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"बापू, हमारे साथ शहर क्यों नहीं चलते ?"
"शहर जा बसेंगे तो खेती कौन करेगा ?"  
"क्या रखा है खेती में ? कभी सूखा फसल को मार जाता है तो कभी बेमौसम बरसात।"
"तुम्हें कैसे समझाऊँ बेटा।"
"खुल कर बताओ बापू, दिल पर कोई बोझ है क्या ?"
"ये अन्नदाता की उपाधि का बोझ है बेटा, तुम नहीं समझोगे ।"      
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(मौलिक एवँ अप्रकाशित)

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Comment by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on April 22, 2015 at 6:58am

जी बिकुल सही कहा अन्नदाता पर जुम्मेवारियाँ बहुत हैं ....और सरकार ये नहीं समझती सिर्फ़ राजनीती बस और कुछ नहीं ...सादर 

Comment by shree suneel on April 22, 2015 at 1:56am
परिस्थितियां ऐसी कि जिस उपाधि पे गौरवान्वित होना था वही बोझ सी लगने लगी.
इस लघु-कथा के लिए बधाईयां आदरणीय.

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Comment by मिथिलेश वामनकर on April 21, 2015 at 11:18pm

किसान की विवशता को प्रभावकारी ढंग से व्यक्त करती सशक्त और सफल लघुकथा पर हार्दिक बधाई निवेदित है आदरणीय योगराज सर.

बहुत दिनों बाद प्रेमचंद की धारा की कोई रचना पढने मिली है जिसमें कृषक वर्ग में मर्म को इतनी बारीकी से अभिव्यक्त किया गया है. इस रचना के लिए धन्यवाद.

Comment by Dr. Vijai Shanker on April 21, 2015 at 11:07pm
.... और बोझ का आत्म-बोध है।बहुत खूब , बहुत सुन्दर लघु-कथा , आदरणीय योगराज प्रभाकर जी , बधाई, सादर।
Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on April 21, 2015 at 9:10pm

बहुत ही संवेदनशील लघुकथा, सर. दिल को छू गई. ह्रदय से बधाईयाँ आपको

Comment by MAHIMA SHREE on April 21, 2015 at 8:09pm

आह.......... इसे पढ़ कर बस यही हूक उठी.। किसानों की हालत 15-16 में इतनी दयनीय हो गई है कि आत्महत्या ही उन्हें इससे छुटकारा पाने का एकमात्र उपाय लगता है .लघुकथा में किसान की विवशता को कम शब्दों में व्यक्त किया गया है जो बेहद प्रभावशाली तरीके से आया है। बधाई स्वीकार करे आ. योगराज सर

Comment by केवल प्रसाद 'सत्यम' on April 21, 2015 at 7:26pm

आ0 प्रभाकर सर जी,   सादर प्रणाम!  एक सम्वेदंनशील कथा.  ढेरो बधाईया स्वीकार करे. सादर


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by rajesh kumari on April 21, 2015 at 7:14pm

प्राकर्तिक एवं राजनैतिक मार से दुखी ,हताश एक जिम्मेदार कृषक की अंतरात्मा की आवाज है ये लघु कथा बहुत मार्मिक ...दिल से बधाई लीजिये आ० योगराज जी,इस सशक्त लघु कथा पर.  

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