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इस जिंदगी का क्या भरोसा ये मुद्दा है गौर का |

२२१२ २२१२ २२१२ २२१२ - रजज मुसम्मन सालिम
कोई दबा घर में कहीं      आशा लगाये और का |
इस  जिंदगी का क्या भरोसा ये मुद्दा है गौर का |
बारिश कहीं आँधी कहीं आकर गिराये घर नगर  ,
अपना नहीं ज़िंदा बचा सोचा नहीं इस दौर का |
कुदरत  करे ये खेल  कैसा जान लेकर छोड़ता ,
ठोकर कहीं धक्का कहीं आशा नहीं है ठौर का |
नाजुक कली कैसे बचे  माली लगाये मार जब ,
कोई  बचे कैसे कहीं कुदरत हिलाये  कौर  का |
जब साँस है तब आश है फिर है जहाँ की खुशी ,
ये जिंदगी कैसे रुके जब आश ना हो मौर  का |
देता सहारा कोई  जब जीवन बचा भी हो कहीं ,
वर्मा गया कोई जहाँ से फिर कहाँ वो और का |
श्याम नारायण वर्मा 
(मौलिक व अप्रकाशित)

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Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on May 1, 2015 at 11:51am

आदरणीय अच्छी गजल कही आपने .

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