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समर्पण
“वाह री मर कर भी तर गईं तिवारिन तो” मिथिला काकी ने मंदिर की सीढ़ियों पर बैठी अपनी सखियों के समूह में सुरसुरी छोड़ी..
“वो कैसे बहन जी ?” उन्ही की समवयस्क जानकी ताई ने उत्सुकुता से पूछा.
“अरे कितनी सेवा की थी बहुरिया उनकी और अब उनके सिधारने के बाद अपनी नौकरी छोड़ ससुर की सेवा में लग गई.” मिथिला काकी ने खुलासा किया.
मुहल्ले भर की बुढियों को ईर्ष्या हो उठी स्वर्ग-सिधारी तिवारिन से, कितनी समर्पित बहू मिली है.
घर आते हुए महिला मंडल की बात चीत-सुन रधिया से रहा ना गया. सीधे तिवारी जी की बहू के पास पहुंची और बोली “क्या भाभी कौन सा टोना किए हो पूरे मुहल्ले की औरतों पर?सब तुम्हारे ही गीत गा रहीं हैं सुना है नौकरी भी छोड़ दिए हो? इनकी सेवा करे खातिर ”
“क्या धरा था स्कूल की मास्टरी में दिन भर खटो और महीने के पांच हज़ार.. बाबू जी को सोलह हज़ार तो पेंशन मिलती है और जब तक जीवित हैं बिजली भी मुफ्त...”
मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by TEJ VEER SINGH on August 27, 2015 at 12:03pm

आदरणीय सीमा जी, हार्दिक बधाई , शानदार लघुकथा के लिये!कितनी गहरी सोच थी उस नारी की!काश सब इसी तरह सोचें!

Comment by Archana Tripathi on August 27, 2015 at 9:29am
बहुत ही बेहतरीन रचना ,सेवा भी स्वार्थ से परिपूर्ण।हार्दिक बधाई सीमा जी आपको।

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