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ज्यों खटक जाता है

किसी चित्रकार को
स्वरचित सफल चित्र पर
अचानक रंगो का बिखर 

जाना !
.

ज्यों खटक जाता है
ज्येष्ठी धूप में तपे प्यासे मानव को
सम्मुख आ सजल पात्र का
अकस्मात ही लुढ़क जाना !.

ज्यों खटक जाता है

प्रणयी युगल को
मधुर प्रणय मिलन 

के मध्य
किसी अन्य का
अप्रत्याशित आ जाना !
.
त्यों ही खटक रहा है मुझको
शरद्पूर्णिमा के चंद्र पर
निगोड़े मेघो का छा जाना !!

मौलिक& अप्रकाशित
---नन्दकिशोर दुबे

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Comment by rajesh kumari on October 5, 2017 at 11:10am

वाह्ह्ह्ह बहुत सुन्दर रचना सुन्दर प्रतीकों के माध्यम से अपने भाव रचना में पिरोये बहुत बहुत बधाई आद०  नंदकिशोर जी 

Comment by नन्दकिशोर दुबे on October 4, 2017 at 12:19am
आदरणीय आरिफ साहब । आपको रचना पसन्द आई / आभार । ऐसा सहयोग सतत बनाये रखे / आभारी रहूँगा ।रचनाकर्म सार्थक हुआ ।
Comment by Mohammed Arif on October 3, 2017 at 11:53pm
आदरणीय नंदकिशोर जी आदाब, बहुत ही सुंदर कविता शरद पूर्णिमा लेकर । हार्दिक बधाई स्वीकार करें ।

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