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ये ,कैसा घर है ....

ये ,कैसा घर है ....
ये
कैसा घर है
जहां
सब
बेघर रहते हैं


दो वक्त की रोटी
उजालों की आस
हर दिन एक सा
और एक सी प्यास
चेहरे की लकीरों में
सदियों की थकन
ये बाशिंदे
अपनी आँखों में सदा
इक उदास
शहर लिए रहते हैं
ये
कैसा घर है
जहां सब
बेघर रहते हैं

उजालों की आस में
ज़िन्दगी
बीत जाती है
रेंगते रेंगते
फुटपाथ पे
साँसों से
मौत जीत जाती है
बेरहम सड़क है
भूख की तड़प है
हर मौसम एक सा है
न रात की चिंता है
न सहर का डर है
खुशियों के शानों पर
यहां अश्क ही बहते हैं
ये
कैसा घर है
जहां
सब
बेघर रहते हैं

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशसित

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Comment by Sushil Sarna on January 31, 2017 at 2:09pm

आदरणीय सतविन्द्र जी प्रस्तुति के भावों को अपनी आत्मीय प्रशंसा से शोभित करने का हार्दिक आभार।

जी हाँ आ. सतविन्द्र जी इन लाचारों के दिल में सहर का भी अनजाना सा ख़ौफ़ भी नहीं होता। मेरा अभिप्राय सहर में क्या होगा , सहर कैसी होगी आदि आदि से है। आशा है आप मेरे भाव को समझ गए होंगे। आपका हार्दिक। आभार

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on January 30, 2017 at 10:37am
सहर का डर?
Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on January 30, 2017 at 10:37am
वाह्ह्ह्,उम्दा सृजन आदरणीय सुशील सरण जी,हार्दिक बधाई

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