2122 1222 2122 22/112
दिल से ज्यादा हमें करता कोई मजबूर नहीं
रोज कहता कि घर है उनका बहुत दूर नहीं
मैकदे की चुनी खुद मैंने डगर है साकी
रिंद के दिल में तू रहती है कोई हूर नहीं
आज सागर पिला दे पूरा मुझे ऐ साकी
रिंद वो क्या नशे में जो है हुआ चूर नहीं
गर जो होती नहीं मजबूरी वो आती मिलने
प्यार मेरा कभी हो सकता है मगरूर नहीं
रुख पे बिखरी तेरी जुल्फों ने सितम ढाया है
आज चिलमन में तेरा रहना है मंजूर नहीं
यार माना कि पी सागर से है मैंने छककर
बेटी अंगूर की पी यूं तू मुझे घूर नहीं
मौलिक व अप्रकाशित
Comment
आदरणीय श्याम जी ..प्रोत्साहित करने वाले आपके इन शब्दों के लिये तहे दिल धन्यवाद ..सादर
आदरणीय शिज्जू जी ..आपके स्नेहिल शब्दों के लिए तहे दिल धन्यवाद ..आपकी दी हुई सीख पर अमल करने की कोशिस सदैव करता हूँ ..बस यूं ही स्नेह बनाए रखें .सादर
आदरणीय शुशील जी ..हौसला अफजाई के लिए तहे दिल धन्यवाद ..सादर
आदरणीय अखिलेश भाईसाब ...आपके प्रोत्साहित करने वाली टिप्पणी के लिए तहे दिल धन्यवाद ...भाई साब कई जगह मैंने साकी का प्रयोग स्त्रीलिंग के रूप में भी होते देखा है ..ठीक से याद नहीं है ..बिद्व्त जनों की राय से सही जानकारी मिल सकेगी ..सादर धन्यवाद के साथ
waaaah waaah
बहुत सुन्दर ग़ज़ल आदरणीय। ………। हार्दिक बधाई आपको
बहुत खूब ! इस सुंदर गजल हेतु बधाई स्वीकारें । |
बहुत खूब आदरणीय डॉ आशुतोष सर बहुत बहुत बधाई
आज सागर पिला दे पूरा मुझे ऐ साकी
रिंद वो क्या नशे में जो है हुआ चूर नहीं......बहुत खूब.आशुतोष जी आपको हार्दिक बधाई.
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