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गुरू दक्षिणा (लघुकथा) :कान्ता राॅय

" वाह !! बहुत खूब रितेश गुप्ता , तुमने संस्था का नाम ऊँचा किया है । हम सबको तुम पर गर्व है । " पीठ थपथपाकर मोहित सर ने जब शाबाशी दी तो रितेश दर्प से भर उठा ।
" सर , सब आपके मार्ग दर्शन का ही नतीजा है । "
" फिर तो मुझे गुरू दक्षिणा भी मिलना चाहिए तुम से । " मोहित सर की बाँछे खिल उठी ।
" क्या बात करते है सर ...? लाखों रूपयों की फीस के बाद अब यह गुरू दक्षिणा भी ___ ...? "

कान्ता राॅय
भोपाल
मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by Hari Prakash Dubey on January 24, 2015 at 7:12pm

आदरणीया, सुन्दर रचना पर हार्दिक बधाई आपको ! बाकी गुरुदेव डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव सर ने कह ही दिया है ! सादर 

Comment by Rahul Dangi Panchal on January 24, 2015 at 6:32pm
वाह वाह आदरणीय बिल्कुल सही जगह प्रकाश डाला है बहुत सुन्दर बधाई हो!
Comment by kanta roy on January 24, 2015 at 2:59pm
आ.डाॅ.गोपाल नारायण श्रीवास्तव सर जी , आपका बहुत बहुत आभार इस बेहद महत्वपूर्ण हौसला वर्धक मार्ग दर्शन के लिए । आपने मेरी कमजोरी का अवलोकन किया ।मै उम्मीद करती हूँ कि आपके मार्ग दर्शन मेरे लिए बहुत ही उपयोगी सिद्ध होगी आगामी रचनाओं में ।आभार
Comment by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 24, 2015 at 1:32pm

कांता  जी

पंच लाइन  पर ही अटक जाती है आप ----- यदि ऐसा कहें-

" क्या बात करते है सर ...? लाखों रूपयों डोनेशन देने  के बाद अब यह  गुरु-दक्षिणा भी  -------...? "

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