आदरणीय साथियो,
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ऑनलाइन शॉपिंग ने खरीदारी के मापदंड ही बदल दिये हैं।जरूरत से बहुत अधिक संचय की होड़ लगी है।अच्छा विषय..हार्दिक बधाई आदरणीय..शीर्षक पर फिर विचार करें
आदाब। रचना पटल पर आपकी उपस्थिति, अनुमोदन और सुझाव हेतु हार्दिक धन्यवाद आदरणीया प्रतिभा पाण्डेय जी। जूते विषयक रचना पर ही शीर्षक केंद्रित कर दिया था अधिक कटाक्ष या व्यंग्य करने की दृष्टि से।
आशा है अवश्य ही शीर्षक पर विचार करेंगे आदरणीय उस्मानी जी।
आदरणीय शेख शहजाद उस्मानी जी इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई स्वीकार करें। सादर
बहुत-बहुत धन्यवाद आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी।
मेरे कहे को मान देने के लिए आपका आभार।
घर-आंगन
रमा की यादें एक बार फिर जाग गई। कल राहुल का टिफिन बनाकर उसे कॉलेज के लिए भेजते हुए रमा को याद आया कि चिड़िया का दाना पानी भी तो करना था।
वो राहुल का कॉलेज का आखिरी दिन था। उसके बाद उसे उच्च शिक्षा के लिए बाहर जाना था। इधर चिड़िया की अलग चिंता जिसकी चोट को रमा ने देखा और चिड़िया के पंख में लेप लगाकर उसे ठीक किया था। आंगन में तड़पती चिड़िया कब आंगन में नाचने लगी और उसके जीवन का हिस्सा बन गई, रमा को ये तो याद ही नहीं रहा। वो रोज चिड़िया को दाना पानी देती, उसका खयाल रखती।
आज राहुल को हॉस्टल जाना है। चिड़िया के पंख भी ठीक हो गए हैं।
रमा आंगन में आई तो देखा कि चिड़िया उड़ चुकी थी। आंगन सूना हो चुका था।
राहुल हॉस्टल जा चुका था। घर के भीतर मौन चीख रहा था।
घर और आंगन दोनों रमा को जैसे काटने को दौड़ रहे थे। न घर में कोई था और न आंगन में, जिसके लिए वो दाना पानी की व्यवस्था करती।
घर और आंगन दोनों में सन्नाटा पसरा था।
मौलिक एवं अप्रकाशित
नमस्कार। प्रदत्त विषय पर एक महत्वपूर्ण समसामयिक आम अनुभव को बढ़िया लघुकथा के माध्यम से साझा करने हेतु हार्दिक बधाई आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी। राहुल और चिड़िया, घर और ऑंगन, दाना -पानी और दिनचर्या और फिर यकायक रमा के जीवन में अकेलेपन और सूनेपन के मर्म का तुलनात्मक चिंतन और तदनुसार संदेश बहुत बढ़िया है। थोड़ा और समय देकर रचना का बेहतर स्वरुप तैयार किया जा सकता है मेरे विचार से।
धन्यवाद आदरणीय उस्मानी जी, अवश्य प्रयास करूंगा।
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