पहन मुखौटा घूमते, आया पास चुनाव,
खेती बो विश्वास की, तापे खूब अलाव ।
छलियाँ बनकर लूटने, करे प्रेम की बात,
सबकी बाते मानते, दिन हो चाहे रात ।
मीठा मंतर मारते, मन में रखते खोट,
बंजर को उर्वर कहे, लेने इनको वोट ।
पाखण्डी कुछ आ गए, देख हमारे गाँव,
आकर लूटे कारवाँ, बोझिल से है पाँव ।
देख हवा के रूख को, झट पलटी खा जाय,
अपने दल को छोड़कर, दूजे दल में जाय |
होड़ लगी है मंच पर, फिसला करे जुबान,
हर दल करते घोषणा,हमको लगे समान |
छल-प्रपंच से पा रहे, जनता का विश्वास,
जागरूक जनता हुई, आया होश हवास ।
पुण्य मिलेगा आपको, करिये तो मतदान,
देश भक्त इंसान को, पहले ले पहचान |
बिन लालच के आपको,करनी है पहचान
मत की कीमत जानले, तब करना मतदान |
सोच समझ कर वोट दे, बिना हुए भयभीत,
प्रत्यासी को जानले, कैसा रहा अतीत !!
(मौलिक व अप्रकाशित)
-लक्ष्मण प्रसाद लडीवाला
Comment
आदरणीय लक्ष्मण भाई
इस सुंदर सामयिक रचना में नेताओं पर तीखा व्यंग्य किया है , मतदाताओं को भी सलाह दी , हार्दिक बधाई।
देख हवा के रूख को, झट पलटी खा जाय,
अपने दल को छोड़कर, दूजे दल में जाय..........यह दोहा तो नेताओं के प्रथम और अंतिम गुण को पूर्णरूप से बयां कर रहा है
बहुत सुंदर दोहावली आदरणीय लक्ष्मण जी, हार्दिक बधाई स्वीकारें
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