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दूर कहीं शोर सुनाई देता है

लिखने, पढ़ने और रोज़मर्रा के कामों सारा दिन निकल जाता है,
दिल करता है की यहीं दिल लगा लूं,
घर वालों की देख रेख करूँ, उनका प्यार पाऊँ,
घर गृहस्ती में रम जाऊं,

फिर कहीं दूर से शोर सुनाई देता है,
बच्चों के बिलखते हुए चेहरे नज़र आने लगते हैं,
माओं के आंसूं मुझे बुलाने लगते हैं,
तबाही के मंज़र आँखों के आगे नाचने लगते हैं,
ऐसे में, कैसे घर गृहस्थी में रम जाऊं?

इंसानियत के लिए ज़िम्मेदारी का एहसास जाग जाता है,
घर का आराम काटने लगता है,
अपनी ख़ुशी को दूसरों से बांटने का मन करता है,
मुस्कुराहटों का कारोबार फिर से शुरू करने को जी करता है 
फिर कैसे घर गृहस्थी में रम जाऊं 

उनकी आवाज़ बनना चाहती हूँ,
सफ़ेद चादर बन कर खून-ए-जंग रोकना चाहती हूँ,
अमन की आगोश में नफरत को पिघलाना चाहती हूँ,
आंसूं और पसीने से इस लाल ज़मीन को धोना चाहती हूँ
हो नहीं सकता की मैं सिर्फ घर गृहस्थी में रम जाऊं 

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Comment by Anjana Dayal de Prewitt on May 31, 2011 at 5:10pm
धन्यवाद!

प्रधान संपादक
Comment by योगराज प्रभाकर on May 31, 2011 at 10:08am
अंजना जी,  इस कविता में अंतर्मन में चल रही कशमकश का बहुत सुन्दर चित्रण किया है आपने - बधाई स्वीकार करें !

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