वो ममता मयी छुवन हो
जो माँ की कोख से निकलते ही मिली
या हो उसी गोद की जीवन दायनी हरारत
या
तुम्हारी उंगलियों को थामे ,
चलना सिखाते
पिता की मज़बूत, ज़िम्मेदार हथेली हो
या हो
जमाने की भाग दौड़ से दूर , निश्चिंत
कलुषहीन हृदय से
धमा चौकड़ी मचाते , गिरते गिराते , खेलते कूदते
बच्चे
या फिर स्कूलों कालेजों की किशोरा वस्था की निर्दोष मौज मस्तियाँ
या हो वो जवानी में पारिवारिक , सामाजिक ज़िम्मेदारियों स्वीकारते ,जूझते मज़बूत कान्धे
सब कुछ तो बिना मांगे दिया है
उसी समय ने, सभी को
और स्वीकार किया सभी ने आनंद के साथ
उसी समय ने ,
जिसने आज लगा दी है सफेदी तुम्हारे बालों पर
खींच दी है आड़ी तिरछी रेखायें
अनुभवों की
तुम्हारी शक़्ल से ले कर तमाम जिस्म में
नज़र कमज़ोर् , झुकी कमर , थरथराती ऊँगलियाँ
चढ़ता सूरज भी तो डूब ही जाता है , एक समय
फिर क्यों मुश्किल है स्वीकार पाना
ख़ुद का डूब जाना,
या कहूँ , स्वीकार कर पाना समय की सच्चाई को
और फिर ,
समय को भी तो एक दिन बूढ़ा होना है
चुक जाना है , विलीन हो जाना है
उसी शून्य में
जिसमें विलीन हो मिलती है सभी को
एक नई शुरुवात ॥
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मौलिक एअवँ अप्रकाशित
Comment
समय को भी तो एक दिन बूढ़ा होना है
चुक जाना है , विलीन हो जाना है
उसी शून्य में
जिसमें विलीन हो मिलती है सभी को
एक नई शुरुवात ॥.............गहन अर्थ लिए लिए सार्थक रचना ,बधाई आपको आदरणीय गिरिराज जी
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