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रात का सुन-सान पल मैं, निर्वसन हूँ प्यार कर।

रात का सुन-सान पल मैं, निर्वसन हूँ प्यार कर।
सिंधु तट की रेत मैं, प्रिय है मेरा उच्छृंखल लहर।।
यामिनी कह चंद्रिका से, 
मधु पात्र को वो ढाल दे।
आज श्लथ भू पर गिरूं, 
कुछ इस तरह का गात्र दे।।
चांदनी की शीतल छुवन
हो प्रेम पगता वक्ष पर
रात का सुन-सान पल मैं, निर्वसन हूँ प्यार कर।
सिंधु तट की रेत मैं, प्रिय है मेरा उच्छृंखल लहर।।
देवालयों के भव्य प्रस्तर
उत्कीर्ण मूर्तियों से उतर
सत्चिदानंद सर्व-व्यापी
इस क्षण मुझे कर दे अमर
तुझ से बिछड़ा हुआ अणु यह
ले चल मुझे भी बांध कर
रात का सुन-सान पल मैं, निर्वसन हूँ प्यार कर।
सिंधु तट की रेत मैं, प्रिय है मेरा उच्छृंखल लहर।।
मैं रेत कणिका सोख लूँगी,
प्रियतम तेरे उपहार को।
दग्धता ही शमित होगी,
पाकर तुम्हारे ज्वार को।।
लूट मुझको ऐ मछेरे,
जाल गहरे डाल कर
रात का सुन-सान पल मैं, निर्वसन हूँ प्यार कर।
सिंधु तट की रेत मैं, प्रिय है मेरा उच्छृंखल लहर।।
सुधेन्दु ओझा
मौलिक अप्रकाशित

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Comment by Saurabh Pandey on September 7, 2018 at 4:33pm

आदरणीय सुधेन्दु जी, 

आपकी प्रस्तुति पर उत्तर छायावाद की प्रच्छाया है. भाव, शब्द और प्रस्तुतीकरण, इन तीनों का प्रभाव व्यापक रूप से हावी है. साथ ही, भौतिक भाव पर आध्यात्मिक भाव की परत भी आकर्षक दिख रही है. इन कारणों से रचना रोचक तो हो गयी है, परंतु शिल्पगत अनियमितताओं के कारण कई स्तरों पर गहन अभ्यास की अपेक्षा रखती है. 

आदरणीय, कविताई केवल भाव और शब्दों का संयोग नहीं है. इन्हें उपयुक्त साँचे में भी ढालना होता है, जिसे विधानुरूप शिल्प कहते हैं.

इशारा ये समझें कि प्रस्तुत गीत-प्रतीति की पंक्तियों का शाब्दिक संयोजन फ़ाइलातुन, यानी 2122 के हिसाब से है, लेकिन इसका निर्वहन नहीं हुआ है. 

सादर 

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