कौन जाने ?
बद्दुआओ में होता है असर
वाणी के जहर
ये काटते तो है
पर देते नहीं लहर
पुरा काल में
इन्हें कहते थे शाप
ऋषियों-मुनियों के पाप
दुर्वासा इसके
पर्याय थे आप
भोगता था
अभिशप्त वाणी की मार
कभी शकुन्तला
या अहल्या सुकुमार
आह !आह ! ऋषि के
वे वाक्-प्रहार
मोक्ष भी
होता कभी शाप वह घोर
हंसता अभिशप्त का
जीवन मरोर
दुख के अर्णव में
सारे सुख बोर
उनका शाप
विष-बुझे तीर सा चले
गये सदैव निबल ही
मुनि-सिद्ध से छले
वे ही समाज के थे
जीव भी भले
कभी-कभी
हम भी देते हैं बद्दुआ
पर बताओ कभी कुछ
असर भी हुआ
किसी को वाणी के
जहर ने छुआ
तब बतलाओ
मेरे मन के मधुर मौन
हम में और उनमे
दोनों में
श्रेष्ठ कौन ?
(मौलिक / अप्रकाशित )
Comment
श्याम नारायन वर्माजी
आपका आभार i सादर i
उमेश कटारा जी
आपका बार बार आभार i
मिथिलेश वामनकर जी
आपका आभार i आप स्वयं बहुत अच्छा लिखते हैं फिर यह विकार क्यों ? आपकी यह विनम्रता आपको महान बनाती है i सादर i i
आदरनीय बड़े भाई गोपाल जी , इस बेमिसाल गीत रचना के लिये हार्दिक बधाइयाँ स्वीकार करें ।
कभी-कभी
हम भी देते हैं बद्दुआ
पर बताओ कभी कुछ
असर भी हुआ
किसी को वाणी के
जहर ने छुआ
तब बतलाओ
मेरे मन के मधुर मौन
हम में और उनमे
दोनों में
श्रेष्ठ कौन ?
वाह आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी आपकी ये रचना बहुत ही गहन अर्थ को समेटे है। इस सार्थक प्रस्तुति के लिए हार्दिक बधाई।
तब बतलाओ
मेरे मन के मधुर मौन
हम में और उनमे
दोनों में
श्रेष्ठ कौन ?
आदरणीय गोपालनारायण जी उम्दा रचना हुई है |सादर अभिनन्दन |
बेहद उम्दा हार्दिक बधाई आपको |
सादर ............
कभी-कभी
हम भी देते हैं बद्दुआ
पर बताओ कभी कुछ
असर भी हुआ
किसी को वाणी के
जहर ने छुआ,,,,,,,,,वाह सर बेहतरीन
कभी-कभी
हम भी देते हैं बद्दुआ
पर बताओ कभी कुछ
असर भी हुआ
किसी को वाणी के
जहर ने छुआ
तब बतलाओ
मेरे मन के मधुर मौन
हम में और उनमे
दोनों में
श्रेष्ठ कौन ?
वाह्ह्ह क्या बात है सर ! (आशीर्वाद दे कि मैं जब भी छंदों के बिना कविता लिखूं तो कम से कम एक ऐसी रचना लिख सकूं )
नमन ....
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