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याद  की   छाई  घटाये  चाँद  उनमे  खो  गया  I

रोते-रोते थक गया  तो नील  नभ पर सो गया  I

 

ह्रदय सागर की लहर पर ज्वार  का छाया नशा

स्वप्न  के  टूटे   किनारे  चांदनी   में धो  गया  I

 

पर्वतो के श्रृंग पर  है  शाश्वत  हिम  का  मुकुट

मौन  के  सम्राट का  भी  ह्रदय  प्रस्तर हो गया  I

 

देखकर  इस  देह के  पावन मरुस्थल का धुआं

एक  सहृदय रेत  में  कुछ आंसुओ को बो गया  I

 

कल्पना के कलश में करुणा  अभी 'गोपाल' की

ढल न पाई  कवि  ह्रदय में दर्द  आकर रो गया  I

 

 

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

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Comment by annapurna bajpai on June 25, 2014 at 5:29pm

बहुत सुंदर गजल , बधाई आपको आ0 गोपाल नारायण जी । 

Comment by Sushil Sarna on June 25, 2014 at 4:10pm

देखकर इस देह के पावन मरुस्थल का धुआं
एक सहृदय रेत में कुछ आंसुओ को बो गया

…वाआआआआआआआह आदरणीय वाह .... हर पंक्ति गहन भाव की अभिव्यक्ति है .... इस मनभावन प्रस्तुति के लिए आपको कोटि कोटि बधाई आदरणीय डॉ गोपाल नरायन श्रीवास्तव जी

Comment by Dr. Vijai Shanker on June 25, 2014 at 3:15pm
कल्पना के कलश में करुणा अभी 'गोपाल' की
ढल न पाई कवि ह्रदय में दर्द आकर रो गया I
आदरणीय , बहुत सुन्दर , बधाई , सादर.

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