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जब भी देखूँ वो मुझे  चाँद नज़र आता है: सलीम रज़ा रीवा

2122  1122  1122 22

जब भी देखूँ वो मुझे  चाँद नज़र आता है !
रोशनी बन के दिलो  जाँ मे समा जाता है !!

उस हसीं शोख़ का दीदार हुआ है जब से !
उसका ही चेहरा हरेक शै में नज़र आता है !!

मै मनाऊँ तो भला  कैसे मनाऊँ उसको !
मेरा महबूब तो बच्चो सा मचल जाता है !!

क्यूं भला मान लूँ ये इश्क़ नहीं है उसका !
छु्‍पके तन्हाई में  गीतों को मेरे गाता है !!

मैं तुझे चाँद कहूँ  फूल कहूँ या  खुश्बू !
तेरा ही चेहरा हरेक शै में नज़र आता है !!

आज भी उसके है सीने में मुहब्बत मेरी !
जब भी मिलता है वो शरमा के निकल जाता है !!

ऐसे इन्सां पे ''रज़ा'' कैसे भरोसा करलें !
करके  वादा  जो हमेशा ही  मुकर जाता है !!


9424336644

"मौलिक व अप्रकाशित" 

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Comment by Ravi Shukla on August 23, 2017 at 10:17am

आदरणीय सलीम रजा साहब अच्‍छी गजल कही आपने दाद के साथ मुबारक बाद पेश है । कवाफी में नवीनता नहीं है दुहराव अधिक है पर कथ्‍य के कारण अधिक ध्‍यान नहीं जा रहा । सादर

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