ग़ज़ल (उल्फत का रंग है )
------------------------------------
221 --2121 --1221 ---212
ऐसा लगे है चढ़ गया उल्फत का रंग है ।
जो कल मेरे ख़िलाफ़ था वह आज संग है ।
वह मेरे पास बैठ गए सब को छोड़ के
यूँ हर कोई न देख के महफ़िल में दंग है ।
तरके वफ़ा का मश्वरा मत दीजिये हमें
सब जानते हैं आपका ये सिर्फ ढंग है ।
जिस दिन से जायदाद गए बाप छोड़ कर
घर तब से बन गया मेरा मैदाने जंग है ।
मैं एक क़दम बढ़ा तो बढ़ा वह कई क़दम
मेरा हबीब देख लो कितना दबंग है ।
नज़रें अभी न फेर सहारा तो ढूंड लूँ
बिन डोर अर्श पर कहाँ उड़ती पतंग है ।
तस्दीक़ होशियार रहो ऐसे शख़्स से
लब पर वफ़ा निगाह मगर जिसकी तंग है ।
(मौलिक व अप्रकाशित )
Comment
मोहतरम जनाब मिथिलेश वामनकर साहिब , ग़ज़ल में शिरकत करने और हौसला अफ़ज़ाई का तहे दिल से शुक्रिया ,महरबानी
मोहतरम जनाब नादिर खान साहिब आदाब , मेरे ख़याल से कोई प्रॉब्लम नहीं होनी चाहिए दोनों मिसरे अपनी जगह सही हैं । लेकिन आपके मश्वरे से भी लफ़्ज़ों को इधर उधर करने कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा ।
हर शख़्स अंजुमन में नहीं यूँ ही दंग है । ........ बहुत बहुत शुक्रिया
"नागाह हो गए वो मुख़ातिब मेरी तरफ
यूँ ही न अंजुमन में हर इक शख़्स दंग है"
जनाब तस्दीक साहब
"यूँ ही न" की जगह "यूँ ही नहीं" लिया जा सकता है लेकिन फिर आपको आगे के शब्द बदलने पड़ेंगे
तथा दोनों मिसरों में समन्जस्व स्थापित होना ज़रूरी है, ऐसा मैंने सुधीजनों से सुना है।
आदरणीय तस्दीक जी, इस प्रस्तुति पर हार्दिक बधाई.
मोहतरम जनाब तेजवीर साहिब , ग़ज़ल में शिरकत करने और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया ,महरबानी। .
मोहतरम जनाब सौरभ साहिब , ग़ज़ल में शिरकत करने और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया ,महरबानी। .... समर साहिब के मश्वरे के मुताबिक गौर कर लिया है , सिर्फ शेर 2 पर मैं मुतमइन नहीं हो पारहा था उसे तब्दील कर लिया है। ....... शुक्रिया
जनाब जयनित कुमार साहिब , ग़ज़ल में शिरकत करने और हौसला अफ़ज़ाई का बहुत बहुत शुक्रिया ,महरबानी
मोहतरम जनाब नादिर खान साहिब आदाब , समर साहिब का कीमती मश्वरा सर आँखों पर , दर अस्ल मैं दूसरे शेर से मुतमइन नहीं हो पारहा था जो ख्याल दिमाग में था वो नहीं आ पाया। ..... उसे कुछ इस तरह किया है ------
नागाह हो गए वो मुख़ातिब मेरी तरफ
यूँ ही न अंजुमन में हर इक शख़्स दंग है ।
शुक्रिया
अनुज जयनित भाई,
मेरा इशारा आप समझ गये, मैं तहे दिल से शुक़्रग़ुज़ार हूँ. मैं जो आपको समझाना चाह रहा था, वह आप समझ चुके हैं. धन्यवाद.
शुभ-शुभ
हार्दिक बधाई आदरणीय तस्दीक अहमद खान साहब जी!सुंदर गज़ल!
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |
You need to be a member of Open Books Online to add comments!
Join Open Books Online