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कहते हैं इल्ज़ाम छुपाकर रक्खा है
मैंने तेरा नाम छुपाकर रक्खा है.
.
झाँक के देखो मेरी इन आँखों में तुम
अनबूझा पैग़ाम छुपाकर रक्खा है.
.
शायद वो हो मुझ से भी ज़्यादा प्यासा
उसकी ख़ातिर जाम छुपाकर रक्खा है.
.
जिसको तुम सब कहते हो ईमाँ वाला,
उसने अपना दाम छुपाकर रक्खा है.
.  
आया है वो आज जुबां पर गुड लेकर
शायद कोई काम छुपाकर रक्खा है.
.
मस्जिद की दीवार किनारे तुलसी ने
अपने मन का राम छुपाकर रक्खा है.  
.
लोग भला समझेंगे इस रिश्ते को क्या
‘नूर’ इसे गुमनाम छुपाकर रक्खा है.
.
नूर 

मौलिक/ अप्रकाशित 

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Comment

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Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 26, 2015 at 5:43pm

शुक्रिया दुबे जी 

Comment by Nilesh Shevgaonkar on March 26, 2015 at 5:42pm

शुक्रिया मिथिलेश जी 


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on March 26, 2015 at 4:50pm

आदरणीय निलेश जी ,बेहतरीन और उम्दा ग़ज़ल हुई है, शेर दर शेर दाद कुबूल फरमाएं. 

Comment by Hari Prakash Dubey on March 26, 2015 at 10:23am

आदरणीय निलेश जी ,सुन्दर रचना , हार्दिक बधाई ,ये शे'र तो लाजवाब हैं ..... 

जिसको तुम सब कहते हो ईमाँ वाला,
उसने अपना दाम छुपाकर रक्खा है.

मस्जिद की दीवार किनारे तुलसी ने
अपने मन का राम छुपाकर रक्खा है.  ....वाह ,बहुत ही उर्वर !

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