22 22 22 22 22 2
दरवाज़े पर देखो कोई आया क्या ?
अपने हिस्से का कोलाहल लाया क्या ?
ख़ँडहर जैसा दिल मेरा वीराना, भी
खनक रही इन आवाज़ों को भाया क्या ?
कुतिया दूध पिलाती है, बंदरिया को
इंसाँ मारे इंसाँ को, शर्माया क्या ?
फुनगी फुनगी खुशियाँ लटकी पेड़ों पर
छोटा क़द भी, तोड़ उसे ले पाया क्या ?
सारे पत्थर आईनों पर टूट पड़े
कोई पत्थर ,पत्थर से टकराया क्या ?
जुगनू सहमा सहमा सा क्यों लगता है
कोई सूरज फिर उसको धमकाया क्या ?
खाली जाम सुराही प्याले पूछ रहे
किसी समस्या का निदान भी पाया क्या ?
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गिरिराज भंडारी
Comment
आ० अनुज
पहले तो मुझे' दरवाजे में 'पर आपत्ति है i दरवाजे पर कोई आयेगा i फिर आपने शायद इसे समय कम दिया i सादर ,
आदरणीय नीलेश भाईजी, यह आप सबों की सदाशयता ही है कि मेरी थोड़ी-बहुत समझ भी किसी काम आ जाती है और उसे आप और गिरिराजभाई जैसे धुरंधर ग़ज़लगो मान दे देते हैं. हम सब समवेत ही सीख रहे हैं आदरणीय. अपना यह स्कूल चलता रहे.
आपने सही पकड़ा, आदरणीय. इस बहर की खुसूसियत (विशेषता) ही लय है. अगर इस बहर पर आधारित मिसरों की लय बाधित है तो फिर कोई ग़ाफ़ और लाम काम नहीं आते. :-)))
सादर
आदरणीय गिरिराजभाईजी, उम्मीद है, मैं जो कहना चाहता हूँ वह संप्रेषित हो पाया है.
शिल्प पर यथोचित पकड़ बनते ही कहन को साधने का प्रयत्न आवश्यक हो जाता है. अन्यथा कई गूढ़ और गहन बातें सही ढंग से न कही जाने के कारण सामान्य-सी दिखने लगती हैं. संवेदनशील मन बहुत कुछ चौंकाता हुआ सोचने और लिखने का कारण होता है. लेकिन कहन या कथ्य यदि सान्द्र या व्यवस्थित न हों, तो शिल्प की उच्च जानकारी भी धरी की धरी रह जाती है. इसी स्तर के रचनाकारों से भाव पक्ष पर ध्यान देने को कहा जाता है. लेकिन होता यह है कि शिल्प और विधान के अभ्यासी इस बात को पकड़ कर बैठ जाते हैं और इससे सम्बन्धित उद्धरण देते हुए शिल्प तथा विधान की हेठी करने लगते हैं. इतना ही नहीं, इसी बिना पर शिल्प और विधान को सीखने से कतराने लगते हैं. जबकि दोनों बातें दो स्तरों के अभ्यासियों के लिए हुआ करती हैं..
सादर
बहुत खूब आ. गिरिराज जी.
आ. सौरभ सर के सुझाव न सिर्फ मिसरों तक सिमित है अपितु लय को साधने का क्रैश कोर्स भी हैं.
सादर
आदरनीय सौरभ भाई , गज़ल पर आपकी उपस्थिति , उचित सलाह और सराहना के लिये आपका आभारी हूँ । आदरनीय समय तो बहुत दिया था , एक महीने से ऊपर , पर कहन धीरे धीरे ही सुधरेगी ऐसा लगता है , सोच को विस्तार देना और गहराना दोनो बाक़ी है , प्रयास रत हूँ ।
आपके सुझाये सभी मिसरे लाजवाब हैं , इन्हे ऐसे ही स्वीकार करता हूँ , आवश्यक बदलाव ज़रूर कर लूंगा । आपका आभार ॥
अच्छे प्रयासों से निखरती हुई ग़ज़ल ध्यान खींचती है, आदरणीय गिरिराज भाई. हार्दिक शुभकामनाएँ
वैसे कुछ शेरों को तनिक और समय मिलता तो वे और तार्किक एवं और अधिक संप्रेषणीय हो सकते थे.
जैसे
दरवाज़े में देखो कोई आया क्या ? दरवाज़े में देखो कोई आया क्या ?
कोलाहल थोड़ा सा कोई लाया क्या ? अपने हिस्से का कोलाहल लाया क्या ?
ख़ँडहर जैसा दिल मेरा वीराना, भी ख़ँडहर जैसा मेरा दिल वीराना भी
आवाजों को ज़रा ज़रा सा भाया क्या ? खनक रही इन आवाज़ों को भाया क्या ?
सारे पत्थर आईनों पर टूट पड़े सारे पत्थर आईनों पर टूट पड़े
पत्थर से पत्थर कोई टकराया क्या ? कोई पत्थर पत्थर से टकराया क्या ?
आदि ............
ऐसी मेरी सोच बन रही है. आगे आप भी देखियेगा ..
सादर
आदरणीय लक्ष्मण भाई , गज़ल की सराहना के लिये आपका हार्दिक आभार ॥
अस बह्र मे 22 को 112 . 121 , 211 करने की छूट है , बस आप लय को साथ साथ साधते चलिये । कहने का मतलब ये कि 1 मात्रिक को अकेला नहीं छोडते अगल बगल और 1 मात्रिक ले कर 2 कर लिया जाता है । प्रयास रहे कि मात्रा गिराना न पड़े , पर इसके भी अपवाद मिलते हैं ॥
आ0 भाई गिरिराज जी सुंदर गजल हुई है । हार्दिक बधाई स्वीकारें । साथ ही आपसे निवेदन है कि बह्र की तकतीअ करने के तरीके का मार्गदर्शन करें इन दो पंक्तियों का वज्न किस प्रकार निर्धारित हुआ है । और किस नियम के तहत । जिससे मुझ जैसे लोगों को लाभ प्राप्त हो सके l
किसी समस्या का निदान भी पाया क्या ?
12 1 2 2 2 121 2 22 2
आवाजों को ज़रा ज़रा सा भाया क्या ?
2 2 2 2 12 12 2 22 2
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