मेरी धरोहर - लघुकथा -
"सुधा, मेरा सफेद कुर्ता पाजामा निकाल दो। शीघ्रता से।"
"अरे विनोद, यह क्या सुन रहा हूँ? यहाँ सब लोग दिवाली की पूजा की तैयारी में व्यस्त हैं और तुम ये क्या सफेद कपड़ों की फरमाइश कर रहे हो?"
"जी दादाजी, आपने सही सुना। मुझे मेरे दोस्त अकबर के घर जाना है। उसके अब्बू का इंतकाल हो गया है।"
"तुम्हें पता है आज इस दीपावली के शुभ अवसर पर मैं अपनी वसीयत भी बनाने वाला हूँ। अभी हमारे परिवार के वक़ील आने ही वाले हैं। हो सकता है जो उस वक्त मौजूद ना हों, उन्हें इस अमूल्य धरोहर से हाथ धोना पड़े।"
"दादाजी, आपने ही हमें बचपन से यह भी तो सिखाया है कि हर व्यक्ति की अपने परिवार के साथ साथ समाज के प्रति भी कुछ जिम्मेदारी होती है।"
"हाँ, लेकिन इतने मह्त्वपूर्ण अवसर पर अपने पारंपरिक त्यौहार को छोड़ कर तुम्हारा एक मैयत में शामिल होने जाना मुझे तर्क संगत नहीं लगता।"
"दादाजी, त्यौहार तो हर साल ही आते रहेंगे लेकिन आज जो शख्स अपनी अंतिम यात्रा पर जा रहा है उसे सम्मान पूर्वक कंधा देकर अपने मित्र को साँत्वना देना और उसका दुख बाँटना मेरी सर्वोच्च प्राथमिकता है।"
"अपने परिवार की खुशियों को दॉव पर लगाकर।"
"दादाजी, मेरे मित्र के घर मातम हो तो मैं कैसे खुशियाँ मना सकता हूँ।"
मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
जनाब तेजवीर सिंह जी आदाब,अच्छी लघुकथा लिखी आपने,इस प्रस्तुति पर बधाई स्वीकार करें ।
आपको दीपोत्सव की हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं ।
जनाब तेजवीर सिंह जी आदाब,
उम्दा तरीन लघू कथा के लिए बहुत बहुत बधाई
दीप पर्व की मुबारकबाद आपको और तमाम देशवासियों को दीपावली के पावन पर्व की हार्दिक शुभकामनाएं और बधाईयां
हार्दिक आभार आदरणीय शेख उस्मानी साहब जी।लघुकथा पर आपकी विस्तृत एवम विवेचनात्मक टिप्पणी अत्यंत प्रेरणादायक और उत्साह वर्धक है। आपको भी दीपोत्सव की हार्दिक बधाई।
बेहतरीन समसामयिक सामाजिक; सरोकार का अत्यावश्यक सार्थक सकारात्मक सृजन। हार्दिक बधाई आदरणीय तेजवीर सिंह साहिब। आप सभी को दीपावली पखवाड़े पर हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।
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