For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

नूर की हिंदी ग़ज़ल ..दर्पणों से कब हमारा मन लगा

२१२२/२१२२/२१२ 
.
दर्पणों से कब हमारा मन लगा
पत्थरों के मध्य अपनापन लगा. 
.
लिप्त है माया में अपना ही शरीर
ये समझ पाने में इक जीवन लगा.
.
तप्त मरुथल सी ह्रदय की धौंकनी
हाथ जब उस ने रखा चन्दन लगा.
.
मूर्खता पर करते हैं परिहास अब
जो था पीतल वो हमें कुन्दन लगा.
.
प्रेम में भी कसमसाहट सी रही
प्रेम मेरा आपको बन्धन लगा.
.
जल रहे हैं हम यहाँ प्रेमाग्नि में
और उस पर ये मुआ सावन लगा.
.
मंदिरों की सीढ़ियों पर भूख थी 
चन्द्र भिक्षापात्र सा बर्तन लगा.
.
माँ को अम्मी कह रहा था मित्र, बस!
उसका आँगन अपना ही आँगन लगा.         
.
निलेश "नूर"
.
मौलिक/ अप्रकाशित 

Views: 1563

Comment

You need to be a member of Open Books Online to add comments!

Join Open Books Online

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 11, 2017 at 12:10pm

इस्तेमाल और लौटना???? क्या अंतर है?? शब्द इस्तेमाल ही होता है ..मैंने भी इस्तेमाल ही किये हैं शब्द ......पता नहीं किस पैराडॉक्स के शिकार हैं आप....

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 11, 2017 at 12:04pm

हुज़ूर....
स्वयं करें   तो शास्त्रीय नृत्य   और ग़ैर करे तो मुजरा ....
इस मानसिकता से निकलिए और रचना     का आनंद लीजिये....
चूँकि मैं किसी को  कॉपी नहीं    करता इसलिए मेरे लिये तुलसीदास की भाषा भी गौण है और मीर की भाषा भी....
मैं तो जिस  शब्द को जैसा सोचता     हूँ  वैसा ही लिखता हूँ....चाहे  वो प्राचीन हो या आधुनिक ....
भाषा की ज़िन्दगी में 40 साल कोई    बड़ा फासला नहीं होता ..
.

झुलासाता जेठ मास
शरद चांदनी उदास
सिसकी भरते सावन का
अंतर्घट रीत गया
एक बरस बीत गया

सीकचों मे सिमटा जग
किंतु विकल प्राण विहग
धरती से अम्बर तक
गूंज मुक्ति गीत गया
एक बरस बीत गया

पथ निहारते नयन
गिनते दिन पल छिन
लौट कभी आएगा
मन का जो मीत गया
एक बरस बीत गया..... 40 साल पहले ही लिखा गया है ....हिंदी ह्रदय सम्राट द्वारा..... वो नकार दिए गए..उनकी भाषा और शैली को उनके हम    जैसे विरोधी भी सलाम करते हैं...


सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 11, 2017 at 11:53am

आ. अनुराग जी,
वैसे मैं आप पर अंतिम टिप्पणी कर चुका हूँ लेकिन चूँकि चर्चा मेरी ग़ज़ल पर है इसलिए वापस आ गया ...
.

राह दुई की  जहर है प्यारे, इधर-उधर क्यों जाएँ हम

केवल  अपनी रूह की सुनियो, बाकी सब भटकायेंगे        

 

राह कठिन है; तल में अगिन है, ऊपर बरसे है अंगार   

सूरज  पीकर  जो चल पायें,  वो  इस  पर चल पायेंगे  ....... 
मेरे एक मित्र हैं.... उनके अशआर हैं.... लगने को कबीर के ज़माने की भाषा में लग सकते हैं लेकिन...गहरा भाव लिये हैं...
मुझे न तो इनके भाव और न तो भाषा कृत्रिम लगती है ....
हालाँकि अगिन...दुई, सुनियो  सब पुरातन है ....
खैर ....आप काश समझ पाते ..
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 11, 2017 at 11:44am

आ. अनुराग जी,
आप के अंतिम टिप्पणी स्वरूप 4  मिसरे ..राहत साहब के ..
.

लवे दीयों की हवा में उछालते रहना
गुलो के रंग पे तेजाब डालते रहना

में नूर बन के ज़माने में फ़ैल जाऊँगा
तुम आफताब में कीड़े निकालते रहना
.
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 11, 2017 at 11:39am

हाँ हुज़ूर,
अभिमन्यु की राह में कथित बौद्धिक जयद्रथ बैठे हों तो लौटना वाकई मुश्लिक है लेकिन अर्जुन चक्रव्यूह में जा भी सकता है और वापस आ भी सकता है....
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 11, 2017 at 11:24am

आ. अनुराग जी,

आप कवि/ शायर होते तो ये न कहते कि उस वक़्त में नहीं लौटा जा सकता...
कवि तो सूरज पर भी जा सकता है और पाताल में भी.....
आप को  क्या लगता है कि लेखक ने मुगले आज़म १६ वीं शताब्दी में ही लिख दी थी...
अजब गजब से तर्क -कुतर्क हैं आपके 
चिंतन कीजिये..
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 11, 2017 at 11:21am

आ. अनुराग जी ...
मैंने भी कई टॉपिक्स पर शेर कहें हैं.... सब की  ज़बान अलग अलग है ....
अत: ये सिद्ध हुआ कि शाइर या कवि...  जिस भाव को जिस भाषा में सोचे तो उसी में कहे....
वही मैंने भी किया .....वो मेरा अधिकार भी है..... 
आप को क्या प्राकृतिक लगे या क्या कृत्रिम लगे ये सोचकर कलम नहीं उठाता मैं....
शायद आप को स्पष्ट  हुआ होगा कि मेरी ग़ज़ल भी उसी हिंदी में है जिस में प्रसाद, चतुर्वेदी, सुमन, दिनकर भी कभी लिखते थे...
सादर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 11, 2017 at 11:16am

चाह नहीं, मैं सुरबाला के 
गहनों में गूँथा जाऊँ,
चाह नहीं प्रेमी-माला में बिंध
प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं सम्राटों के शव पर
हे हरि डाला जाऊँ,
चाह नहीं देवों के सिर पर
चढूँ भाग्य पर इठलाऊँ,
मुझे तोड़ लेना बनमाली,
उस पथ पर देना तुम फेंक!
मातृ-भूमि पर शीश- चढ़ाने,
जिस पथ पर जावें वीर अनेक!.
डर है  कि भाषाई घालमेल करने वाले   इसे फूल की ख्वाहिश बता कर माखनलाल चतुर्वेदी को   कृत्रिम कवि न क़रार दे दें ...

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 11, 2017 at 11:11am

हिमाद्रि तुंग श्रृंग से, प्रबुद्ध शुद्ध भारती। 
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला, स्वतंत्रता पुकारती॥
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ प्रतिज्ञ सोच लो। 
प्रशस्त पुण्य पंथ है, बढ़े चलो बढ़े चलो॥
असंख्य कीर्ति रश्मियाँ, विकीर्ण दिव्य दाह-सी। 
सपूत मातृभूमि के, रुको न शूर साहसी॥
अराति सैन्य सिन्धु में, सुबाड़वाग्नि से जलो। 
प्रवीर हो जयी बनो, बढ़े चलो बढ़े चलो॥

.....ये भी कृत्रिम हिंदी ही होगी फिर तो 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on May 11, 2017 at 11:10am

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार 

आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज हृदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार 

लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड में साहस तोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार 

यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिट्टी के पुतले मानव ने
कभी न मानी हार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार 

सागर की अपनी क्षमता है
पर माँझी भी कब थकता है
जब तक साँसों में स्पन्दन है
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार

तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार.
सुमन   जी की इस कविता में तो पौराणिक रेफरेंस भी नहीं है .... क्या ये भी कृत्रिम है?

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity


सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"आदरणीया प्रतिभा जी, मेरे प्रयास को मान देने के लिए हार्दिक आभार। बहुत बहुत धन्यवाद। आपने सही कहा…"
Wednesday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"जी, शुक्रिया। यह तो स्पष्ट है ही। "
Tuesday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"सराहना और उत्साहवर्धन के लिए हार्दिक आभार आदरणीय उस्मानी जी"
Tuesday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"लघुकथा पर आपकी उपस्थित और गहराई से  समीक्षा के लिए हार्दिक आभार आदरणीय मिथिलेश जी"
Tuesday
Manan Kumar singh replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"आपका हार्दिक आभार आदरणीया प्रतिभा जी। "
Tuesday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"लेकिन उस खामोशी से उसकी पुरानी पहचान थी। एक व्याकुल ख़ामोशी सीढ़ियों से उतर गई।// आहत होने के आदी…"
Tuesday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"प्रदत्त विषय को सार्थक और सटीक ढंग से शाब्दिक करती लघुकथा के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार करें आदरणीय…"
Tuesday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"आदाब। प्रदत्त विषय पर सटीक, गागर में सागर और एक लम्बे कालखंड को बख़ूबी समेटती…"
Tuesday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"हार्दिक धन्यवाद आदरणीय मिथिलेश वामनकर साहिब रचना पटल पर अपना अमूल्य समय देकर प्रतिक्रिया और…"
Tuesday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"तहेदिल बहुत-बहुत शुक्रिया जनाब मनन कुमार सिंह साहिब स्नेहिल समीक्षात्मक टिप्पणी और हौसला अफ़ज़ाई…"
Tuesday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"आदरणीया प्रतिभा जी प्रदत्त विषय पर बहुत सार्थक और मार्मिक लघुकथा लिखी है आपने। इसमें एक स्त्री के…"
Tuesday
pratibha pande replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-126 (पहचान)
"पहचान ______ 'नवेली की मेंहदी की ख़ुशबू सारे घर में फैली है।मेहमानों से भरे घर में पति चोर…"
Tuesday

© 2025   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service