उठो हे स्त्री !
पोंछ लो अपने अश्रु
कमजोर नही तुम
जननी हो श्रृष्टि की
प्रकृति और दुर्गा भी,
काली बन हुंकार भरो
नाश करो!
उन महिसासुरों का
गर्भ में मिटाते हैं
जो आस्तित्व तुम्हारा,
संहार करो उनका जो
करते हैं दामन तुम्हारा
तार-तार,
करो प्रहार उन पर
झोंक देते हैं जो
तुम्हें जिन्दा ही
दहेज की ज्वाला में,
उठो जागो !
जो अब भी ना जागी
तो मिटा दी जाओगी और
सदैव के लिए इतिहास
बन कर रह जाओगी !!
मीना पाठक
मौलिक/अप्रकाशित
Comment
आह्वान करती हुई कविता ! जगाती हुई ! सार्थक अभिव्यक्ति हुई है !
आदरणीया कुन्ती दी ...रचना सराहने हेतु बहुत बहुत आभार | सादर
आदरणीय सुशील सरन जी बहुत बहुत आभार | सादर
आभार आदरणीय सुरेन्द्र जी | सादर
सादर आभार आ० आशुतोष जी
मीना जी , बहुत ही सकारात्मक विचार दिया है आपने. हर स्त्रियों को ऐसी ही प्रेरणा स्रोत चाहिये. सब आँसू के दिन गये. आपको बहुत बहुत बधाई.
छ लो अपने अश्रु
कमजोर नही तुम
जननी हो श्रृष्टि की
प्रकृति और दुर्गा भी,
काली बन हुंकार भरो
वाह बहुत ही ऊर्जावान नारी को समर्पित रचना .... हार्दिक बधाई मीना जी
आदरणीया मीना जी नारियों के सम्मान में लिखी सुन्दर रचना ..होश और जोश में आने को प्रेरित करती
भ्रमर ५
आदरणीया मीना जी ..नारी को नारी के शक्ति की जानकारी देती इस शानदार रचना के तहे दिल बधाई सादर
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