पक्ष आकलन और सही कदम उठाने का समय है, हम चूकेंगे तो भावी पीढ़ियाँ हमें क्षमा नहीं करेगी. रूचि लेने के लिये आपका आभार.
Acharya Sanjiv Salil

अपने अपने गिरहबान में झाँकने का समय आ गया है.कब तक दुसरे को दोषी बना कर खुद
को सुरक्षित करते रहेंगे.अभी तो अन्ना की नैतिक दादागिरी ही झेलनी पद रही है.आगे का
समय और भी भयानक हो सकता है जब कोई भी दाऊद,अफज़ल या ठाकरे पूरे देश को
या देश के किसी हिस्से को बंधक बना कर व्यवस्था को ठेंगा दिखा देगा.और संसदीय
प्रणाली को पलीता लगा देगा .१२० करोड़ जनसँख्या के देश में २०,३० हज़ार की भीड़
जोड़ कर , लोकप्रियता की पालकी पर सवार होकर अनशन की आड़ में धमकाता हुआ
एक नया प्रहसन करने वाला कोई भी व्यक्ति देश का उद्धारक बन सकता है....विचार करिए
देश सिस्टम की असफलता के मुहाने पर खड़ा है.पहले तो हमारे प्रतिनिधियों को परिष्कृत
होना होगा.जितनी भी संस्थाएं सुधार करने को बनी हैं उनका क्या हश्र है ये भी देखिये.
लोकपाल देश में कितना सुधार ला पायेगा इस पर भी विचार करने का समय है.स्वयं को बदले
बिना कोई व्यवस्था सफल नहीं होती.........

शील जी!
किसी नैतिक व्यक्तित्व का कदम उसकी उपस्थति में ही नैतिक होता है, अनुपस्थिति में पथ से भटक जाता है. बुद्ध के बाद बौद्ध, महावीर के बाद, जैन, गाँधी के बाद गाँधीवादी, लोहिया के बाद लोहियावादी, गोलवलकर के बाद संघ, जे.पी.के बाद सम्पूर्ण क्रांतिवादी आपने मूल आदर्शों पर कहाँ टिक पाये.?
कानून को ताडने की जनाभिलाषा एक समय या घटना पर नहीं थमती, रोजमर्रा की आदत का रूप ले लेती है. गाँधी के सत्याग्रही स्वतंत्रता के बाद असत्याग्रही बन गये. अन्ना के अनुगामी जब स्थान-स्थान पर ऐसे कदम उठाएंगे तोप्रशासनिक दमन का सामना नहीं कर सकेंगे. हश्र रामदेव जी से भी बुरा होगा. उस भीड़ में कितने अन्ना की तरह पाक-दामन हैं?
अन्ना ने जो किया वह सही और समय की माँग है पर उसे बार-बार दोहराया नहीं जा सकता.
इस संक्रमण काल में दलगत राजनीति पूरी तरह असफल सिद्ध हुई है और राजनेता बौने साबित हुए हैं. वाक् चातुर्य से श्रोता को मोहित किया जा सकता है,सत्य को झुठलाया नहीं जा सकता.
Acharya Sanjiv Salil

अश्विनी जी!
आपके तमाम प्रश्नों के उत्तर रोज अख़बारों और दूरदर्दर्शन समाचारों में होते हैं.

दूसरा प्रश्न यह कि चुनाव मे अथवा बहुमत यदि कम हो तो, खरीद फरोख्त का जो कार्य होता है ,वह धन कहाँ से आता है ? क्या वह अधिकारी देते हैं अथवा बड़े बड़े उद्योगपति और व्यापारिक घराने ? यदि हाँ तो फ़िर लोकपाल इन  पर कैसे प्रभावी होगा ?
चुनावी खरीद-फरोख्त का बहुमत कम-अधिक होने से कोई सरोकार नहीं है. चुनावों के लिये धन जमा करने के विशेषज्ञ हर दल में हैं. अमरसिंह जी मुलायमसिंह यादव के दल के धन प्रबंधक ही थे. यह धन कोई स्वेच्छा से नहीं देता. हर जिले में पदस्थ हर उच्चाधिकारी (न्यायाधीशों के छोड़कर) से किसी न किसी बहाने धन  जुटाया जाता है,जो न दे उसे कार्यालय संलग्न या कम महत्त्व के पद पर रखा जाता है. उद्योगपति और बड़े घराने चुनावी चंदा हर दल को देते हैं कि किसी की भी सरकार बने उनका वजन बाना रहे. लोकपाल इनका कुछ नहीं कर सकेगा. सरकार अपनी कठपुतली को लोकपाल बना देगी. इसी कारण दलविहीन सरकार हो तो बिना किसी महत्वाकांक्षा या चुनावखर्च के चुने गये जन-प्रतिनिधियों को लालच न होगा.

तीसरा प्रश्न : जमाखोरों, दलालों और कालेधन वाले क्या आपकी नज़रों मे छोटे भ्रष्टाचारी हैं ?

जी नहीं.जमाखोर, दलाल, तथा कालेधनवाले एक दिन में नहीं बने. इन्हें भ्रष्ट राजनीति ने संरक्षण देकर आपने हित साधन हेतु बढ़ाया और पाला है. राजनीति शुद्ध होगी तो प्रशासन बिना किसी दबाव के कार्यवाही कर सकेगा और क्रमशः ऐसे तत्व नष्ट हो जायेंगे.

चौथा प्रश्न: नेताओं और उद्योगपतियों की सांठगांठ क्या छोटे स्तर का भ्रष्टाचार है? यदि नहीं तो इन पर कोई क्योँ नहीं बोलता ?

नेताओं और उद्योगपतियों की सांठ-गांठ आज की नहीं है. गाँधी जी के आन्दोलन को ब्रिटेन की संसद में वे सांसद चर्चा का विषय बनाते थे जिन्हें बिरला द्वारा धन मुहैया कराया जाता था. अन्य नेताओं की भूमिका की तुलना में गाँधी-नेहरू आदि जो अंग्रेजों के अनुकूल थे, को अधिक महत्त्व दिया जाता था. प्रखर देशभक्त नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की तुलना में गाँधी और कोंग्रेस को अंग्रेजों ने पाला-पोसा. फलतः स्वतंत्रता के बाद भी भारत कोमनवैल्थ में बना रहा और अंग्रेजों का पिछलग्गू बना रहा. यहाँ तक कि नेता जी के जीवित रहते हुए ही उन्हें दिवंगत मान लिया... और द्वितीय विश्व युद्ध का अपराधी मानने की संधि कर उन्हें प्रगट नहीं होने दिया गया.

नेताओं और उद्योगपतियों की सांठगांठपर हमेशा ही सवाल होते रहे हैं.

पांचवा प्रश्न: अहम बात की कानून बनाने से क्या भ्रष्टाचार रुक जाएगा ? आजतक भी जो प्रभावी कानून भी बने ,उनसे भी कितना सुधार हुआ? क्या कानून को लागू करने वाले और उस पर अमल करने वाले कोई और ही लोग होंगे या यही? यदि यही होंगे तो कानून क्या जादू की छड़ी है जो भ्रष्टाचार रोक देगी ?

कानून बनाने से नहीं दलीय प्रणाली को समाप्त करने से भ्रष्टाचार कम होगा. भ्रष्टाचार केवल आर्थिक नहीं, सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक, नैतिक, शैक्षिक आदि-आदि भी होता है. आप हर नियम विरुद्ध कार्य को भ्रष्टाचार कह सकते हैं. चौराहे पर लालबत्ती में वाहन ले जाना भी भ्रष्टाचार ही है. मंदिर में इच्छापूर्ति हेतु प्रसाद चढ़ाने के पीछे कौन सी भावना है? इसलिये भ्रष्टाचार को समाप्त नहीं नियंत्रित करना लक्ष्य हो. राम राज्य में सीता पर मिथ्या आरोप लगाना भी तो भ्रष्टाचार था जिसके शिकार खुद राम हो गये थे.

कानून अपना काम करेगा तभी जब नेता, अधिकारी और जनता कानून को माने. आज तो हर कोई कानून को तोड़कर चाहता है कि दूसरे उसे मानें. नेता और अधिकारी खुद को कानून से ऊपर समझते हैं.

छटा प्रश्न : यह मध्यम वर्गीय शहरी लोग किसान ,मज़दूर की बात क्योँ नहीं करते जो आज सबसे ज्यादा शोषित और कमज़ोर है ? क्या यह सच नहीं कि इस मध्यम वर्ग ने केवल तवे मे पड़ी गोल रोटी देखी है पर यह नहीं जानता कि इस रोटी को थाली तक पहुँचाने में किसान और खेत मज़दूर का कितना खून पसीना बहा है ? किसान मज़दूर इस देश का ७० प्रतिशत है, क्या यह लड़ाई का कोई मुद्दा ही नहीं?

कोई भी व्यक्ति वही बात कर सकता है जो उसकी जानकारी में हो. सर्वज्ञ कोई भी नहीं है. अधिकार की लडाई पीड़ित को खुद लड़ना होती है. अधिकार थाली में परोसे नहीं जाते... परोस दोए जाएं तो उसकी कीमत नहीं होती.. जैसे मताधिकार की लोगों की नज़र में कोई कीमत नहीं है.

मध्यमवर्गीय व्यक्ति अपनी बात करता है... किसान भी... गूजर और जाट किसान पूरी राजनीति संचालित कर रहे हैं. दलित वर्ग भी पीछे नहीं है... मायावती इसी वर्ग की देन हैं. खून तो केवल सैनिक बहाता है. किसान-मजदूर पसीना बहाता है किन्तु पूंजीगत संसाधन, यंत्र, तकनीक आदि न हो तो क्या कर सकेगा? आर्थिक गतिविधि के विविध अंग एक-दूसरे के पूरक हैं. श्रमिक को शोषित और शेष समाज को शोषक बताना साम्यवादी अवधारणा का भ्रम है. क्या माध्यम वर्ग की स्त्री को भी शोषित नहीं कहा जाता? विस्मय यह कि शोषित-शोषक की अवधारणा पालनेवालों के घरों और कारखानों में भी स्त्री-मजदूर उसी भूमिका में हैं जिसमें अन्यत्र पर परदोष दर्शन की मनोवृत्ति खुद की ओर देखने का अवसर ही नहीं देती. अस्तु...

इन तमाम प्रश्नों के उत्तर क्या आपके पास  हैं ?

प्रश्न के उत्तर प्रश्नकर्ता के ही पास होते हैं. प्रायः अन्य को परखने के लिये प्रश्न किये जाते हैं. प्रश्न का मूल जिज्ञासा हो तो उसका समाधान अन्यत्र से पाया जा सकता है कितु प्रश्न करने का मूल अपनी विद्वता सिद्ध करना या अन्य को परखना हो तो उत्तर या तो मिलता नहीं या मिले भी तो समाधानकारक प्रतीत नहीं होता.

मैं कोई सिद्ध नहीं हूँ कि सब प्रश्नों के उत्तर दे सकूँ, न मैंने ऐसा दावा किया है.... इस देश के एक अदना आम नागरिक के नाते मैंने आपने विचार सबके साथ बाँटे हैं. आपने इनमें रूचि ली आभारी हूँ. आप भी आपने विचार साझा करें... नागरिक मौन होता है तो नेता बोलता है. जरूरत है कि हम सुचिंतित तथ्य सामने लायें और नेता से मनवायें ... यही तो अन्ना ने भी किया है... *

Acharya Sanjiv Salil

अश्विनी जी!
आपने चर्चा में रूचि ली, धन्यवाद.
निस्संदेह आज बहुतांश अधिकारी भ्रष्ट हैं. आप भष्टाचार की परिभाषा या सीमा क्या करते हैं उस पर संख्या निर्भर करेगी... पर किसी भी दृष्टि से देखें यह कटु सत्य है कि दुर्भाग्य से हम भ्रष्टतम देशों में हैं. देश में नियंत्रण किसी एक का नहीं है,होना भी नहीं चाहिए. मैं स्वयं प्रशासन तंत्र का एक नन्हा पुर्जा हूँ, इसलिए जानता हूँ कि शासन-प्रशासन तंत्र आकंठ भ्रष्टाचार में डूबा है. हर दाल की हर सरकार प्रशासन तंत्र का उपयोग आपने हित-साधन के लिये करती है. यदि अच्छे-बुरे में ५०-५० प्रतिशत का अनुपात होता तो वर्तमान जनाक्रोश और आर्तनाद न होता. यह अनुपात ५-९५ है. व्यवस्था चल नहीं रही घिसत रही है वह भी भगवान भरोसे.

अश्विनी जी!
 आपने  पहले भी कहा है कि generalisation (samanyikaran)  करना ही पहले अपने आप में ठीक नहीं है क्योंकि इस संसार में हर व्यक्ति का कर्म अलग है ! फ़िर इस generalisation पर जो निचोड़ अथवा निष्कर्ष निकाले जाते हैं वह कैसे ठीक हो सकते हैं !
फिर भी आप हिमाचल प्रदेश और अन्यत्र के आपने अनुमानित आंकड़ों को सब पर लागू कर रहे हैं. क्या यह सामान्यीकरण करना नहीं है?
इसलिए आपका यह दृष्टिकोण कोरा कल्पनात्मक है !
यह तो मैं भी आपके दृष्टिकोण के लिये कह सकता हूँ. अगर सामनेवाले के तर्क को नकारना ही लक्ष्य है तो चर्चा संभव नहीं हो सकेगी.
आपका कहना कि चुनाव के लिये पैसा नेता अधिकारियों के माध्यम से करतें हैं, भी सही नहीं! नेता इतने बुद्धू नहीं होते कि अपनी कमजोरियों का पता किसी को लगने दे और वह भी अधिकारी जो कानून से अपनी रक्षा करना खूब जानते हैं !
हर कलेक्टर यही काम करता है, विविध विभाग प्रमुखों से धन उगाह कर सत्ता दल को देता है, इसलिए चुनाव के ठीक पहले हर जिले में मनपसंद कलेक्टर, एस. पी. आदि  की पदस्थापना मुख्य मंत्रियों द्वारा की जाती है.  आर.टी.ओ. रैलियों के लिये गाड़ियाँ जुटाता है. यदि आप सर्व ज्ञात सच भी नहीं जानते तो आपके आकलन का सत्य से दूर होना स्वाभाविक है.

दूसरा प्रश्न : इसका उत्तर काफी हद तक आपने अब दे दिया है !

तीसरा प्रश्न: इसका उत्तर भी काफी हद तक आपने अब दे दिया है !

चौथा प्रश्न : इसका उत्तर आपने सही नहीं दिया! कानून  बनाए रखने के लिये देश का हर नागरिक बराबर का जिम्मेदार होता है और जवाबदेह भी !

 न तो मैं परीक्षार्थी हूँ, न आप परीक्षक जो मेरे मत को सही या गलत करार दें. आपकी दृष्टि में आप सही हैं, मेरी दृष्टि में मैं. चर्चा का उद्देश्य किसी की हाँ में हाँ मिलाना नहीं हो सकता. सभी को अपनी-अपनी बट कहने का पूरा अधिकार है तथा अन्यों को उस पर सोचना चाहिये.

पाँचवा प्रश्न :यह भी उपरोक्त ही है !

 छठा प्रश्न:

                     यहाँ बात किसी वाद की नहीं है बल्कि मुख्य बात यह है कि जो देश का ७० प्रतिशत है, उसके हित के लिए क्या किया गया?

(आँख खोलकर देखें सन ४७ से आज तक व्यापक परिवर्तन हुआ है गाँवों को प्राप्त सुविधाओं में- सड़क, शिक्षा, स्वास्थ्य, विद्युत्, उर्वरक, कृषि आदि हर क्षेत्र में सुविधाएँ प्रदान की गयी हैं.)

किसानो पर ट्रेड यूनियन का विचार या जाट नेताओं का विचार  आपने  कहाँ से लाया?

(यह तो नंगी सचाई है जो हर अखबार और समाचार चैनेल बताती हैं.)

किसान ही इस देश में ऐसा बेचारा रह गया है, जो संग्गठित नहीं और जिसका संगठित होना भी बड़ा मुश्किल है! किसान का अस्थायी एक छोटा सा हिस्सा इतने बड़े हिस्से की लड़ाई नहीं लड़ सकता !

(चौधरी चरणसिंह और टिकैत क्या किसानों के नेता नहीं थे? क्या उन्होंने किसानों को संगठित नहीं किया?)

इसलिए आप अच्छे अनुभवी एवम बहुत व्यवहारिक नहीं बल्कि केवल किताबें पढें हैं, जबकि मैंने खेत मैं खूब पसीना बहाया है !

(चर्चा में सबको अपना मत व्यक्त करना चाहिए. अच्छे या बुरे होने का फतवा जारी करने का हक किसी को नहीं है. मुझे आपसे किसी तरह का प्रमाण पत्र नहीं चाहिए.   किसानों के राजनैतिक वर्चस्व को नकारना सत्यता से परे है. भारत की राजनीति में सर्वाधिक नेता किसानी पृष्ठ भूमि से हैं. )

अंतिम पैरा मैं कुछ शब्द आपने अच्छे लिखें हैं ! परन्तु आप मेरे एक वाक्य में ही सार समझ लें कि इस देश की व्यवस्था बनाना हर नागरिक का कर्तव्य है,और जब तक हर नागरिक इस देश में अपनी अपनी जगह एक जिम्मेदार नागरिक होकर ईमानदारी से अपने कर्तव्य का निर्वाह नहीं करेगा, तब तक इस देश की व्यवस्था के सुधरने की आशा करना ही सही नहीं  होगा ! हाँ हर सामाजिक व्यवस्था में कुछ अपवाद जो रहतें हैं,उनको फ़िर कानून दंड विधान द्वारा संभाल सकता है !

(आप न तो धर्मोपदेशक हैं, न चिन्तक... चर्चा में सब सहभागी समान होते हैं और सब एक-दूसरे के मत को सुनते, गुनते, और समझतेहैं. यदि कोई एक अपने मत को सब पर थोपना चाहे तो कोई उसमें सहभागी होगा ही क्यों? आप अपनी बात कहें अन्यों पर व्यक्तिगत आक्षेप न करें.)


आदरणीय अश्विनीजी,

आपके विचार आपके हैं. आपने अपना मत रखा है. आपका आभार.

इस मत से सहमत और असहमत दो वर्ग होंगे. चर्चा तभी संतुलित होती है और आशय सदा यह हुआ करता है कि कुछ परिणाम या परिणाम-विन्दु बहिर्गत हों. विन्दुवत् परिणाम न निकल पावें तो भी एक ऐसी सहमति अवश्य बने जो दोनों पक्ष को संतुष्ट कर सके.

किन्तु एक अलहदा वर्ग ऐसा भी होता है जो प्रस्तुत विन्दुओं के न तो पूर्णतया पक्ष में होता है न ही विपक्ष में या विरुद्ध. उसे दोनों पक्षों की कुछ बातें स्वीकार्य होती है और दोनों ही पक्षों की कई बातें अस्वीकार्य.

 

आपने संभवतः अपने दैनिक-जीवन के कई क्षण वैचारिक संप्रेषण में बिताये होंगे. किन्तु, मैं आपसे सादर साझा करना चाहता हूँ कि कृपया अपने को अपने विचारों के क्रम में आरोपित न करें.

ओबीओ के कारण ही, आपको अभी तक परिचर्चाओं को प्रारम्भ करते, कुछ पर कुछ कहते, अपना मत व्यक्त करते, हमने बड़े गौर से पढ़ा और सुना है. कहना न होगा,  मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई है कि आप जैसा उद्भट्ट सदस्य अपने मध्य वैचारिक रूप से उपस्थित है. 

किन्तु, सर्वप्रथम हम यह अवश्य जानें   --और उसका समीचीन संप्रेषण भी हो--   कि, हमारा मूल-आशय वस्तुतः है क्या.   अन्यथा, हमारे द्वारा सदा-सदा रक्षा में हत्या   होती रहेगी.

 

आदरणीय, वैचारिक रूपसे संतृप्त होना तथा उन विचारों का सलीके से संप्रेषित होना दोनों दो तरह की बातें हैं. इसे न निभाया जाना, चाहे संप्रेषण का निहितार्थ कितना ही सात्विक क्यों न हो, व्यक्तिगत आरोप के अंतर्गत आ जाता है, जिसका होना पतंजलि द्वारा उद्घोषित कार्य-भंगूरता के मानकों के अनुसार  प्रमाद, अविरति तथा भ्रांतिदर्शन के अंतर्गत आता है.

दूसरे, संप्रेष्य के मनोनुकूल न होने पर सत्य का लिहाज स्वतः ही गिर जाता है, जिस सत्य के आप ऊर्जस्वी आग्रही प्रतीत होते हैं.

मेरा स्पष्ट मानना है कि वैचारिकता सोद्येश्य संप्रेषित हो और हम जैसों को लाभान्वित करती रहे.

 

सादर.

न ब्रुयात् सत्यंऽप्रियम्.. .

सत्य की अवधारणा कभी भी अव्यावहारिक प्रक्रिया से नहीं सधती, न  ही संचालित होती है.  ऐसा भी नहीं होता कि सत्य का संप्रेषण कभी भी पीड़क होता है.   इसी लिहाज से मैं  भी कुछ कहता हूँ. लेकिन सत्य है ही क्या? सारा कुछ.. सारा कुछ तो सापेक्ष है ! अतः सत्य अवश्य ही एक है !  ईषावास्यमिदं सर्वं यत्किञ्च्यजगत्यांजगत.. सब कुछ, सारा कुछ बस एक.  फिर, आदरणीय,  अभी तक या कभी तक की बात ही नहीं होनी न ! 

 

आप कहें, अवश्य कहें.  किन्तु आपका कहा क्या इतना निर्लंघ्य हो कि संपृक्तता की रेख ही खिंच जाय !  फिर चर्चा किनके लिये ? केवल वैयक्तिक रूप से मान्य विन्दुओं को अनुमोदित करवाने के लिये ?  ऐसा तो आपभी नहीं चाहेंगे न, आदरणीय !

 

आचार्यवर ने जो बात कही है, वह मात्र एक इशारा है और उनके इंगित को उनके विचार-समुच्चय का इन्स्टिगेशन   समझ कर स्वीकार करना चातुर्य होता जिसकी सभी वरिष्ठ सदस्यों से अपेक्षा थी. चूँकि उनके कहे की पृष्ठभूमि सार्वभौमिक होगयी है अतः यह नहीं मान लूँगा कि उनका कहा हुआ इतना अतुकांत हो गया है कि आप से उनके प्रति आप अच्छे अनुभवी एवम बहुत व्यवहारिक नहीं बल्कि केवल किताबें पढें हैं, जबकि मैंने खेत मैं खूब पसीना बहाया है ! अंतिम पैरा मैं कुछ शब्द आपने अच्छे लिखें हैं !   जैसे वाक्य का प्रयोग करें ?  मेरे सामने यह पाप हो रहा है और मै किंकर्त्तव्यविमूढ़वत्  व्यवहार कर रहा हूँ.  इस तरह के वाक्य किन्हें संतुष्ट कर रहे हैं ?

आचार्यजी के कहे को हम मात्र सम्मान ही नहीं देते बल्कि हमसभी अपनी समझ को संतुष्ट करते हुए उनके कहे से स्वयं को अनुमोदित भी करते हैं. 

 

आदरणीय अश्विनीजी, आपने अध्ययन किया है.  यह आपकी प्रविष्टियों और प्रतिक्रियाओं से झलकता भी है. लेकिन उस अध्ययन से चर्चा ही समाप्त करने की नौबत आ जाय और बार-बार ऐसा होने लगे तो इस अध्ययन से किसका भला होगा ?

व्यक्ति के ज्ञान को भक्ति और श्रद्धा का कलेवर न मिले तो व्यक्तित्त्व के अंतःकरण का चौथा प्रारूप साकार हो उठता है. यह तो किसी दृष्टि से उचित स्थिति नहीं होगी न !

 

मान्यवर, कत्तई अन्यथा न लेंगे,  इसी ओबीओ की एक परिचर्चा में आपकी प्रतिक्रियाओं से संप्रेषित भाव पर प्रश्न उठ चुका है जिसे मैंने अपनी क्षुद्र समझ भर से अपेक्षित आयाम देदिया था.  आपसे सादर अपेक्षा है कि आप कृपया मेरे उन विन्दुओं को अनुमोदित कर मुझे सबल करें ताकि मैं अपने सदस्यों के मध्य सदा स्वीकृत रहूँ,  ऐसा नहीं, कि सदा-सदा आपका पक्ष लेता हुआ दीखूँ. 

आप इस मंच पर आये हैं और हमारे लिये आपका होना आनन्द और हर्ष का विषय है. हम सभी बहुत ही प्रसन्न हैं.  किन्तु, आप अन्य सदस्यों के प्रति, वह भी वरिष्ठतम सदस्यों के प्रति,  परिचयात्मक प्रश्न उठा देंगे तो विश्वास कीजिये हममें से किसी को स्वीकार्य नहीं होगा. 

आचार्यवर सलिलजी के अनुभव और अध्ययन जन्य ज्ञान से हमसभी प्रतिपल धनी होते रहे हैं. और, हम इस लाभ से मुग्ध हैं. चर्चा-परिचर्चा इस लिहाज से बहुत न्यून बातें है.

विश्वास है, आदरणीय, आप मेरे आशय को समझ रहे होंगे. मुझे मान देकर अनुगृहित करेंगे.   कहना नहीं होगा, मैं ओबीओ पर आपकी उपस्थिति से आनन्दातिरेक में हूँ.

 

सादर

 

आप सदस्यों से पूर्व में भी आग्रह किया जा चूका है और पुनः स्मारित करते हुए कहना है कि किसी भी चर्चा-परिचर्चा, वाद-प्रतिवाद में व्यक्तिगत आक्षेप और व्यक्तिगत मूल्यांकन से बचे, प्रतिउत्तर संतुलित व मर्यादित हो |

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माँ के आँचल में छुप जातेहम सुनकर डाँट कभी जिनकी।नव उमंग भर जाती मन मेंचुपके से उनकी वह थपकी । उस पल…See More
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Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116
"हार्दिक स्वागत आपका और आपकी इस प्रेरक रचना का आदरणीय सुशील सरना जी। बहुत दिनों बाद आप गोष्ठी में…"
Nov 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116
"शुक्रिया आदरणीय तेजवीर सिंह जी। रचना पर कोई टिप्पणी नहीं की। मार्गदर्शन प्रदान कीजिएगा न।"
Nov 30
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116
"आ. भाई मनन जी, सादर अभिवादन। सुंदर रचना हुई है। हार्दिक बधाई।"
Nov 30
Sushil Sarna replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116
"सीख ...... "पापा ! फिर क्या हुआ" ।  सुशील ने रात को सोने से पहले पापा  की…"
Nov 30
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-116
"आभार आदरणीय तेजवीर जी।"
Nov 30

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