" अरे छोटका क माई , देख तो तनिख । काम भर का पत्तल बन गया है न की अउर बनायें "। मुसहराने का दुखिया बहुत खुश था , आखिरकार गाँव में शादी थी और पत्तल उसी के यहाँ से जाती थी ।
" काल तनिक अउर पत्तल बना लेना , कहीं कम न पड़ जाये । याद है न पिछले बियाह में घट गया था पत्तल , केतना गाली सुनाये थे हमको अउर पइसो पूरा नहीं मिला था "। दुखिया ने हामी में सर हिलाया , कइसे भुला सकता था उसको ।
अगले दिन भिन्सहरे ही वो लग गया अउर पत्तल बनाने में , इस बार कम न पड़े । छोटका भी लगा हुआ था उसके साथ और दौड़ दौड़ कर सब काम कर रहा था । शाम तक ढेर सारा पत्तल तैयार था अउर दुखिया खुश था कि इस बार कौनो गड़बड़ नहीं होगा । अब इंतज़ार था अगले दिन का जब गाँव में जा कर पत्तल पहुँचाना था ।
अगले दिन पत्तल का गट्ठर बनाकर दुखिया निकल गया गाँव की ओर । छोटका भी साथ था , गाँव में घुसते ही सजावट दिखने लगी उनको । दोनों ख़ुशी ख़ुशी शादी वाले घर पहुंचे और एक किनारे पत्तल रखकर बैठ गए । बस इंतज़ार कि घर का कोई आये और पत्तल ले । तभी एक जीप आके दरवाजे पर रुकी और घर के लड़के ने मज़दूर को आवाज़ लगायी । मज़दूर जीप से तमाम पैकेट निकालने लगा और उसमे से कुछ पैकेट रेडीमेड थालियों के भी थे । दुखिया को चक्कर आ गया , पिछले एक हफ्ते से हाड़तोड़ मेहनत करके उसने पत्तल बनाये थे । इतने में लड़का उसके पास आया और बोला " अरे दुखिया , अब तो पत्तल का ज़रूरत नहीं है , काहें बइठे हो इहाँ "। दुखिया उसके पैर पर गिर गया और बोला " मालिक , आप ही के इहाँ के लिए बनाया है , आप नहीं लोगे तो हम कहाँ ले जायेंगे इसको "।
लड़के ने अनिच्छा से पत्तल रखवा लिया , साथ में ये भी कह दिया कि अगर जरुरत पड़ी तो इस्तेमाल होगा , नहीं तो वापस ले जाना । दुखिया भारी कदमों से वापस चल पड़ा , छोटका पीछे पीछे था । रात में गाँव में शादी की धूम थी , चारो तरफ बत्तियों की चकाचौंध थी लेकिन दुखिया के हिस्से का उजाला शहर के रेडीमेड थालियों ने छीन लिया था ।
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मौलिक एवम अप्रकाशित
Comment
बहुत बहुत आभार आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी , पुनः प्रयास करता हूँ इसको और बेहतर करने का | मार्गदर्शन करते रहें इसी तरह, सादर.
लड़के ने अनिच्छा से पत्तल रखवा लिया , साथ में ये भी कह दिया कि अगर जरुरत पड़ी तो इस्तेमाल होगा , नहीं तो वापस ले जाना । दुखिया भारी कदमों से वापस चल पड़ा , छोटका पीछे पीछे था । रात में गाँव में शादी की धूम थी , चारो तरफ बत्तियों की चकाचौंध थी लेकिन दुखिया के हिस्से का उजाला शहर के रेडीमेड थालियों ने छीन लिया था ..
उपर्युक्त भाग को और सशक्त करना था, आदरणीय. एक बहुत ही अच्छे प्लॉट को बाँधा है आपने .. दिल से बधाई लें.
बहुत बहुत आभार आदरणीय कृष्ण मिश्रा जान गोरखपुरी जी ..
बहुत ख़ूब! सुन्दर लघुकथा पर बधाई भाई! विनय जी!
बहुत बहुत आभार आदरणीय महर्षि त्रिपाठी जी..
आप की सोच को आपके छोटे भाई का सलाम...आ. vinaya kumar singh जी |
बहुत बहुत आभार आदरणीय डॉ गोपाल नारायण श्रीवास्तव जी, आप की नज़र रचना पर पड़ जाती है तो दिल को तसल्ली मिल जाती है .
वाह !
दुखिया के हिस्से का उजाला शहर के रेडीमेड थालियों ने छीन लिया था ।
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बहुत सुन्दर .
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