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नग़मे अजीब रोज सुनाते रहे हैं हम
बस दूसरों के ऐब गिनाते रहे हैं हम

खुद को कभी करीब से जाना नहीं मगर
कहने को इस जहाँ से निभाते रहे हैं हम

जाते हुए जरा सा पलट कर तो देखते
कितनी सदाएं देके बुलाते रहे हैं हम

उनकी वफ़ा की लोग मिसालें सुनायेंगे
रुसवाइयों के दाग़ छिपाते रहे हैं हम

अश्कों में सिसकियों में कराहों में दब गए
कुछ शेर जो वफ़ा के सुनाते रहे हैं हम

- पुष्पेन्द्र 'पुष्प'
मौलिक एवं अप्रकाशित

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सदस्य कार्यकारिणी
Comment by शिज्जु "शकूर" on September 8, 2016 at 10:59am

अश्कों में सिसकियों में कराहों में दब गए
कुछ शेर जो वफ़ा के सुनाते रहे हैं हम// वाह क्या कहने

आदरणीय पुष्पेंद्र जी ओबीओ में स्वागत है आपका। आपने बड़ी खूबसूरत गज़ल से मंच को नवाज़ा है बधाई आपको

Comment by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 7, 2016 at 10:18pm

अच्छी ग़ज़ल आदरणीय  | हार्दिक बधाई

Comment by Samar kabeer on September 7, 2016 at 4:04pm
जनाब पुष्पेंद्र'पुष्प'साहिब आदाब,अच्छी ग़ज़ल हुई है,शैर दर शैर दाद के साथ मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएं ।
इस मंच पर ग़ज़ल के साथ अरकान लिखने का नियम है,आइन्दा से लिख दिया करें ।

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