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गुरू लीला (लघुकथा) : कान्ता राॅय

धर्म के प्रति प्रगाढ़ आस्था के कारण ही सुधा आज घर द्वार सब त्याग गुरू आश्रम चली आई ।

"सुना है गुरूदेव आज रात खास आयोजन करने वाले है । जाने आज किसका भाग्योदय होने वाला है? " आश्रम में सुगबुगाहटें जारी थी ।

लगभग १२ बजे सभा गृह में सब गुरू सेविकायें उपस्थित थी कि सहसा गुरूदेव का आगमन हुआ । पीताम्बर धारण किये हुए, सिर पर मोर मुकुट सजाये हुए आज गुरूदेव कृष्ण रूप में रास के लिए राधा का चयन करने वाले थे ।

कृष्ण रूपी गुरूदेव जब सुधा के सामने ठिठके तो उसका हृदय रो उठा ।गनीमत यह हुई कि गुरु -कृष्ण ने आगे बढ़ कर एक अन्य सेविका को अपने अंग से लगाया और अंदर कक्ष में चले गये ।सुधा तत्क्षण अपने घर वापस लौट आई ।


कान्ता राॅय
भोपाल

मौलिक और अप्रकाशित

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Comment by kanta roy on January 29, 2015 at 12:12pm
आ.हरिकृष्ण ओझा जी , आप की कथा को समझने की योग्यता आपकी कमेंट से जाहिर होती है । मै नहीं जानती आपको लेकिन कमेंट पढकर जितना जान पायी हूँ आपके समझ पर अफसोस ही जाहिर कर सकती हूँ । आभार
Comment by harikishan ojha on January 29, 2015 at 11:20am

आदरणीय कांता राय जी बिहार में एक बाप ने अपनी बेटी के साथ  बलात्कार किया तो क्या पुरे देश के बाप दोषी हो गएI जिन लोगो ने ऐसा किया वो जेल में हैI अपने देश में क्या विडम्बना है लोग भगवान( कृष्ण जी)  का नाम बदनाम करके खुद नाम कमा रहे हैI सेकुलर का मतलब समानता है न की अपनी आस्था को दांव पर लगाकर ये साबित करना की में ज्यादा  सेकुलर हुI ये कोरी बेवकूफी होगीI    शुक्रिया

Comment by kanta roy on January 26, 2015 at 9:59am
बहुत बहुत आभार आप सब को आ. राजेश कुमारी जी , आ.विरेन्द्र मेहता जी , आ.सोमेश कुमार जी ,आ.जितेन्द्र पस्टारिया जी ,आ. हरि प्रकाश दुबे जी ,आ. इंजी.गणेश जी "बागी" जी , आ.मिथिलेश वामनकर जी ,आ.सौरभ पाण्डेय जी मेरा हौसला वर्धन के लिए ।

जी हाँ , यह बिलकुल सही है कि इन बाबाओं के समक्ष थाली परोसा जाता है ।धर्म के नाम पर जनता सदा से बहकती आई है क्या औरत क्या मर्द । देखिए अभी का हाल बाबा सारे सबूतों के साथ जेल में बंद है और बाबा अनुयायियों का धरना बाहर जगह जगह । उनमें जितनी ही औरतें है उतने ही बेहद पढे लिखे शिक्षित वर्ग के लोग भी । बाबाओं की बाबागिरी को बढावा देने में आज के पढें लिखे भी शामिल है । मैने अपनी मुल कथा में सुधा को सुबह होते ही पुलिस स्टेशन में कृष्ण रूपी गुरू लीला का भाँडा फोड़ रही थी । कुछ सोच कर वह पंक्ति मैने यहाँ नहीं डाली थी ।
आज जितने भी बाबाओं का भाँडा फोड़े गये है उनमें अधिकतर औरतों ही कारण रही है । अब स्त्रियों में जागरूकता आई है । कुछ ब्लैकमेल कर ली जाती है ।बहुत से कारण होते है स्त्रियों की चुप्पी के पीछे , चाहे घर के अंदर हो या बाहर । आभार

सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 25, 2015 at 5:08pm

//लघुकथा की नायिका वापस उस क्षण नहीं मुड़ी, वो तो उसका नंबर तत्क्षण नहीं लगा या कहे कि उसका कॉल ड्राप हो गया और नंबर किसी और का लग गया वर्ना .. //

हा हा हा हा... . सही बात ..

लेकिन, भइया, इस प्रस्तुति के आलोक में मेरे प्रश्न वहीं हैं. ऐसे कई प्रश्नों का उत्तर न मिलना या मिल पाना ही ऐसे वातावरण और ऐसी घटनाओं का कारण बन रहा है.


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 25, 2015 at 4:52pm

//वो तो भला हो कि लघुकथा ने नायिका सुधा को वापस मुड़ गयी. वर्ना ’अभिभूत समुदाय’ की एक सदस्य वह भी होती और ’बाबाजी’ के नित-नये दैहिक-भौतिक चमत्कारों की साक्षी बनती रहती. //

ना ना ना, लघुकथा की नायिका वापस उस क्षण नहीं मुड़ी, वो तो उसका नंबर तत्क्षण नहीं लगा या कहे कि उसका कॉल ड्राप हो गया और नंबर किसी और का लग गया वर्ना ......


सदस्य टीम प्रबंधन
Comment by Saurabh Pandey on January 25, 2015 at 4:21pm

इधर पचीसेक वर्षों में ही यह परिपाटी आम हुई है. और इन्हीं पचीसेक वर्षों में दो-एक पूरी पीढ़ियाँ जवान हुई है. इन्हीं पीढ़ियों ने ऐसे-ऐसे लफंदरों को बाबा-गुरु के नाम से सुनना-जानना शुरु किया है. यही लफंदर लोग आजके लोगों के लिए बाबा-गुरु के पारिभाषिक रूप हो गये हैं. अन्यथा ऐसे बाबा अबतक कहाँ थे ? क्यों इधर बीस-तीस वर्षों में ही अचानक ऐसों की बन आयी है ? सही कहा गणेश भाई ने, ताली एक हाथ से कभी नहीं बजती. 

’समोसा-चटनी’ खाने के नाम पर अभिभूत हुए जाते हम लोग, ’समोसा-चटनी’ ही क्यों ’इडली’ तक खिलाये जाते हैं. क्या आश्चर्य ?

हम स्वयं कितना अध्ययन करने के आग्रही हैं ? हमने क्या कभी जानना चाहा है कि छांदोग्यपनिषद में क्या है ? कठोपनिशद में आखिर निवेदित क्या हुआ है ? योगसूत्र के सूत्र कहते क्या हैं ? पंचदशी के खण्डों में उद्धृत क्या हुआ है ? इन्हें छोड़िये, गीता में ही कुल कितने श्लोक हैं ? नाः.. ये सब कौन करे ? हम अपनी नौकरी, अपने घर-बार देखें या यही सब बैठ कर घोंटें ?

फिर मानसिक खोखलेपन का सीधा-साधा उपाय है न ! बाबाजी लोगों का मंतर ! इन बाबाजी लोगों की मार्केटिंग का कन्ज्यूमर बनना अधिक सरल है ! है न ? फिर हम दोष इन ’दाढ़ी बढ़ाऊ’ धूर्त व्यापारियों को क्यों दें ? एसेटिक लाइफ़ का मतलब क्या होता है इसकी जानकरी हमें स्वयं ही नहीं है, तो फिर इन लफंदरों के मकड़जाल और उनकी सम्मोही विलासिता से अचंभित-आतंकित हम आखिर क्यों न हों ?

वो तो भला हो कि लघुकथा ने नायिका सुधा को वापस मुड़ गयी. वर्ना ’अभिभूत समुदाय’ की एक सदस्य वह भी होती और ’बाबाजी’ के नित-नये दैहिक-भौतिक चमत्कारों की साक्षी बनती रहती.

ऐसी संवेदनशील ही नहीं जागरुक करती लघुकथा के लिए हार्दिक धन्यवाद आदरणीया कान्ताजी.
शुभेच्छाएँ


सदस्य कार्यकारिणी
Comment by मिथिलेश वामनकर on January 25, 2015 at 3:52pm

बहुत सही कहा आदरणीय बागी सर, बिलकुल सटीक टिप्पणी - कहना मुश्किल है कि कौन अधिक दोषी ! थाली परोसने वाला या भोग लगाने वाला. 


मुख्य प्रबंधक
Comment by Er. Ganesh Jee "Bagi" on January 25, 2015 at 3:16pm

ताली एक हाथ से नहीं बजती, हम थाली में व्यंजन परोसते हैं तो कथित गुरु भोग लगाते हैं, कहना मुश्किल है कि कौन अधिक दोषी ! थाली परोसने वाला या भोग लगाने वाला. 

अच्छी लघुकथा आदरणीया कांता रॉय जी.

Comment by Hari Prakash Dubey on January 24, 2015 at 8:09pm

सुन्दर , आज के सत्य को ब्यान करती सार्थक लघुकथा ,बधाई आदरणीया कांता जी! सादर 

Comment by जितेन्द्र पस्टारिया on January 24, 2015 at 7:21pm

सुंदर कथा. पाखंडी साधुओ पर करारा प्रहार. बधाई आदरणीया कांता जी

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