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प्रेम (गीत-रोला छंद)/सतविन्द्र कुमार

प्रेम रतन अनमोल,इसे तुम रखो सँभााले
खुशियों का भंडार,यही है सुन मतवाले

बड़े-बड़े सब दुःख,प्रेम से ही कम होते
कष्ट बनें जो भार, इसी से हल्के होते
सहज लगे संघर्ष,प्रेम की ऐसी माया
जीवन का यह सार,ध्यान तू रख रे भाया
हमने सारे कष्ट,प्रेम के किए हवाले
खुशियों का भंडार ,यही है सुन मतवाले

मात-पिता के काम,समर्पित हैं बच्चों को
प्रेम डोर दे बाँध,सभी मन के सच्चों को
पावन सा इक भाव,प्रेम बन जग में आया
इसपर ही संसार,टिका यह उसका साया
प्रेम जगत का सार,इसी से दुनिया चाले
खुशियों का भंडार,यही है सुन मतवाले

प्रकृति हुई है मात,सभी पर स्नेह लुटाती
हर प्राणी से प्यार,न उनमें अंतर पाती
है लोभी इंसान,किया है इसका दोहन
प्रेम गया है भूल,कभी कहलाता मोहन
रहे प्रकृति को लूट,उसी के जो रखवाले
खुशियों का भंडार,यही है सुन मतवाले।

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on August 11, 2016 at 4:08pm
आभार सँग नमन आदरणीय गिरिराज सर।हमने आदरणीय रवि शुक्ला जी के सुझाए अनुसार संशोधन कर लिया है।सादर

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on August 10, 2016 at 9:58pm

आदरणीय सतविन्द्र भाई , अच्छी रचना हुई है , हार्दिक बधाइयाँ ! आ. रवि भाई जी की बातों का खयाल करें ।

Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on August 9, 2016 at 12:49pm
अनुमोदन्,प्रोत्साहन एवं मार्गदर्शन के लिए सादर हार्दिक आभार आद०रवि शुक्ल जी।सादर नमन।मैं त्रुटि ठीक करने का प्रयास करता हूँ।सादर
Comment by Ravi Shukla on August 9, 2016 at 11:31am

आदरणीय सतविन्‍द्र जी बढि़या गीत रचा है आपने इसके लिये बहुत बुहुत बधाई स्‍वीकार करें 

हर प्राणी से प्यार,नहीं उनमें अंतर पाती इस पंक्ति के सम चरण में मात्रा भार पुन: जॉंच लें । सादर 

 

अच्‍छा गीत है पुन: बधाई । सादर 

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