221-1222-221-1222
पत्थर से तेरे दिल को मैं मोम बना दूँ तो
चिंगारी दबी है जो फिर उसको हवा दूँ तो.
इस शहर में चर्चे हैं तेरे रूप के जादू के
मैं अपनी मुहब्बत का इक तीर चला दूँ तो.
क्या नाज़ से बैठी हो फागुन के महीने में
मैं रंग मुहब्बत का थोड़ा सा लगा दूँ तो.
तुम कहते हो होली में इस बार न बहकूँगा
गुझिया व पुओं में मैं कुछ भंग मिला दूँ तो.
गर जेल मुहब्बत है, आजाद नहीं होना
ता उम्र सजा दे दो जो नींद उड़ा दूँ तो.
ये बात समझ लेना चाहत है मेरी सच्ची
सपनों में अगर आकर रातों को जगा दूँ तो.
Comment
लघुकथाओं के बाद आपकी ग़ज़ल भी प्रभावित कर रही है बहुत बहुत बधाई आपको इस रचना के लिये
तुम कहते हो होली में इस बार न बहकूँगा
गुझिया व पुओं में मैं कुछ भंग मिला दूँ तो.
गर जेल मुहब्बत है, आजाद नहीं होना
ता उम्र सजा दे दो जो नींद उड़ा दूँ तो.
आदरणीय गणेश जी बागी साहब ,उम्दा ग़ज़ल हुई है |ढेरों दाद कबूल फरमावें |सादर |
आदरणीय गणेश जी
सुन्दर ग़ज़ल कही है... ऐसा मुलायम अंदाज आपकी कलम से कम ही देखा है..पर आपने बहुत खूब निभाया है...
पत्थर से तेरे दिल को मैं मोम बना दूँ तो
चिंगारी दबी है जो फिर उसको हवा दूँ तो...............बहुत खूबसूरत मतला
इस शहर में चर्चे हैं तेरे रूप के जादू के
मैं अपनी मुहब्बत का इक तीर चला दूँ तो...........वाह! ये भी बहुत मुलायम अंदाज़..क्या मासूमियत से इजाज़त माँगी है?....हाहाहा
बहुत बहुत बधाई
शायद ,मंच पर आपकी पहली गज़ल से रूबरू हूँ |पर जिस प्रकार का आनन्द आपकी लघुकथाएँ देती रही हैं वैसे ही अंदाज़े-बयाँ से लबरेज़ है ये गज़ल
गर जेल मुहब्बत है, आजाद नहीं होना
ता उम्र सजा दे दो जो नींद उड़ा दूँ तो.
इस शे'र पर विशेष दाद
सराहना हेतु आभार आदरणीय निर्मल नदीम जी.
उत्साहवर्धन करती टिप्पणी हेतु आपका आभार आदरणीय हरिप्रकाश दुबे जी.
सराहना युक्त प्रतिक्रिया हेतु आभार आदरणीय कृष्णा मिश्रा जी.
सराहना हेतु आभार प्रिय महर्षि जी.
आदरणीय डॉ विजय शंकर जी, ग़ज़ल पर आपका आगमन और उत्साहवर्धन दोनों मुग्धकारी है, बहुत बहुत आभार आपका.
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