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"चित्र से काव्य तक अंक -६ " : सभी रचनाएँ एक साथ :

श्री योगराज प्रभाकर

(प्रतियोगिता से अलग - पाँच कहमुकरियाँ )

(१)
जिन्हें मिले वो हैं बड़भागे

जिसको पाकर किस्मत जागे 

पा लो, बेशक लेकर भिक्षा,

ऐ सखी साजन ?  न सखी शिक्षा !  

(२)

नवजीवन संचार किया है 
रौशन सब संसार किया है,
मुझको राह नई दिखलाई
ऐ सखी साजन ? न सखी पढाई !

(३)
जब से इनको समझा जाना
लगता सब जाना पहचाना,
रोज़ मिलूँ उन्हें हंस हंसकर     
ऐ सखी साजन ? न सखी अक्षर !

(४)
दुनिया का गणित सिखलाया,
कम ज्यादा का फर्क बताया,
कभी न भूले - रब से बिनती   
ऐ सखी साजन ? न सखी गिनती !

(५)
मिलने में कुछ लाज भी आए,
बिन मिलने के रहा न जाए,
मिलूँ तो खिलते मन के फूल,  
ऐ सखी साजन ? न सखी स्कूल !

 

श्री इमरान खान 

"प्रतियोगिता से अलग"

चहुँओर देखो रे भय्या,
अब उजियारा फैला है।
मत पूछो ना पढ़ने से,
हमने क्या क्या झेला है।

हर रस्ता अनजान मिला,
जहाँ गये अपमान मिला,
गैरों का तो क्या कहना,
अपनो तक का तान मिला।
अब तो शिक्षा की सम्पत्ति से,
भरा हुआ ये थैला है,
मत पूछो न पढ़ने से
हमने क्या क्या झेला है।

मेरी पुत्रवधु देखो ये,
मुझको तो अनमोल मिली,
येही मुझको सिखलाती,
वन टू,
क ख ग और ए बी सी,
अभी गलत भी होता है,
दिन ये पहला पहला है,
मत पूछो ना पढ़ने से,
हमने क्या क्या झेला है।

चहुँओर देखो रे भय्या,
अब उजियारा फैला है।
मत पूछो ना पढ़ने से
हमने क्या क्या झेला है।

 

अम्बरीष श्रीवास्तव

(प्रतियोगिता से अलग)

कुण्डलिया:

(1)

कैसी थी वह जिन्दगी, कभी न पाया मान,
धन्यवाद बेटी तुम्हें,  पाया अक्षर ज्ञान,
पाया अक्षर ज्ञान, श्याम पट राह दिखाये,
खुला प्रतीक्षित द्वार, स्नेह के दीप जलाये,
जाना हमने आज, बहू भी बेटी जैसी. 
शब्द कराते मेल, दिलों में दूरी कैसी!!

(2)

(प्रतियोगिता से अलग)
आल्हा:

दूर करौ मन का अँधियारा, अब तो शिक्षा लेउ बसाय!
श्याम पट्ट पर उजले अक्षर, सबको आज रहे मनभाय !!

बुढ़िया नानी चश्मा पहिरे, घन-घन अक्षर रहीं बनाय!
बिटिया-बहुवैं पढ़ें पढ़ावें, जग सारा रोशन हुइ जाय!!

 

श्रीमती नीलम उपाध्याय

(प्रतियोगिता से अलग)

एक गीत –

काट निरक्षरता के बन्धन साक्षरता को लाना है ।

हे भारत जन पढ़ लिख कर भारत को स्वर्ग बनाना है ।
आओ पढें, आओ पढें, पढ़ लिख कर आगे बढें ।

 

शिक्षित होगा जब समाज तब अन्धकार मिट जाएगा ।
घर-घर में उजियारा होगा राष्ट्र प्रगति कर पाएगा ।
शिक्षा ही आधार मूल है अब ये हमने जाना है ।
हे भारत जन पढ़ लिख कर भारत को स्वर्ग बनाना है ।

 

मानवता का पाठ पढ़ाया शिक्षा ने ये क्यों भूलें ।
बहे ज्ञान की गंगा हरदम हम बढ़कर नभ को छू लें ।
पढ़े लिखे हों सभी नागरिक अब यह ध्येय हमारा है ।
हे भारत जन पढ़ लिख कर भारत को स्वर्ग बनाना है ।

 

मत शरमाओ आगे आओ अब शिक्षा को अपनाओ ।
गाँव-गाँव बस्ती-बस्ती में ज्ञान ज्योति को फैलाओ ।
अब ना कोई रहे निरक्षर यह संकल्प हमारा है ।
हे भारत जन पढ़ लिख कर भारत को स्वर्ग बनाना है ।

 

श्री सुरेंदर रत्ती

कुछ दरीचे बंद थे, कैसे आये महकती सबा,
उम्र के इस दौर का,  जोश बहुत अच्छा लगा
 
बढ गए उनके क़दम, कुछ सीखने की चाह में,
इल्म होगा कितना हासिल, वक़्त देगा इसका पता
 
कारवाँ गुज़र गया, ज़ोफ जिस्मो-जान  में,  
दमे आखिर कलम से, हो रही अब इब्तिदा
 
बेशुमार कलियाँ चमन में, तड़प रहीं, बेनूर भी,
ख़्वार होती जवानियाँ, पूछती सबसे जा-ब-जा
 
चंद सिक्कों की खनक में, हर इल्म कहीं खो गया,
अलिफ, बे ग़रीब  न जाने, जीना उनका इक सज़ा
 
हों मुसलसल कोशिशें, गर तरक्क़ी के वास्ते,
क्या मजाल हुनर की, सर झुकाए रहे पास खड़ा
 
मोहताज, नाचार बशर, सोती रही हुकूमतें,
"रत्ती" विरासत में मिला, तंगहाल टूटा मदरसा.

 

श्रीमती लता आर०  ओझा

कल वो टीचर जी आई रहिन

हम सबहीं के समझाए रहिन  

अंगूठा टीकब बंद करा ..

नाम लिखे का कहत रहिन  ..

हम पूछा उनसे ,तनिक कहा ..

हम नाम कहाँ अब लिख पाउब.

ई काला अछ्छर समझे का 

एह उम्र में बुद्धि का लाउब..

ओ समझाइन ,सब बुद्धि बा.

बस चाव पढ़े का होई चाहे ..

धीर धरा और सुरु करा .

सब धीरे धीरे आई जाए 

हम उनकर  बतिया मान लिहे 

और राम जी का नाम लिहे ..

क ख  ग से सुरु किहे.. अब  ..

आपन नामवा लिखे लगे ..

अब सब समझ में आवत है ..

इ दुनिया अधिक ही भावत है ..

अब ज्ञान हमहूँ के है थोडा ..

मोल भाव भी आवत है ..

कौनो न हमके ठग पावत ..

अब हमके लेन देन आवत ..

सबहीं से अब ये है विनती  ..

पढ़ जानो जो न है आवत  ..

पढ़े क कौनो उम्र नहीं ..

जब जागो तभे सवेरा है..

अब अकल भैंस से बड़ी लगे ..

इ सीधा अनुभव मेरा है ..

 

(2)

सुनते थे गुरु वाणी अक्सर .कुछ कुछ समझ में था आता ..

अपने गुरु से तब तक केवल ,राम नाम का था नाता ..

राम नाम का था नाता तो बस भक्ति थी ..

प्रभु के बाद बस  एक  गुरु की ही शक्ति थी .. 

लाख आग्रह किया सभी ने अब तो पढ़ लो ..

मन भी बोला 'सांझ' नए रंगों से गढ़ लो ..

पहले शर्म झिझक ने मेरा रस्ता रोका ..

युगों पुराने जर्जर नियमों ने भी टोका..

मन था व्याकुल जानने को पोथी में क्या है ..

एक बार करने में कोशिश हर्ज ही क्या है ..

और नहीं रुक पायी ,थामी स्लेट और खड़िया ..

हुई तैयार पहन के वस्त्र भी सबसे बढ़िया ..

था त्यौहार सा दिन ये भी जीवन का मेरे ..

पाठ पढूंगी ,नियम से मैं भी शाम सवेरे 

ठान लिया जब मन में तो फिर हिम्मत जागी ..

काले अक्षर ने मोहा ,मैं पढने लागी 

 


श्रीमती सुनीता शानू  

(१)

आओ बहनों पढ़-लिखकर ज्ञान कमायें सच्चा

उम्र हो गई अस्सी की,दिल तो है अभी बच्चा॥

 

सारा जीवन व्यर्थ गँवाया, जो पढ़ न पाये अक्षर

आज पढ़लें हम-सब मिल, मिला हमें ये अवसर

ज्ञान आँख की ऎसी ज्योति कम न होने पाये

जितनी बाँटो उतनी बढ़े ये मिट कभी न पाये

बनियें को भी डाँटेंगे जो हिसाब करेगा कच्चा

उम्र हो गई अस्सी की,दिल तो है अभी बच्चा॥

 

बहुओं की गिट-पिट भी आज समझ में आयेगी

नई पड़ौसन फ़िर कभी न अनपढ़ हमें बतायेगी

चींटू-पींटू, मिन्की-चिन्की, हमको कभी चिढ़ायेंगे

अपनी पुस्तक दिखला कर उनको पाठ पढ़ायेंगे

बात हमारी मानेगा अब घर का हर एक बच्चा

उम्र हो गई अस्सी की,दिल तो है अभी बच्चा॥

 

क ख ग घ सीखेंगी फ़िर इंग्लिश कक्षा की बारी

जोड़-घटाव, गुणा-भाग में न पिछडेगी अब नारी

गीता जी का पाठ करेंगे रामायण भी पढ़ पायेंगे

पढ़-लिख कर आओ बहनों अपना भविष्य बनायेंगे

अँगूठा नही लगायेंगे हम,न खायेंगे अब गच्चा

उम्र हो गई अस्सी की,दिल तो है अभी बच्चा॥

 

(२) 

एक नया उजाला लेकर

आई सुबह नई

खुशबू से लिपटी

अनगिन स्वप्न सजोंये

लो आई है सुबह नई

 

कँपकपातें हाथों ने

फ़िर थामा है बचपन

बुझी-बुझी इन आँखों में

फ़िर लहराया है बचपन

फ़िर खुले

खुशियों के दरवाजों से

आई सुबह नई

 

फ़िर इन बूढ़ी आँखों में

आशाओं की ज्योत जगी

कि उनके सपने होंगे पूरे 

आशायें सब पूरी 

हो पायेंगी

अब भारत की नारी

शिक्षित कहलायेगी

स्वर्णिम पल का

संदेश लिये

लो आई सुबह नई 

 

श्री रवि कुमार गिरी  

 

(1)

 

देखो भाई दादी ने, पढने की है ठानी ,

कंपकपाते हाथ, भले बुढ़ापे की निशानी !

बाबू खूब मैं पढूंगी , तन मन लगाई के ,

कलम चलाई के अब , पेंशन हैं उठानी , 

बहुत खुश हुए हम , अक्षर का ज्ञान कर ,

चौका बर्तन के साथ ही, कलम हैं चलानी ,

बेटी अनपढ़ थी मेरी , ना ही बहू पढ़ी थी

आयो सुधारे मिल के , ये गलतियाँ पुरानी !

 

 

(2)

आरे इआ का करतारु इस्लेटिया उठाई के , ( इआ - दादी )

हथवा ता कापत  बाटे पिनसिन उठाई के ,

बबुआ हम पढ़ात बानी मनवा लगाई के ,

उठाईब बिरधा पेंसन कलम चलाई के ,

बड़ा खुश बानी हम इ पाके इस्कुलिया ,

अब ता सुधारत बानी बचपन के भुलिया ,

बेटी न पढ़ल रहे नाही पढ़ल पतोहिया ,

आइल नातिनपतोह ता खोलालाख नजरिया ,

खोला ये लोग आँख अब बेटी के पढ़ाव ,

बेटा आउर बेटी में फरक ना ले आव ,

बेटी के अपना इन्द्रा रानी लक्ष्मी बनाव ,

बेटिया पढाई घर में खुशिया ले आव ,

का देखत बारू बहिनी तुहू कुछ लिखा ,

उमर ना बाधा होला आइके तू सिखा ,

अच्छा मौका आइल बा कलम उठाई के ,

चित्र से काव्य प्रतियोगिता में आई के ,

 

(3)

अज्ञान का तिमिर मिटा ,

ज्ञान के प्रकाश से ,

अबला सबला बनी ,

ज्ञान की फुहार से ,

सोच अब बदल रही ,

ज्ञान की पुकार से ,

सब मिल आगे बढ़ो ,

ज्ञान के वेग से ,

दादियाँ भी खुश हैं ,

पोतियों के ज्ञान से ,

भाव अब बना रहे ,

सोचना हैं ध्यान से ,

 

 

 

श्री प्रदीप कुमार साहनी

न सीमा है कोई उम्र की,

न रंग की कोई बाड़,

बच्चे से बूढ़े तक को है,

शिक्षा का अधिकार |

 

शिक्षा तो एक नेमत है,

एक अतुलनीय उपहार,

अशिक्षा एक गाली है,

जो लाए अंधकार |

 

संजय मिश्रा 'हबीब'

(1)

हाथों में खडिया नहीं, ये इक है सम्मान.

तख्ती इसको ना कहें, हम सबकी यह जान..

 

कहाँ सीखने की उमर, जब भी मिलता ज्ञान.

ले कर निज विश्वास को, पाने दें उत्थान.

 

जब भी आता भानु है, लाये संग विहान.

अंधियारे का आज मिल, हम भी हर ले प्राण.

 

भूतों का अज्ञान के, जमकर खींचे कान.

पग पग में कर जात है, जो अपना अपमान.

 

कुछ मिहनत, कुछ जोश भी, और ज़रा सा ध्यान.

अपने जीवन का रचें, स्वयम नया उनवान.

 

अक्षर अक्षय धन बने, अक्षर अपनी शान.

अक्षर मुख पर खिल उठे, बन मोहक मुस्कान.

 

(2)

तुम क्यूँ पीछे आज खड़े हो,

अपनी नज़र उठाओ ना

अआ, इई के पंख लगा कर,

गगन नाप के आओ ना

 

झिझको नहीं ज़रा सा भी तुम,

निज ताकत विश्वास करो

रंग उठा कर इंद्रधनुष से,

सपनों में खुद रंग भरो

तितली बन कर शब्द सुमन पर,

तुम भी तो इठलाओ ना 

अआ, इई के पंख लगा कर,

गगन नाप के आओ ना

 

बीत गया जो बीत गया वो

उसकी चिंता करना क्यों?

आगे आओ तुम भी जानों

ज्ञान है सुन्दर झरना क्यों?

अँधेरे से उजियारे तक

झरने सा झर जाओ ना

अआ, इई के पंख लगा कर,

गगन नाप के आओ ना

 

समय साध लो ज्ञान पहन कर

राहों का विस्तार बनो

अपना जीवन, अपने हाथों

रखो, नया आधार बनो,

सारे आओ संगी साथी

अपने सभी बुलाओ ना

अआ, इई के पंख लगा कर,

गगन नाप के आओ ना

 

श्रीमती शन्नो अग्रवाल   

(प्रतियोगिता से बाहर)

''गाँवों में प्रौढ़ शिक्षा''  

शरीर खचरा, दिमाग कचरा 

पर रखना कोई भरम नहीं l

 

है काला अक्षर भैंस बराबर

हमारी जिंदगी सुगम नहीं l

 

तालीम बिन हासिल किये  

है जिंदगी में कोई दम नहीं l

 

अब इरादे किये हैं मुक्कमल

तो घरबार अब हरदम नहीं l

 

बख्त से है सीखा बहुत कुछ

पर उसका कोई अहम नहीं l

 

जो सीखा नहीं अब तलक

उसका रंजिशे-गम कम नहीं l

 

हम बूढ़े हुये तो क्या हुआ

हमको है कोई शरम नहीं l

 

समय तो गँवाया है बहुत    

पर यहाँ उम्र का परचम नहीं l

 

अब भी न तालीम लें हम

है ऐसा कोई नियम नहीं l

 

क्या कहती है दुनिया हमें   

इसका जरा हमें गम नहीं l

 

फिसलती गयी सब जिंदगी 

हम पकड़ पाये कलम नहीं l

 

तसव्वुरात में आयीं थीं जो        

कभी लिख पाये नज़्म नहीं l

 

अब वो सब आरजू करेंगे पूरी    

हम भी किसी से कम नहीं l

 

ये अवसर न आते हैं हमेशा  

और होगा यही आलम नहीं l

 

कुछ थोड़ा सा इल्म सीख लें   

अब पीछे हट सकें वो हम नहीं l

 

श्री गणेश जी बागी

घनाक्षरी / कवित्त

(प्रतियोगिता से अलग)

 

होनहार बिटिया जी, होय गई है सयानी,

दादी अम्मा को पढ़ना, पोती सिखाय रही |

सासू जी ढंग से लिखो, मन लगा पाठ सीखो,
सीधा अक्षर लिखना, बहू बताय रही |

सीखेंगे अब आस है, मन में विश्वास है,
साठ बरस की दादी, क ख बनाय रही |

शिक्षा से कर ली यारी, पढ़ने की है तैयारी,
पढ़ी लिखी बहू बेटी, देखो पढ़ाय रही |

 

पाँच कहमुकरियाँ

(प्रतियोगिता से अलग)
१-
सौतन जिसको बाँट सके ना,
सासू जी जिसे डांट सके ना,
मन में बसा है जैसे प्राण,
ऐ सखी साजन ? ना सखी ज्ञान !

२-
जीवन मेरा उसने है सवारा,
मुझको लगता वो सबसे प्यारा,
हर पल करती मैं उसका ध्यान,
ऐ सखी साजन ? ना सखी ज्ञान !

३-
जबसे मैंने की है संगत,
जीवन में आई है रंगत ,
गाँव समाज में बढ़ा है मान,
ऐ सखी साजन ? ना सखी ज्ञान !

४-
उससे ही है मेरी पहचान,
चलती हूँ अब सीना तान,
मुझपर किया वो एहसान,
ऐ सखी साजन ? ना सखी ज्ञान !
 
५-
मुझे तो मालामाल कर दिया
दामन खुशियों से भर दिया,
पूरे कर दिए सब अरमान
ऐ सखी साजन ? ना सखी ज्ञान !

 

श्री सतीश मापतपुरी

 ( प्रतियोगिता से अलग )

देख लिया है - जान लिया है, काम नहीं कोई मुश्किल.

गर इन्सान ठान ले मन में, तो हर प्रश्न का मिलता हल.

 

मेहनत अपनी रंग ला रही, उम्र के हम मोहताज़ नहीं.

जो चाहेंगे - वो कर लेंगे, नामुमकिन कोई काज नहीं.

बीत गयी जो - बात गयी वो, अब मुट्ठी में है हर पल.

गर इन्सान ठान ले मन में, तो हर प्रश्न का मिलता हल.

 

पढ़ना - लिखना सीख रहे हैं, अंगूठा नहीं लागायेंगे.

बीडीओ -सीओ, सेठ - महाजन, अब नहीं मूर्ख बनायेंगे.

कल था जितना स्याह हमारा, उतना जगमग होगा कल.

गर इन्सान ठान ले मन में, तो हर प्रश्न का मिलता हल.

 

काला अक्षर भैंस बराबर, अब ये कहावत बेमानी.

हम अब पढ़ सकते हैं सब कुछ, चाहे कविता- लेख - कहानी.

जब से अक्षर - बोध हुआ है, पढ़ने की मन में हलचल.

गर इन्सान ठान ले मन में, तो हर प्रश्न का मिलता हल.

(2)

सइयां अब ना हम अनपढ़ गंवार बानीं.(भोजपुरी )

(प्रतियोगिता से अलग)

 

सइयां अब ना हम अनपढ़ गंवार बानीं.

पढ़के होसियार बानीं-- हां.......

 

बड़ा नीक लागता क के ककहरा.

हमके इयाद भइल छ तक के पहड़ा.

अब त सिक्छे के करत सिंगार बानीं

पढ़के होसियार बानीं -- हां.......

 

पहिले - पहिल पिया लिखतानी पतिया.

हथवा कांपत बाटे धड़कता छतिया.

हमके ले जा सहरिया तइयार बानीं.

पढ़के होसियार बानीं -- हां.......

 

वेलकम - थैंक्यू अउरी सौरी भी सिखलीं.

हलो- गुड्मौर्निग, गुडनाईट भी जनलीं.

आयीं रउवे राह देखके बेजार बानीं.

पढ़के होसियार बानीं -- हां.......

 

श्री सौरभ पाण्डेय जी

[प्रतियोगिता से अलग] 

(शिल्प = चौपाई + दोहा ;  भाषा - आंचलिक हिन्दी) 

रहा   समय वो   ऐसा भाई  । खेली  कूदी   करी   ढिठायी ॥

जीवन था क्या बहती नौका । याकि पवन का अल्हड़ झोंका ॥

चाहा  जो कुछ मिला भले ही । मगर निरक्षर  कहीं फले भी ॥

जीवन था क्या बस इक सपना । रही टहलुआ कहना-सुनना ॥

मगर  पुतोहू  आज  बताती । विकट घड़ी में लाज  छिपाती  ॥

बस  अम्माजी इतना  मानें । ज्ञान  सहारे   दुनिया   जानें ॥ 

लिखना  पढ़ना असल  जरूरी । मैं तो बूढ़ी सुनतहिं  बूड़ी ॥

हाथ पकड़ घर बैठ सिखावे । हरफ़-हरफ़ पर ध्यान लगावे ॥

मन में गुनती  सबक सिखाती । दुनियाभर की बात सुनाती॥

माह  दिनन अरु बेर  सबेरे । करत भए  अभ्यास  नजीरे ॥ 

मन मन सबहीं  करें  विचार । भइया  कइसे  हुआ सुधार ॥

कौंधी मन  में  जीवन  आशा । नवा भरोसा नवा दिलासा ॥

पा जरिया मन लगा मचलने । दिल का छौना लगा उछलने ॥

जो कुछ सीखा जो कुछ जाना ।  उसको जीवन में  अपनाना ॥

नहीं  अँगूठा  कलम  उठावे ।   शिक्षा  वो  जो काम में आवे ॥

नवा जोश औ मिहनत झोंके । खुदहि मशक्कत तापर मौके ॥

मोर पुतोहू आस बँधावे ।  नयन  पसीजें  जिया  जुड़ावे ॥

नीर नैन-पलकन तर ओड़े । निहुर धिया मैं सम्मुख तोरे ॥


उम्र  नहीं  श्रद्धा  चहैं, अक्षर  के  अभ्यास  ।
सौ बातन की सीख यह, सधे आत्म विश्वास॥

 

************************

टहलुआ - बिना काम के समय काटने वाला/वाली ;  बूड़ना - डूबना, यहाँ शर्म से डूबने के संदर्भ में लिया गया है ;  बेर-सबेरे - समय-बेसमय ; धिया – बेटी

 

 

श्री इमरान खान

"प्रतियोगिता से अलग"

है इल्म समा का,
रोशन वो सितारा,
जिसपर ये महरबाँ,
पाये वो किनारा।

आपा के पास में,
अम्मी ने भेजकर,
कोशिश तो बहुत की,
सीखूँ मैं ये हुनर।

बचपन में सीखती,
जो ज़ेरो ज़बर को,
रोती न कभी मैं,
न दिल ये बेचारा।

है इल्म समा का,
रोशन वो सितारा,
जिसपर ये महरबाँ,
पाये वो किनारा।


लाइल्म हूँ मैं हाँ,
ये बात सही है।
पढ़ने की तो मगर,
कोई उम्र नहीं है।

मैंने तो आज यूँ,
किस्मत को संवारा,
तख्ती कलम दवात,
हैं थामे दुबारा।

इल्म है समा का,
रोशन वो सितारा,
जिसपर ये महरबाँ,
पाये वो किनारा।

 

श्रीमती वंदना गुप्ता

 

आ जा अम्मा सीख ले

ज्ञान की ये भाषा

उम्र बाधक नही है

यही है इसकी परिभाषा

ज्ञानदीप जलाने से

फ़ैले चहूँ ओर उजियाला

शिक्षा की जब  बहे बयार

फिर तुम भी कर लोगी पत्राचार

जोश इस उम्र मे भी कम नही

बस पहल से ना घबराना

अम्मा तू बस एक कदम बढाना

और बुलन्दी को छू जाना

अशिक्षा का अंधियारा मिटाना

अपना जीवन सफ़ल बनाना

उम्र बाधक नही बनती

गर हौसले बुलन्द हों

ये संदेसा घर घर पहुंचाना

आ जा अम्मा सीख ले

ज्ञान की ये भाषा

फिर सब ग्रंथ खुद पढ पायेगी

किसी के भी ना हाडे खायेगी

रामायण हो या गीता

सब पढने मे निपुण हो जायेगी

बेटे पोतों के खत

तू खुद पढ जायेगी

पढवाने के इंतज़ार मे

ना सूखी जायेगी

नयी इबारत लिख जायेगी

ऐसी बयार तू लायेगी

अनपढता का अभिशाप हटा कर

नया दिनकर तू लायेगी

सबके लिये मिसाल बन जायेगी

आ जा अम्मा सीख ले

ज्ञान की ये भाषा

उम्र बाधक नही है

यही है इसकी परिभाषा ||

 

श्री अश्विनी रमेश

(1)

देश में यह है प्रथम आया

साक्षरता में इसने रिकॉर्ड बनाया

 

देवभूमि है इसको कहते

पहाड़ों से जिसमे नदी नाले बहते

यह है अपना 'हिमाचल' प्यारा

प्रकृति का जहाँ है मनोरम नज़ारा

 

यहां न कोई निरक्षर रहते

तभी तो इसको सर्व-साक्षर कहते

देश का इसने मान बढाया

साक्षरता में जो प्रथम है आया

 

अपनी प्रतिभा का लोहा है मनवाया

केरल को भी इसने पीछे कराया

देश में यह है प्रथम आया

साक्षरता में इसने रिकार्ड बनाया

 

यहाँ न कोई भिक्षावृति

लोगों की यहां भोली प्रकृति

मेहमानों का स्वागत करते

बुराई से है सब यहां डरते

 

नारी पुरुष का यहां बराबर स्थान

दंगे फंसाद का नहीं कोई नामो निशान

ऐसा है अपना हिमाचल प्यारा

प्रकृति का जिसमे मनोरम नज़ारा

 

देश का इसने मान बढाया

साक्षरता में यह  प्रथम है  आया !!

 

 

(2)

साक्षरता, निरक्षरता का अभिशाप मिटाती

शिक्षा अज्ञान के अंधियारे से तुम्हे

ज्ञान प्रकाश का सूरज दिखलाती

धन संपत्ति,शक्ति सब कुछ

व्यय हो जाने से क्षय हो जाते

यह तो है शिक्षा केवल

जो देने से दुगुनी बढ़ जाती

अक्षर तब जीवंत हो जाते

शुद्ध भाव जब इसमें मिल जाते

लेखनी जब तलवार हो जाती

कमज़ोर की तब यह ढाल हो जाती

कर्मभूमि की युद्धभूमि में

हक लड़ने का हथियार हो जाती

शब्द कला के चित्रों से जब

पहाड से संवेदना की नदी है बहती

कागज कैनवस् पर चिन्हित होती

हर दिल को आह्लादित  करती

यह हर दिल को आह्लादित  करती !!

 

श्री आलोक सीतापुरी

"प्रतियोगिता से अलग"

कुण्डलिया:

अज्ञानी ना रहे कोई तजें भावना हीन,

अभी समय जो शेष है हो जाएँ लवलीन,

हो जाएँ लवलीन, ना अब दुहरायें गलती,

दादी जी को देख, प्रेरणा सबको मिलती,

कहें सुकवि आलोक, बनें सब लिख पढ़ ज्ञानी,

शिक्षित सारा देश, न रहे कोई अज्ञानी ||

"घनाक्षरी"

दादी को पढाये पोती दादी को लिखाये पोती,

बड़ी अम्मा पढेगी तो छोटी पढ़ जायेगी.

भारत में चल रहा सर्व शिक्षा अभियान,

गोरी साँवरी पढ़े कलूटी पढ़ जायेगी.

झूठी हों कहावतें पुरानी अब बदलेंगीं,

बूढा तोता भी पढ़ेगा तोती पढ़ जायेगी.

देश का न कोई नागरिक होगा अनपढ़,

बहू पढ़ी लिखी होगी बेटी पढ़ जायेगी|| 

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Replies to This Discussion

आदरणीय अम्बरीषभाईजी,  आपके इस श्रम-साध्य कार्य के लिये आपको हार्दिक धन्यवाद तथा बहुत-बहुत बधाइयाँ.  

चित्र से काव्य तक के आयोजन में सम्मिलित प्रविष्टियों का अपना ही रंग होता है जो रचनाकार की दृष्टि से प्रस्तुत किये गये चित्र को संतुष्ट करता हुआ होता है. इस नजरिये से चित्र को समुच्चय में परखना किसी रचनाकार के लिये अधिक आवश्यक हो जाता है. यह ऐसी प्रक्रिया है जो किसी भी संवेदनशील मनुष्य की रचनाधर्मिता या उस रचनाकार में निहित काव्य-तत्त्व में आमूल संशोधन और तथ्यपरक प्रसंस्करण का उचित माहौल बनाता है.

ओबीओ के मंच पर आप द्वारा प्रारम्भ इस आयोजन की सफलता का राज़ भी, अमबरीषभाई, यही है.

 

मेरा एक हार्दिक अनुरोध उन सभी रचनाकारों से है, जो कि नियमानुसार निर्णायक-मण्डल का अथवा आसन्न प्रबन्धन या कार्यकारिणी समिति का हिस्सा नहीं हैं, कि, वे अपनी प्रविष्टियों को प्रतियोगिता से अलग   की तहरीर के साथ चस्पां न किया करें. एक तो इससे इस मंच की एकमात्र प्रतियोगिता को तो लाभ होगा ही,  दूसरे, रचनाओं में निहित पैनापन और बढ़ जायेगा, जो कि इस आयोजन का महती उद्देश्य है.

 

आदरणीय अम्बरीषभाईजी, आपको पुनः मेरी अनेकानेक बधाइयाँ.

 

आदरणीय सौरभ जी,
आपका स्वागत है ! आपने सत्य कहा कि एक रचनाकार की दृष्टि से यह समुच्चय महत्वपूर्ण है ! 
आपका उचित मार्गदर्शन सभी के लिए कल्याणकारी है !

आपका हार्दिक आभार मित्र !
सादर,
अम्बरीष श्रीवास्तव

अम्बरीश जी,

यहाँ पर सभी रचनाओं को एक साथ प्रस्तुत करने के इस प्रयास के लिये आपका बहुत धन्यबाद. आखिर की कुछ रचनाओं को पढ़ने से मैं वंचित रह गयी थी जिन्हें यहाँ इस तरह पढ़ने का मौका मिला...जिनमे सौरभ जी की भी आंचलिक भाषा में एक रचना है...बहुत सुंदर लगी. व अन्य सभी रचनाकारों की रचनायें भी मन को गुदगुदा गईं. सभी को मेरी तरफ से बहुत बधाई.  

स्वागत है आदरणीया शन्नो जी ! सत्य कहा आपने ! आपका हार्दिक धन्यवाद !

bahut sundar sab ek sath

धन्यवाद ! रवि कुमार जी!

Ayojan ki sabhi pravishtiyo ko ek sath yaha rakhane ke li babut bahut dhanyawaad Ambrish ji.  Isse ye sahuliyat ho gayi ki sabhi rachnao ko yaha dekh pa rahe hai. Shuru ki kuchh rachnao ko chhod kar aayojan mein sammilit baki rachnao ko dekhane ka mauka mujhe nahi mil paya tha.....Sabhi rachnaye ek se badh kar ek hai...sabhi pratibhagiyo ko hardik badhayee.

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