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नवगीत (सीमा अग्रवाल)

आवश्यकता नहीं ‘खबर’ अब

है मनोरंजन

 

ओढ़ चुनरिया गाँव गाँव

कूल्हे  मटकाती

चिंता चिंतन  झोंक  भाड़ में

मन  बहलाती

 

शर्त मगर

नाचेगी बैरन

बस तब तक ही

पैरों पर जब तक सिक्कों की 

है खन खन खन

 

कुशल  अदाकारों  के 

जैसी रंग  बदलती

मौसम  जैसा हो वैसे  ही

रोती  हँसती

 

धता बताती घोषित कर

कठहुज्जत जिसको

निमिष मात्रा मे ही

करती उसका अभिनन्दन

 

बौने लम्बे चतुर मसखरों

के चटकारे

बन्दर भालू शेर सुआ

नट-नटनी सारे

 

सम्मोहन में बाँध

दिखातें हैं कुछ का कुछ

 

सर्कस के करतब के जैसी

है मन भावन 

#सीमा  अग्रवाल 

मौलिक एवं अप्रकाशित

Views: 582

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सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on May 10, 2015 at 2:23pm

नवगीत की अवधारणा के पीछे जनहित और लोक-सामर्थ्य की भावना प्रमुख रूप से काम करती है. आजकी ’सूचना’ क्रान्ति जिन विन्दुओं से प्राण पाती है, उनमें से कई विन्दु घनघोर व्यावसायिकता से संजीवनी पाते हैं, जिनके अपने हेतु तो हैं ही, उन विन्दुओं के अपनी व्याख्याएँ भी है. इन हेतुओं और व्याख्याओं से साहित्य प्रभावित है, तो उसका भरपूर प्रतिकार भी करता है.

आदरणीया सीमाजी का प्रस्तुत नवगीत अपने रचनाकर्म के प्रति सचेत है. साहित्य-समझ और और उसके प्रति धर्म-निर्वहन केलिए जो आवृति होनी चाहिये, प्रस्तुत नवगीत पूरी तरह से संतुष्ट कर रहा है.

समाचार और सूचनाएँ जिस तरह से अब दायित्व न हो कर रंजन की श्रेणी के आइटम हो गये हैं वह एकबारग़ी तो सिहरा देता है. संवेदनहीन समाचार-सूचना घरानों और उनके चैनलों के व्यवहार समाज की इकाइयों (व्यक्ति) की सोच और उनकी तत्परता को किस निर्लज्जता के साथ भोथर करते जा रहे हैं, उसके प्रति नवगीतकार पूरी तरह से मुखर है.

प्रस्तुति की शैली आवश्यकतानुरूप व्यंग्यात्मक है तथा भाषा-शिल्प, बिम्ब और कथ्य आशानुरूप अभिव्यंजनात्मक हैं, अतः सटीक हैं.
इस नवगीत को साझा कर आदारणीया सीमाजी ने नवगीतकार के धर्म का निर्वहन किया है.
इस प्रखरता के साथ इस विषय को संतुष्ट करने केलिए सादर बधाइयाँ आदरणीया सीमाजी.

Comment by seema agrawal on May 5, 2015 at 12:51am

शुक्रिया महिमा

Comment by seema agrawal on May 5, 2015 at 12:50am

शुक्रिया विजय शंकर जी

Comment by seema agrawal on May 5, 2015 at 12:50am

शुक्रिया आशुतोष मिश्रा जी

Comment by seema agrawal on May 5, 2015 at 12:49am

शुक्रिया गिरिराज भंडारी जी .........जिस देश में फांसी जैसे कार्यक्रमों को स्पोंसर मिल जाते हैं तो वहाँ खबर तो मनोरंजन ही हो गयी ना


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on May 3, 2015 at 9:11pm

आदरणीया सीमा जी ,  आज की बिकाऊ मीडिया पर अच्छा प्रहार किया है !! दिली बधाई रचना के लिये ॥

Comment by Dr Ashutosh Mishra on May 2, 2015 at 11:40pm

आदर्नीया सीमा जी ..वर्तमान परिदृश्य पर बिलकुल खरी उतरती इस शानदार रचना के लिए हार्दिक बधाई सादर 

Comment by Dr. Vijai Shanker on May 2, 2015 at 8:18pm
सुन्दर, " दिखातें हैं कुछ का कुछ " वास्तविकता यही है , हमारे यहां वैसे भी उपभोक्ता संस्कृति नहीं है, परोसने वाले की संस्कृति हैं , उसी का वर्चस्व चलता है।
बधाई , इस प्रस्तुति पर आदरणीय सुश्री सीमा अग्रवाल जी, सादर।
Comment by MAHIMA SHREE on May 2, 2015 at 8:08pm

आज के मिडिया के व्यवहार को  रेखांकित करती नवगीत के लिए बहुत बहुत बधाई आ. सीमा दी, सादर

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