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गम पे उठी ग़ज़ल तो वो दिल में उतर गयी,
खुशियों का ज़िक्र आया कयामत गुज़र गयी ।
इतनी थी खुशनसीब मेरी ज़िंदगी मगर,
इक प्यार की लकीर न जाने किधर गयी ।
वो छोटी- छोटी बातों पे रहने लगे खफा,
कहने लगे थे लोग कि किस्मत सँवर गयी ।
वो गैर सा हुआ मुझे अफसोस था मगर,
वो अजनबी हुआ मेरी दुनियाँ बिखर गयी ।
निकली जो आह दिल से असर कब कहां हुआ,
दिल से निकल के रूह के अंदर उतर गयी ।
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मौलिक व अप्रकाशित
हर्ष महाजन
Comment
आदरणीय भाई लक्ष्मण धामी जी आदाब । आपकी आमद और हौंसला अफ़ज़ाई के लिए बहुत बहुत शुक्रिया । आदरणीय समर साहब की देखरेख में ग़ज़ल का संवरना तो लाज़मी है । उनसे सीखने को बहुत कुछ मिला है ।शुक्रित एक बार फिर ।
सादर ।
आ. भाई हर्ष जी, अच्छा प्रयास हुआ है । माननीय भाई समर जी के मार्गदर्शन में यह और निखर जायेगी ।
जनाब हर्ष महाजन साहिब आदाब,ग़ज़ल का प्रयास अच्छा है,बधाई स्वीकार करें ।
क़वाफ़ी के बारे में जनाब आरिफ़ साहिब ने ठीक कहा ।
मतला यूँ कर लीजिए :-
"ग़म पर लिखी ग़ज़ल तो वो दिल में उतर गई
ख़ुशियों का ज़िक्र आया क़यामत गुज़र गई
दूसरे शैर के सानी मिसरे में 'अचानक' की जगह " न जाने" कर लीजिये ।
तीसरे शैर के सानी मिसरे में 'बदल' की जगह "सँवर" कर लीजिये ।
चौथा शैर क़ाफिये के हिसाब से ठीक है ।
आख़री शैर का सानी मिसरा यूँ कर लें :-
'दिल से निकल के रूह के अंदर उतर गई'
आप चाहें तो ऐडिट कर सकते हैं ।
शुक्रिया आदरनीय मुहम्मद आरिफ जी...एक मुद्दत से सोच रहा था कि अलग से काफिये की खेप तैयार कर सकूं । मगर आपकी नजर से ये हो नही पाया । अब वापिस फिर से दुधार के साथ यही ग़ज़ल लेकर आने की कोशिश करता हूँ । उम्मीद है आप गुणीजनों का साथ मिलता रहेगा । शुक्रिया सर।
सादर ।
आदरणीय हर्ष महाजन जी आदाब,
ओबीओ मंच पर आपका हार्दिक स्वागत है ।
आपकी ग़ज़ल ग़ज़ल के निर्धारित मापदंडों का कतई निर्वाह नहीं कर रही है । काफ़ियों में एकरूपता नहीं है । बाक़ी गुणीजन अपनी राय देंगे । बधाई स्वीकार करें ।
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