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कैसे होते हैं ये रिश्ते
कभी दूर, कभी पास
कभी अपने, कभी पराये
कभी सच्चे, कभी झूठे
कभी नादाँ, कभी ग़मगीन
कभी उम्रदराज़, कभी कमसिन
कभी हठीले, कभी गर्वीले
तो कभी कभी सिफारशी भी होते हैं ये रिश्ते
कभी कभी गुमनाम भी होते हैं रिश्ते
कभी कभी बदनाम भी हो जाते हैं रिश्ते
कभी एक दुसरे को कसूरवार भी ठहराते हैं रिश्ते
कभी कभी निभ जाते और कभी कभी निभाने भी पड़ते हैं रिश्ते
कभी अपनी खातिर और कभी दूसरों के लिए वक़्त मांगते हैं रिश्ते
कभी खुद में सिमट जाते और कभी रुस्वा भी हो जाते हैं रिश्ते
क्या इंसा इन रिश्तों से बच पाया है, बच सकता है
जब तक है सांस, निभाते ही तो हैं रिश्ते
तो क्यों न इन रिश्तों को मन से निभाएं
बोझ न समझें और हमेशा मुस्कुराएं
क्योंकि रिश्तों की ख़ूबसूरती इसी में है
आप भी मुस्कुराएं और जग भी मुस्कुराये

मौलिक एवं अप्रकाशित

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Comment by Anurag Goel on February 5, 2015 at 11:04am

आदरणीय बेगोवालजी आपका हार्दिक धन्यवाद 

Comment by मोहन बेगोवाल on February 4, 2015 at 11:34pm

सुंदर कविता के लिए धन्यवाद कबूल करें

Comment by Anurag Goel on February 4, 2015 at 6:28pm

परम श्रेष्ठ हरी जी आपका बहुत आभार आपका मार्ग दर्शन भी अपेक्षित है

Comment by Anurag Goel on February 4, 2015 at 6:26pm

आदरणीय सविता जी हृदय से धन्यवाद

Comment by Anurag Goel on February 4, 2015 at 6:26pm

आदरणीय गिरिराज जी आपका बहुत बहुत आभार एप प्रेरणा और मार्गदर्शन मिलता रहेगा ऐसी आशा है

Comment by Anurag Goel on February 4, 2015 at 6:25pm

आदरणीय जीतेन्द्र जी हृदय से धन्यवाद

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on February 4, 2015 at 4:42pm

बहुत सुंदर, आदरणीय अनुराग जी.


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by गिरिराज भंडारी on February 4, 2015 at 1:42pm

आदरणीय अनुराग  भाई , अच्छी रचना हुई है , आपको हार्दिक बधाई ।

Comment by savitamishra on February 3, 2015 at 10:58pm

बहुत सुन्दर

Comment by Hari Prakash Dubey on February 3, 2015 at 8:41pm

आदरणीय अनुराग गोयल जी , आदरणीय मिथिलेश जी की बात से सहमत हूँ ,आपका ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार में स्वागत है ,रचना सुन्दर भावों से सजी है , बस ये “कभी” शब्द कई बार आ गया है ,आपको हार्दिक बधाई !

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