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कौन होना चाहता है

यहाँ बे-आबरू ।

ये वक्त ही है ,
बे-शर्म बना देता है

हसरत मुझे भी थी,

आसमान छूने की ,

वक्त ,कोशिशों की सीढ़ी को ,

बे-वक्त गिरा देता है ।

संभल -संभल कर बढ़ रहे थे ,

जानिबे – मंजिल ,

जो कभी खत्म न हो राह ,

वक्त,पकडा वो सिरा देता है ।

टूटते हौंसलों को ,

कैसे सम्भाले ”कमलेश” ,

बसे बसाये घरौंदों पर ,

वक्त बिजली गिरा देता है ,

हिम्मत से तोड़ दोगे

वक्त के हौसले ,

वक्त ही देखो ?

जिन्दगी को मशविरा देता है

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मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 7, 2010 at 11:47am
कौन होना चाहता है,यहाँ बे-आबरू ,
ये वक्त ही है ,बे-शर्म बना देता है,

हसरत मुझे भी थी,आसमान छूने की ,
वक्त ,कोशिशों की सीढ़ी को ,
बे-वक्त गिरा देता है ।

वाह कमलेश भैया वाह , सभी रचना एक पर एक है, बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति, और ऊँचा ख्यालात, बधाई,

कृपया ध्यान दे...

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