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खिसिया जाते, बात बात पर

दिखलाते ख़ंजर

पूँजी के बंदर

 

अभिनेता ही नायक है अब

और वही खलनायक

जनता के सारे सेवक हैं

पूँजी के अभिभावक

 

चमकीले पर्दे पर लगता

नाला भी सागर

 

सबसे ज़्यादा पैसा जिसमें

वही खेल है मज़हब

बिक जाये जो, कालजयी है

उसका लेखक है रब

 

बिछड़ गये सूखी रोटी से

प्याज और अरहर

 

जीना है तो ताला मारो

कलम और जिह्वा पर

गली मुहल्ले साँड़ सूँघते

सब काग़ज़ सब अक्षर

 

पौध प्रेम की सूख गई है

नफ़रत से डरकर

-------------

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

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Comment

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Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 15, 2015 at 9:19am
आदरणीय मिथिलेश जी, मार्गदर्शन के लिए हृदय से आभारी हूँ।
Comment by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on November 15, 2015 at 9:17am
आदरणीय सौरभ जी, मार्गदर्शन के लिए तह-ए-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ।

सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on November 12, 2015 at 11:41pm

आदरणीय बड़े भाई धर्मेन्द्र जी बढ़िया नवगीत हुआ है बधाई. बाकी बातें आदरणीय सौरभ सर ने कह ही दी है. आपकी रचनाओं में आपकी छाप होती है. आपकी शैली की जो पहचान है वह इस प्रस्तुति में दिखाई नहीं दे रही है. फिर वही वही का आभास न जाने क्यों अखर रहा है. खैर ये मेरी समझ की कमी भी हो सकती है. सादर 


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on November 12, 2015 at 11:32pm

आदरणीय धर्मेन्द्रजी, आपसे एक अरसे बाद शायद नवगीत सुन रहा हूँ. इसकेलिए तो हार्दिक बधाई बनती है.

नवगीतों का शिल्प, उसकी दशा और उसका कथ्य सामयिकता को संतुष्ट करता है. नवगीतकार से अपेक्षा भी होती है वह तथ्यों को सटीक और स्पष्ट रूप से प्रस्तुत करे. लेकिन लाक्षणिकता अपने मुखर स्वरूप में होती है. 

आपकी प्रस्तुति इन विन्दुओं को संतुष्ट करती हुई भी कई अर्थों में सायास लग रही है.  

दिखलाते खंजर / पूँजी के बन्दर .. यह व्यंजना कुछ जमी नहीं.

आगे के सारे बिम्ब पूर्वाभासी से हैं. इससे बेहतर होता अभिधात्मकता को प्रश्रय भले न दिया जाता किन्तु कथ्य स्पष्ट होता.

प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई 

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