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ग़ज़ल-नूर -अब ख़लाओं की मेज़बानी दे.

२१२२/१२१२/२२ (११२)
या ख़ुदा ऐसी ला-मकानी दे
अब ख़लाओं की मेज़बानी दे.
.
कितना आवारा हो गया हूँ मैं
ज़िन्दगी को कोई मआनी दे.
.
यूँ न भटका मुझे सराबों में
अपने होने की कुछ निशानी दे.      
.
सच मेरा कोई मानता ही नहीं
सच लगे ऐसी इक कहानी दे.
.
मेरी ग़ज़लों की क्यारी सूख गयी  
मेरी ग़ज़लों को थोडा पानी दे.
.
“नूर” को फ़िक्र दे नई मौला
पर नज़र उस को तू पुरानी दे.
.
निलेश "नूर"
मौलिक / अप्रकाशित 

Views: 764

Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 3, 2015 at 9:06am

शुक्रिया आ. वीनस जी..जो यहाँ से सीखा है..यहीं लौटा रहा हूँ 
आभार 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 3, 2015 at 9:05am

शुक्रिया आ. सौरभ सर 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 3, 2015 at 9:05am

शुक्रिया आ. मोहन जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 3, 2015 at 9:05am

शुक्रिया आ. जान गोरखपुरी साहब 

Comment by shree suneel on June 2, 2015 at 9:13pm
कितना आवारा हो गया हूँ मैं
ज़िन्दगी को कोई मआनी दे... व्वाहह!!
ख़ूब.. शानदार..बेहतरीन. .
बधाई.. बधाई. .
Comment by वीनस केसरी on June 2, 2015 at 7:43pm

यूँ न भटका मुझे सराबों में
अपने होने की कुछ निशानी दे.   

एक के बाद एक ... खजाने से नगीने पेश कर रहे हैं ...
क्या कहने ...


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Comment by Saurabh Pandey on June 2, 2015 at 1:35pm

मेरी ग़ज़लों की क्यारी सूख गयी  ....... और तब ये इतनी लहलहायी हुई दिख रही है ! सुबहानअल्लाह !  दिल से दाद लीजिये, आदरणीय..

Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on June 2, 2015 at 11:05am

हर शेर बढ़िया ....बहुत खूब ...सादर 

Comment by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on June 1, 2015 at 10:57pm

यूँ न भटका मुझे सराबों में
अपने होने की कुछ निशानी दे.      
.क्या बात है आ० नूर सर!हार्दिक बधाई!

Comment by Nilesh Shevgaonkar on June 1, 2015 at 10:30pm

शुक्रिया आ. महर्षि जी 

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