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घटनाक्रम बहुत मार्मिक और यथार्थवादी परिदृश्य पर टिका है ,समर कबीर जी। आपकी आँख बहुत पैनी है ,बेशक।
गड़बड़ थोड़ी सी ( गोष्ठी के विषय को देखें तो ) यह हो गई क़ि इसमें आकांक्षा की जगह महत्वाकांक्षा आ घुसी।
दोनों में वही अंतर है जो पुण्य और पाप में होता है।
इतना जुल्म न करें , बहना।
यह रचना ( गोष्ठी के शीर्षक को भूल जाएं ) तो बहुत अच्छी है।
यह लघु भी है और कथा भी है
आदरणीय कबीर जी आप ने कथानक बहुत उम्दा चुना है. पर , कथा कही अधूरी लग रही है. शायद आकांक्षा पर पूरी नहीं बैठ पाई. सादर.
मोहतरम समर कबीर साहिब, आपको लघुकथा कहते हुए देखना जाती तौर पर मेरे लिए बेहद बायस-ए-मसर्रत है I आपकी इस रचना पर सुधि साथियों ने अपनी राय ज़ाहिर की है, में भी अपनी बात तफसील से बाद में करूंगा I दरअसल, आपकी इस लघुकथा को देख कर मुझे अस्सी के दशक का वह ज़माना याद आ गया, जब मैंने पहली दफा पंजाबी भाषा में लघुकथा कही थी I तब हमारे पटियाला शहर के एक प्रसिद्ध साहित्यकार ने बेहद खुश होकर लोगों को बताया था कि "देखो ! आज हम हिंदी ग़ज़ल कहने वाले को भी पंजाबी लघुकथा में ले आए !" आप जैसे ग़ज़ल और इल्म-ए-अरूज़ के विद्वान् को लघुकथा में कलम आजमाई करते देख मेरे जैसे लघुकथा के आशिक के दिल की कैफियत क्या होगी, यह आप भी अच्छी तरह समझ रहे होंगे I ढेरों ढेर शुभकामनाएं स्वीकारें साहिब !
वाह प्रभाकर जी !
दो और दो को आपने चार तो कहा ही , कबीर को जो सहारा दिया ,काबिल -ए -तारीफ है।
गोष्ठी का संचालन सही हाथों में है
//कबीर को जो सहारा दिया//
क्षमा सहित आ० प्रदीप नील जी, शायद आप प्रोफाइल में इनका जन्म वर्ष देख कर आ० समर कबीर को कोई नौखेज़ समझ रहे हैं I आदरणीय समर कबीर साहिब उम्र में आपसे और इस नाचीज़ से भी बड़े हैं I उर्दू ग़ज़ल के साथ साथ इनका नाम बहुत ओबीओ परिवार में भी बहुत अदब-ओ-एहतराम के साथ लिया जाता है I अत: आपका इन्हें सिर्फ कबीर कह कर संबोधन करना अच्छा नहीं लगा I आशा है कि आप यह बात याद रखेंगे I सादर I
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