पत्थर-दिल पूँजी
के दिल पर
मार हथौड़ा
टूटे पत्थर
कितनी सारी धरती पर
इसका जायज़ नाजायज़ कब्ज़ा
विषधर इसके नीचे पलते
किन्तु न उगने देता सब्ज़ा
अगर टूट जाता टुकड़ों में
बन जाते
मज़लूमों के घर
मौसम अच्छा हो कि बुरा हो
इस पर कोई फ़र्क न पड़ता
चोटी पर हो या खाई में
आसानी से नहीं उखड़ता
उखड़ गया तो
कितने ही मर जाते
इसकी ज़द में आकर
छूट मिली इसको तो
सारी हरियाली ये खा जाएगा
नाज़ुक पौधों की कब्रों पर
राजमहल ये बनवाएगा
रोको इसको
वरना इक दिन
सारी धरती होगी बंजर
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Comment
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय बागी जी
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीेया महिमा जी
आदरणीय धर्मेन्द्र जी, नवगीत विधा पर आपकी पकड़ बहुत ही गहन हुई है, प्रतिक और बिम्बों के साथ जो आपने कारीगरी की है वो काबिले तारीफ़ है, बहुत बहुत बधाई.
जिस भी शिल्प में लिखते हैं ..बहुत खूब लिखते हैं ...बहुत बधाई आपको
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय राम आशरे जी
अपने ने बहुत ही सजीव वरणन किया है आपको बहुत बहुत बधाई हो
तह-द-दिल से शुक्रगुज़ार हूँ आदरणीया राजेश कुमारी जी।
पत्थर का बिम्ब लेकर कितनी सुन्दरता से आज के परिवेश में पूंजीवाद ,वर्गवाद ,भ्रष्टाचार पर कितना सटीक प्रहार किया है नव गीत में ऐसे भाव कम ही देखने को मिलते हैं किन्तु आपको तो ग़ज़लों में भी नव प्रयोग करते देख चुकी हूँ आपकी रचनाएँ लीक से हटकर होने के कारण और रोचक होती हैं इस नवगीत को पढ़कर ऐसा ही लगा बहुत ही बढिया लिखा है आपने देर से पढने का खेद है बहुत बहुत बधाई आ० धर्मेन्द्र जी |
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय मिथिलेश जी। ग़ज़ल के साथ साथ नवगीत भी बड़ी शानदार और सशक्त विधा है और इसमें भी असीम संभावनाएँ हैं। कुछ बातों के साथ ग़ज़ल में पूरा न्याय नहीं हो पाता उन्हें नवगीत के सहारे कहा जा सकता है।
आदरणीय सौरभ जी, नवगीत पर किया गया मेरा प्रयास आपको रुचा और आपसे इतनी विस्तृत समीक्षा लिखवा लाया तो मेरा प्रयास सफल हो गया।
पाठक के तौर पर मैं आपके द्वारा लगाये गये आरोप को तह-ए-दिल से स्वीकार करता हूँ। कारण अच्छे बुरे हो सकते हैं पर अपराध तो अपराध है।
बाकी आपकी एक पाठकीय प्रतिक्रिया हजारों पाठकों की प्रतिक्रिया पर भारी पड़ती है :)।
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