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मंच संचालक
राणा प्रताप सिंह
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खूँ दरिया में जब रंगों का गोता लगता है
रंग हरा हो या भगवा तब काला लगता है।
हम तुम कार्यालय से आते बच्चे शाला से
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है।
मरहम मलकर न्याय समझता ठीक हुआ शासन
लेकिन गहरा जख्म जहाँ हो टाँका लगता है।
अजब शजर ये भ्रष्ट जड़ें फैली हैं भारत में
दूर विदेशों में जाकर फल इसका लगता है।
रंग बिरंगे झूठों से सजती हैं दूकानें
सच्चाई का सड़क किनारे ठेला लगता है।
ज्यादा फूल नहीं जाना भारत खाने वालों
अंत समय बस चार जनों का कंधा लगता है।
कुछ की भूख नहीं मिटती अरबों खरबों खाकर
कुछ को केवल मुट्ठी भरकर आटा लगता है।
कुछ की भूख नहीं मिटती अरबों खरबों खाकर,
कुछ को केवल मुठ्ठी भर ही आटा लगता है।
बेहतरीन शे'र , अच्छी ग़ज़ल बधाई धर्मेन्द्र जी।
हम तुम कार्यालय से आते बच्चे शाला से
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है।
bahut hi badhiya prastuti dharmendra sahab.....likhte rahen aisehi....aur aage ka bhi intezaar hai
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धर्मेन्द्र भैया बहुत खूब, हर शेर मुकम्मल और कमाल का तखय्युल
खूँ दरिया में जब रंगों का गोता लगता है
रंग हरा हो या भगवा तब काला लगता है।
एकदम सच्ची बात ....
हम तुम कार्यालय से आते बच्चे शाला से
शाम ढले इस सूने घर में मेला लगता है।
बहुत ख़ूबसूरत गिरह बंधी है
मरहम मलकर न्याय समझता ठीक हुआ शासन
लेकिन गहरा जख्म जहाँ हो टाँका लगता है।
अच्छा शेर
अजब शजर ये भ्रष्ट जड़ें फैली हैं भारत में
दूर विदेशों में जाकर फल इसका लगता है।
बहुत खूब ....बांटते रहो
रंग बिरंगे झूठों से सजती हैं दूकानें
सच्चाई का सड़क किनारे ठेला लगता है।
आये हाय...कातिलाना शेर है..
ज्यादा फूल नहीं जाना भारत खाने वालों
अंत समय बस चार जनों का कंधा लगता है।
एकदम पते की बात है
कुछ की भूख नहीं मिटती अरबों खरबों खाकर
कुछ को केवल मुट्ठी भरकर आटा लगता है।
सोचने को मज़बूर कर देने वाला शेर
एक मुकम्मल गज़ल के लिए बधाई|