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रमल मुरब्बा सालिम  

2122   2122

क्या  ज़माने आ गये हैं ?

बेशरम  शर्मा  गये  हैं  I

 

था  भरोसा बहुत उनका

वे मगर उकता गये हैं I

 

पोंछ लें आंसू कृषक अब 

स्वर्ण वे  बरसा गये हैं I

 

देखकर   अंदाज   तेरे

हौसले  मुरझा  गये है I

 

लाजिम है हो नशा भी

जाम जब टकरा गये हैं I

 

भौंकते थे जो कभी वह

महफ़िलों में छा गये है I

 

एक झटका था जरा सा

देश तक भहरा गये हैं I   

  

मर रह ही है देव नदियाँ

सिन्धु सब घबरा गये है I

(मौलिक व् अप्रकाशित )

 

 

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Comment

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Comment by vijay nikore on June 11, 2015 at 1:27am

बहुत ही सुन्दर गज़ल, सुन्दर भाव ! बधाई, आदरणीय गोपाल नारायन जी।

Comment by विनय कुमार on June 11, 2015 at 1:19am

सुन्दर ग़ज़ल हुई है आदरणीय  डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी , बधाई क़ुबूल करें. 

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 10, 2015 at 4:33pm

आ० सुनील जी आपका आभार  और  संदेह् दूर करने हेतु धन्यवाद .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 10, 2015 at 4:31pm

आ० अनुज

धन्यवाद .

Comment by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on June 10, 2015 at 1:40pm
बहुत खूब ग़ज़ल हुई है बेशर्म उर्दू शब्द के लिहाज से जितना सही है बेशरम हिंदी के लिहाज से सही लगता है जब शह्र को शहर नर्म को नरम वज्न को वजन लिखा जा सकता है तो...?

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Comment by गिरिराज भंडारी on June 10, 2015 at 12:42pm

आदरनीय बड़े भाई , सुझाव न. 2 को मेरी गलती समझिये और ध्यान न दीजियेगा । मिसरा आपका सही है ।

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 10, 2015 at 12:10pm

आ० नीलेश जी

आपकी सलाह मेरे लिए बड़ा मायने रखती है अनुग्रह बना रहे .  सादर .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 10, 2015 at 12:07pm

आ० वीनस जी

आपकी दृष्टि मेरे लिए आवश्यक भी  है और उपयोगी भी . सादर .

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 10, 2015 at 12:06pm

आ० समर कबीर साहिब

आप लोग मुझे इसी तरह संवारते रहे .सादर . बेशर्म की जगह बेहया ठीक रहेगा क्या?

Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 10, 2015 at 12:04pm

आ० अनुज

बहुत अच्छे सुझाव दिए आपने . सुझाव नं 2 पर फिर विचार करना चाहें . बाकी सुधार मैं  कर लूँगा , सादर .

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