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ग़ज़ल- बलराम धाकड़ ( मसौदा भी ज़रूरी है...)

1222,1222,1222,1222

ज़रूरी है अगर उपवास, रोज़ा भी ज़रूरी है।
रवाज़ों का ज़रा होना अलहदा भी ज़रूरी है।।

हमें ये फ़ख़्र होता है कि हम हिंदौस्तानी हैं,
हमारे बीच हमदर्दी का सौदा भी ज़रूरी है।

मनाने रूठ जाने के लिखे हों क़ाइदे जिसमें,
मुहब्बत के लिए ऐसा मसौदा भी ज़रूरी है।

किसानों के लिए बिजली ओ पानी ही नहीं काफ़ी,
उन्हें ख़सरा, ख़तौनी और नक़्शा भी ज़रूरी है।

निज़ामो को ये लाज़िम बात समझाए कोई जाकर,
सकोरा लाज़िमी तो है, परिंदा भी ज़रूरी है।

इन आँखों को महज़ सुरमा औ काजल ही नहीं काफ़ी,
इन्हें उम्मीद, बीनाई औ सपना भी ज़रूरी है।

मौलिक/अप्रकाशित
- बलराम धाकड़।

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Comment by Shyam Narain Verma on February 21, 2018 at 4:17pm
बहूत उम्दा हार्दिक बधाई l सादर
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on February 21, 2018 at 3:57pm

बातें पते की। बहुत ही विचारोत्तेजक भावपूर्ण अशआर के साथ बेहतरीन ग़ज़ल के लिए तहे दिल से बहुत-बहुत मुबारकबाद मुहतरम जनाब बलराम धाकड़ साहिब। //हिंदौस्तानी// , काफ़िया और अन्य ज़रूरी बातों के बारे में हमारे विशेषज्ञगण की टिप्पणी और मार्गदर्शन की प्रतीक्षा रहेगी। सादर।

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