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'ममत्व-विस्तार'
'कितने दिन हो गए बेटा .....तुम्हे ...घर को छोड़े हुए।",बहुत दिन बाद मिले अपने बेटे को बूढ़ी माँ ने याचना पूर्वक कहा।
"बेटे! तुम्हे पढ़ाया-लिखाया,काबिल बनाया ताकि तुम ठीक प्रकार से अपनी गृहस्थी और काम सम्भाल सको।पर तुम पर पता नहीं किस पागलपन की धुन सवार है।जो किसी के बारे में नहीं सोचते और किसी कई भी नहीं सुनते।"
"ऐसा क्यों कहती हो माँ कि मैं किसी के बारे में कुछ नहीं सोचता?"
"सोचते तो ,ऐसा बर्ताव करते?कभी घर की सुध लेते हो?"
"माँ!तेरा ये लाल समाज और देश के काम के लिए आगे बढ़ा है और गृहस्थ बन्धन रूपी बेड़ियों में इसे न जकड़ो।तेरा ये लाल ,भारत माता का लाल बनकर उसके लिए जीना चाहता है।इसे इसी भाव बन्धन में बंधे रहने दे।"
"बेटा!जिस रास्ते तू चल निकला है,अपनी इस माँ को तो तू बिलकुल भुला दे रहा है।"
"ऐसा नहीं है माँ।तू हमेशा मेरे साथ है,मेरे हौसलें में,मेरी हिम्मत में,मेरे जज़्बात में और भारत माता का रूप धर पल-पल मेरी याद में........."
मौलिक एवम् अप्रकाशित

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Comment by सतविन्द्र कुमार राणा on October 8, 2015 at 12:43pm
सादर आभार आ शेख साहब अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया देने कइ लिए।
Comment by Sheikh Shahzad Usmani on October 8, 2015 at 8:16am
बहुत सुंदर भावपूर्ण देश-प्रेम की संदेश वाहक रचना।बहुत बहुत बहुत बधाई और शुभकामनाएँ आदरणीय सतविंदर कुमार जी।

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