अरकान- 212 212 212 212
दर्द सीने में अक्सर छुपाती है माँ|
तब कहीं जाकर फिर मुस्कुराती है माँ|
ख़ुद न सोने की चिंता वो करती मगर,
लोरियां गा के हमको सुलाती है माँ|
रूठ जाते हैं हम जो कहीं माँ से तो,
नाज-नखरे हमारे उठाती है माँ|
लाख काँटे हों जीवन में उसके मगर,
फूल बच्चों पे अपनी लुटाती है माँ|
माँ क्या होती है पूछो यतीमों से तुम,
रात-दिन उनके सपनों में आती है माँ|
माँ के मुंह से न छीनों निवाला कभी,
भूखे रहकर जो तुमको खिलाती है माँ|
राम लल्ला समझ अपनी औलाद को,
अपनी बाँहों में झूला झुलाती है माँ|
माँ के दिल को न हर्गिज दुखाओ कभी,
रूप भगवान का लेके आती है माँ|
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
रवि शुक्ला साहेब .... उचित सलाह हेतु आपसब गुणी जनों को नमन|
आदरणीय बैजनाथ भाई , अच्छी ग़ज़ल कही है , हार्दिक बधाइयाँ आपको ।
तब कहीं जाकर फिर मुस्कुराती है माँ -- इस मिसरे मे - जा कर कहने से मिसरा बेबह्र हो रहा है , कर को एक मात्रा नही ले सकते अतः उसकी जगह के - कर लीजिये -- तब नहीं जाके फिर ...
श्याम वर्मा जी..... धन्यवाद|
मनोज साहेब, सही और उचित सलाह के लिए धन्यवाद| .........गुणी जनों के मशवरे की प्रतीक्षा में..... बैजनाथ शर्मा 'मिंटू'|
सुन्दर भाव पूर्ण रचना के लिये आपको बधाइयाँ । |
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