हवस की हवायों के चक्रवात नहीं बदले
न हम बदले, न हमारी विवेकहीन सोच
खूँखार जानवर-से मानव की छाती में
ज़हरीली हवस की घनघोर लपटें
घसीट ले जाती हैं सोई मानवता को बार-बार
मृत्यु से मृत्यु, और फिर एक और
मृत्यु की गोद में
सुविचारित सोच की सरिताएँ हट गईं
डूब गया विवेक अविवेक के काले सागर में
राक्षसी-दानव-मानव ने ओढ़ा नकाब
और स्वार्थ-ग्रस्त ज़हरीले हाथों से किए
मासूम असहाय बच्चियों पर बलात्कार
पोत दिया है हम सबके नामहीन माथे पर
भयानक काला कंटीला स्याह धब्बा
हवस-तुष्टि करते उस दैत्य की भयंकर
अप्रतिहत हरकत से
शर्मनाक हुया है सारे ज़माने का चेहरा
अंतरिक्ष के हृदय में है ’चोट खाई’ उखड़ी धकधक
तड़पता-सा लगता है अब सूर्य-देवता भी मुझको
ऊब गया है मानो वह भभक-भभक
धड़धड़ाती-सी फड़क रही हैं नसें उसकी
देखो तो, काँप रहा है शर्म से चेहरा उसका
निर्लज्ज ’सियार जानवर” ने मानो
क्रूरता से आज फिर मरोड़ दी
तोड़ दी हम सब की गर्दन
नेत्रहीन हुया मानव का विवेक
जड़ीभूत है मानो अब साक्षी आत्मा
विद्रोही भाव मन-विवर में रातों
करवट पर करवट पलटते
कटु हृदयानुभव छाती से छनकर लहु में बहते
अपनी ही आँखो के सामने हो जैसे
डस रहा किसी बच्ची को विशैला नाग
कब तक हम आवेश में बैठे विचारते रहेंगे
समाज-परम्परा-सभ्यता के अधिष्ठान
कौन है दोषी ? हम, तुम, सरकार ?
क्यूँ और कब तक करेंगे इन्तज़ार
कि हमारा चेहरा साफ़-स्वच्छ करने
आकाश सेआयगा कोई अवतार ?
किस-किस के कंधे पर कब तक
सोंपेंगे हम दायित्व का भार ?
लज्जित हूँ, मैं लज्जित हूँ बहुत
कि मैंने ही नहीं
उठाया दानव पर हाथ
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-- विजय निकोर
(मौलिक व अप्रकाशित)
Comment
सराहना के लिए आपका हार्दिक आभार, आदरणीय तेज वीर सिंह जी
हार्दिक बधाई आदरणीय विजय निकोरे जी।लाज़वाब प्रस्तुति।
आपका आना सुखद लगता है, भाई समर कबीर जी। सराहना के लिए आभार।
जनाब भाई विजय निकोर जी आदाब,हमेशा की तरह एक गम्भीर भावपूर्ण रचना पेश की है आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आपका हार्दिक आभार, मित्र नरेन्द्रसिंह जी
खुब सुन्दर रचना सर
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